प्रस्तावना :-
हिन्दी काव्य साहित्य में प्रगतिवाद के शीर्षस्थ कवियों में कवि नागार्जुन का नाम अग्रीम रूप में लिया जाता है । प्रगतिवाद की चर्चा नागार्जुन के बिना अधूरी रह जाती है । प्रगतिवाद के बहुचर्चित एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार कवि नागार्जुन है । उनका काव्य सृजन छायावाद से लेकर बीसवीं सदी के अंत तक चलता रहा । उनका लेखन हर समय और युग में चर्चित रहा है । नागार्जुन की रचनाओं में युग जीवन का यथार्थ चित्रण पाया जाता है । जिसमें सामाजिक कुरीतियों तथा आर्थिक शोषण की नीतियों पर गहरा व्यंग्य किया है । कवि के काव्य विषय कल्पना की ऊँची उड़ान नहीं भरते, किन्तु अपने चारों ओर के वातावरण को ही विषय के रूप में ग्रहण करते है । प्रगतिवादी विचारधारा के साहित्यकारों में उनकी काव्य साधना स्पष्टवादिता, व्यंग्यात्मकता, जनवादिता, भुक्तभोगीपन, राजनैतिकता, स्वानुभूति, मानवतावादी स्वर, लोकजीवन दर्शन, प्रकृति चित्रण तथा सहजता के कारण अलग और अनोखा स्थान रखती है । अर्वाचीन समय में कवि निराला जनवादी साहित्य के जनक के रूप में सामने आते है, लेकिन उनके पश्चात् सशक्त एवं ताकतवर जनवादी साहित्य का प्रचार एवं प्रसार करने वाले कवि के रूप में नागार्जुन का नाम ही उल्लेखनीय है । नागार्जुन का साहित्य एवं कविता स्वानुभूत भुक्तभोगी होने से हर पाठक को अपनी कविता लगती है । उनके काव्य में हमेशा नये विषय, जन-जागरण के भाव एवं स्वर की चर्चा होती रही है । इनकी कविता में जनवादी स्वर एवं व्यंग्य एक अस्त्र के रूप में उभरकर आते हैं । नागार्जुन का व्यक्तित्व तथा कृतित्त्व जैसे बहुमुखी है, वैसे उनकी कविता की भाषा भी बहुरंगी है । उनकी काव्य भाषा सहज, सरल, सीधी-सादी, प्रवाहमयी, सपाट बयानी, चुटीली तथा लोकभाषा से युक्त भाषा है । इस प्रकार नागार्जुन हिन्दी प्रगतिवादी काव्य के सशक्त हस्ताक्षर है ।
नागार्जुन का जीवन एवं व्यक्तित्व ग्राम संस्कृति एवं ग्राम चेतना से पूर्ण विकसित हुआ था । उनके जीवन में आई विविध घटनाएँ प्रसंग, अनुभव व वातावरण तथा स्थितियों के अनुरूप व्यक्तित्व निर्माण हुआ था । इसी कारण पूंजीवादी एवं साम्राज्यवादी शोषण, अभावग्रस्तता आदि के प्रति उनका मन विद्रोही बन गया था । नागार्जुन का व्यक्तित्व संघर्षशील, संघर्षरत, एकांत प्रिय, मिलनसार, सीधा-सादा, यायावर एवं मस्तमौला स्वभाव वाला था । खुशामद व चापलूसी पसंद नहीं थी । दलित, शोषित, पीड़ित, अत्याचार व अन्यायग्रस्त व्यक्ति तथा समाज के प्रति उनके मन में करुणा तथा मानवता का भाव जागृत हो उठता था । वे चिंतन मनन कर साहित्य सर्जन करते थे । नागार्जुन का व्यवसाय खास कुछ नहीं था । कृषि पर अपनी आजीविका चलाते थे । स्वयं गाकर कविता बेचते थे । पुस्तकों के प्रकाशन के बाद मिलने वाली रायल्टी से वे अपने परिवार की आजीविका चलाते थे । इस प्रकार वे अपने परिवार का निर्वाह करते थे । नागार्जुन ने रामविलास शर्मा को लिखे हुए पत्र से बात स्पष्ट होती है - “नागार्जुन-साहित्य प्रचार-प्रसार करने का ठेका ले लिया है, बुकसेलरी कर रहा हूँ, बिहार के सत्रह जिले पता है न । एक-एक करके सभी जिलों की धूल छानने का संकल्प किया ।”1 भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन का भी प्रभाव उन पर रहा है । जिसका चित्रण कविता में करते है । रूस की क्रान्ति के प्रभाव स्वरूप मार्क्सवादी विचारों की ओर झुकते है । राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, जैन मुनि रत्नचंद्रजी, स्वामी सहजानंद, सुभाषचंद्र बोस, पंडित बलदेव मिश्र, दरभंगा की महारानी लक्ष्मीवती देवी, पंडित अनिरुद्ध मिश्र, पंडित सीताराम झा, पंडित मदनमोहन मालवीय, पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय, महाकवि कालिदास, कविन्द्र रविन्द्रनाथ टैगोर, गोर्की, लू शुन, कवि केदारनाथ अग्रवाल, महात्मा गाँधी एवम् प्रकृति, राजनीति तथा सामाजिक स्थितियों से प्रेरणा प्राप्त करके काव्य लेखन करते रहें ।
नागार्जुन हिन्दी साहित्य में सन् 1935 से लिखना शुरू करते है । उनकी पहली हिन्दी कविता ‘राम के प्रति’ साप्ताहिक विश्वबंधु में सन् 1935 में छपी थी । इसके बाद निरंतर काव्य साधना करते रहे और आजकल कुल मिलाकर नागार्जुन के चौदह काव्य संकलन और दो खंडकाव्य प्रकाशित मिलते है । कथा साहित्य के अन्तर्गत तेरह उपन्यास, कहानियाँ, बुकलेट्स तथा पुस्तिकाएँ, स्फूट साहित्य, एक नाटक, परिचयात्मक लेख, यात्रा वर्णन, चार निबंध संकलन, पत्र, भाषण, साक्षात्कार, संस्मरण जीवनी आदि विधाओं में नागार्जुन ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है । संस्कृत साहित्य में तीन काव्य और मैथिली में उपन्यास तथा काव्य जैसी विधाओं को अपनी लेखनी से स्पर्श किया है । वे मैथिली में साहित्य लेखन करते थे तब वे ‘यात्री’ नाम से लिखा करते थे । वे पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते थे तब भी यात्री नाम से लेखन करते थे । इससे पूर्व वैधनाथ मिश्र ‘वैदेही’ नाम से लेखन करते थे । रामवृक्ष बेनीपुरी के मार्गदर्शन के बाद नागार्जुन नाम से लिखते रहे । वे बहुज्ञ भाषाविद् थे । संस्कृत, पाली, अपभ्रंश, प्राकृत, मैथिली, बिहारी, बंगला, अंग्रेज़ी व हिन्दी जैसी अनेक भाषा का ज्ञान था । यह उनके घुमक्कड़ स्वाभाव और अध्ययन का परिणाम था । नागार्जुन बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने से उन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं में अपनी कलम चलायी है, लेकिन काव्य विधा से जितनी ख्याति मिली उतनी अन्य किसी विधा से नहीं मिल पायी । साहित्य लेखन को ही अपना धर्म मानकर साहित्य सृजन करते रहे थे ।
नागार्जुन की कविता उन्मुक्त एवं प्रफुल्लित है । इनकी कविता समष्टि की कविता है । काव्य में मानवीय भावों को जोड़कर सृजन करते है । जनता की भावनाओं को नागार्जुन चित्रित करते है इसलिए जनवादी काव्य बन गये है । जनवादी साहित्य जनता के भावों, विचारों, सुख-दुःख और समस्याओं को चित्रित करता है । इनका साहित्य आम आदमी भी समझ सकता है । यह साहित्य शोषित व पीड़ित लोगों का पक्षधर है । जनवादी साहित्य के संदर्भ में डॉ. शिवकुमार मिश्र का कथन है – “तमाम साहित्य जो आज भले ही बहुसंख्यक जनता की समझ के दायरे में नहीं है, किन्तु जो शोषण और अनाचार पर टिकी सत्ता की खिलाफत करता हुआ, शोषित मनुष्य का पक्षधर है । जनवादी साहित्य भले ही न कहा जाए, जनता का साहित्य ज़रूर है और हमारा समर्थन भी उसे है ।”2 नागार्जुन के काव्यों में विश्वास एवं उत्कट जिजीविषा का चित्रण किया गया है । संघर्षशील तथा पीड़ा से ग्रसित आम आदमी नागार्जुन के काव्य का केन्द्र है । वह व्यक्ति हताश-निराश नहीं है, बल्कि समस्याओं का सामना करने की ताकत रखता है । जीवन जीने की एक अदम्य जिजीविषा उसके मन के भीतर पाई जाती है । यह आदमी सहनशील एवं शक्ति संपन्न है । मानव की मूल्य शक्ति श्रम है । श्रमिकों की शक्ति संघठित होने पर उसके सामने कोई शक्ति अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगी । नागार्जुन आशावादी तथा परिश्रम पर पूर्ण विश्वास रखते है । उनके प्रति कवि आस्थावादी है । जनता की शक्ति पर विश्वास व्यक्त करने वाली कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत है-
“तन जर्जर है भूख प्यास से
व्यक्ति-व्यक्ति दुःख-दैन्य ग्रस्त है
दुविधा में समुदाय पस्त है
लो मशाल अब घर-घर को आलोकित कर दो
सेतु बनो प्रज्ञा-प्रलय के मध्य
शांति को सर्व मंगला हो जाने दो ।”3
कवि नागार्जुन के काव्यों में भारतीय लोकजीवन और लोक संस्कृति के दर्शन होते है । ग्राम जीवन और ग्राम प्रकृति के साथ जुड़कर कवि लिखता है । इससे कवि अनुभूति को यथार्थ वाणी प्रदान करते है तथा जीने की उर्जा प्रदान करते है –
“बहुत दिनों के बाद
अब की मैं जी भर सुन पाया
धान कुटती किशोरियाँ की कोकिल कंठी तान ।”4
कवि के काव्यों में जनानुभूति का स्वर सुनाई देता है । संघर्षरत जीवन शोषितों को शोषण से मुक्ति, इनकी समस्याएँ व दयनीय अवस्था का चित्रण नागार्जुन की कविता में पाया जाता है । उनकी कविता प्रतिहिंसा का समर्थन करने वाली कविता है । कवि ने प्रतिहिंसा नामक कविता में इसका प्रमाण दिया है । जन-सामान्य तथा जन जीवन की विसंगतियों का चित्रण कवि करता है –
“नीचे निपट गरीबी, ऊपर थाट - बाँट की रजत जयंती
शर्म न आती, मना रहे वे, महंगाई की रजत जयंती ।”5
नारी की दयनीय शोषित, पीड़ित अवस्था का चित्रण करके कवि नारी को भोग एवं गुलामी की वस्तु नहीं मानते बल्कि नारी को समाज में गरिमा व गौरव प्रदान करते है । नारी की गुलामी के लिए सवाल उठाकर कहते है कि कब तक गुलाम रहेंगी ? जैसे सवाल भी उठाते है । तालाब की मछलियाँ नामक कविता नारी को गुलामी से मुक्ति दिलाने की बात करती है । नारी शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ को बुलंद करते है –
“हाय पाकर भी मानव देह
तुम्हारा यह बदतर हाल
तनिक भी ची-चूं किया भी कि
नहीं खींच लेते है जिंदा खाल ।"6
नागार्जुन ने जनता के अभावों, समस्याओं एवं शोषण की अभिव्यक्ति अपनी कविता के माध्यम से की है । यह सब करते समय कवि कहीं पर प्रेम से घृणा करते है ऐसा नहीं है । उन्होंने प्रेम का चित्रण भी किया है, लेकिन उसके काव्य में आने वाला प्रेम का चित्रण यह गौण स्थान रखता है । उनकी कविता में आने वाला प्रेम का चित्रण मेहनतकश लोगों में श्रम की महत्ता बढ़ाने के लिए आता है या फिर शोषित, पीड़ित लोगों में जीने की प्रेरणा जगाने हेतु आता है । संघर्षमय जीवन की प्रेरणा के रूप में प्रेम का चित्रण आता है –
“संध्या की तिगुनी धुंध में
ओझल होती जाति किरणें
हिममंडित शिखरों को
सत्वर रहीं चूम ....
भारी-भारी बोरियाँ लदी हैं पीठों पर
पर्वत कन्याएँ गयी घूम ।”7
नागार्जुन की कविता में उत्सवधर्मिता है । उत्सवधर्मिता उनकी कविता का अंग बन चुका है । उनकी कविता में आम आदमी के जीवन की त्रासदी तथा दर्द दिखाई देता है, लेकिन उनका काव्य प्रसन्न एवं प्रफुल्लित करने वाला है । कविता का नायक हमेशा आम आदमी तथा सर्वहारा वर्ग का मनुष्य रहा है । कवि स्वयं प्रसन्नचित व्यक्ति होने से उनके काव्य में अलगाव देखने को नहीं मिलता । इसीलिए वे समाज के साथ जुड़ते है और समाज में व्याप्त मानव जीवन के अनुभवों को अपनी कविता में अभिव्यक्त करते है ।
कवि नागार्जुन निडर एवं निर्भीक व्यक्तित्व के धनी है । देश और समाज में जो देखा, अनुभव किया तथा भोगा है । उसका चित्रण वे कविता में करते है । कवि निडर एवं निर्भीक होकर सहज रूप से अपनी बात रखकर वस्तु स्थिति का यथार्थ परक चित्रण करते है –
“स्वेत-श्याम-रतनार अँखियों निहार के
सिंडिकेटी प्रभुओं की पगधूर झार के
लौटे हैं दिल्ली से कुल टिकट मार के
खिले हैं दाँत ज्यों दाने अनार के
आये दिन बहार के ।”8
कवि की कविताओं में देशभक्ति एवं राष्ट्र प्रेम लबा - लब भरा दिखाई देता है । नागार्जुन आम आदमी, शोषित, पीड़ित, उपेक्षित लोगों के पक्षधर कवि है । उस व्यक्ति के प्रति मन में प्रेम, विश्वास व आस्था है । वह देश विद्रोही तथा विरोधी घटनाओं को धिक्कारते है । तालाब की मछलियाँ नामक संग्रह की कविता में कवि मानते है कि महात्मा गाँधी की हत्या होना न केवल देश के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए हानिकारक है । देश को सुजलाम -सुफलाम बनाने की बात कवि नागार्जुन अपनी कविता में करते है –
“अन्न-वस्त्रदा
सुखदा, सुभदा
प्राणों से भी बढ़कर प्यारी
हिम किरीटिनी
जलधि-पैजनी
बने स्वर्ग यह भूमि हमारी ।"9
कवि की कविता में सामाजिक विषमता का चित्रण पाया जाता है । कवि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक विषमता का विरोध करते है –
“कुत्ते ने भी कुत्ते पाले, देखो भाई
पैदल चलने वालों की तो शामत आई ।”10
कवि समाज में फैली सामाजिक विषमता को नष्ट करने की भावना से प्रेरित होकर कविता लिखता है । कवि आम आदमी, श्रमिक, मेहनतकश, उपेक्षित तथा नारियों पर होने वाले अन्याय जुल्म एवं अत्याचार का विरोध देखने को मिलता है । जिससे उनकी कविता में विद्रोही तथा क्रान्ति की भावना का साक्षात्कार होता है । राजनेता, भ्रष्टाचार, सरकारी नीतियां, पूंजीवादी व्यवस्था, सत्ता लोलुपता आदि के विरोध में कवि का विद्रोहात्मक स्वर सुनाई देता है –
“दिल ने कहा दलित माओं को
सब बच्चे अब बागी होंगे
अग्निपुत्र होंगे ये अंतिम
विप्लव में सहभागी होंगे ।“11
नागार्जुन ने राजनीति को लेकर अधिक कविताएँ लिखी है । राजनैतिकता का चित्रण करते समय कवि व्यंग्य के प्रहार और विद्रोह की आवाज़ बुलंद करके काव्य साधना करते है । इनमें दल, राजनीति, राजनीतिक दोष, राजनेताओं के आचरण, दोगली नीति एवं दोगला आचरण, राजनीतिक गतिविधियाँ, राजनीतिक उथल-पुथल आदि का वर्णन आता है । नागार्जुन जनता का पक्षधर होने से कवि राजनीति से मुँह नहीं मोड़ सकते है-
“सच सच बोलो, उसके आगे
तुम क्या थे भाई मोरारजी
सूखे-रूखे काठ सरीखे
पड़े हुए थे निराकारजी ।"12
नागार्जुन काव्य की आत्मा व्यंग्य है । कवि अपनी कविता में समाज के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर व्यंग्य करते हैं अपनी पैनी दृष्टि के माध्यम से सभी विषयों को स्पर्श करते है । विश्वभर मानव का कहना है कि - “हरिश्चंद्र के युग के कुछ साहित्यकारों को छोड़कर पिछले पचास वर्षों में नागार्जुन जैसी तीखी और सीधी चोट करने वाला व्यंग्यकार हमारे साहित्य में नहीं हुआ ।”13 निम्नलिखित पंक्तियाँ एक सशक्त व्यंग्यकार की परिचायक है –
“लटक रही है तलवार रात-दिन इस गर्दन पर
बेकारी की
लाचारी की
बीमारी की
चैन नहीं आराम नहीं है
सपने में भी सुख-सुविधा का नाम नहीं है
तान विषण्ण, मन चिर अशांत है
पल पल हम भयाक्रांत है ।"14
नागार्जुन की कविता में प्रकृति मानव जीवन से जुड़कर आती है । प्रकृति मनुष्य को के लिए प्रेरक व प्रेरणा देने वाली है । श्रम करने के लिए मनुष्य को उकसाती है, तैयार करती है । नागार्जुन की कविता में प्रकृति के विविध रूपों का वर्णन हुआ है । उनके काव्य में प्रकृति के विभिन्न ऋतु व मासों का वर्णन मानव जीवन से जोड़कर चित्रित किया है –
“नदी के पेट में चला गया है समूचा गांव
बेघर हो गये हैं लोग
पगला गई है बूढ़ी गंडक ।"15
मानवतावादी स्वर नागार्जुन की काव्य में गूंजता है । आम जनता पर हो रहे अत्याचार एवं जुल्म से कवि का मन पीड़ित होता है । शोषितों के प्रति उनके मन में करुणा का भाव दिखाई पड़ता है । मानवता एवं विश्वबंधुत्व की कल्पना कवि करता है –
“सतत अभ्युदिन
जन-जन प्रमुदित
सर्व सुखद सुन्दर समाज हो ।”16
नागार्जुन का व्यक्तित्व व कृतित्त्व जैसे बहुमुखी तथा बहुविध है वैसे उननी वाण भाषा भी बहुरंगी है । नागार्जुन यह मानते हैं कि कविता का कथ्य यदि जानदार एवं सशक्त हैं तो भाषा-शैली व शिल्प अपने आप उसके अनुसार आचरण करता है ।
जन सामान्य के भावों को उन्हीं के शब्दों में जन भाषा द्वारा वे अभिव्यक्ति देते है । आम जनता के स्तरों की अभिव्यक्ति के लिए सपाट वयानी भाषा का प्रयोग करते है । इसके कारण काव्य स्पष्टता तथा प्रवाहीपन नज़र आता है । कवि ने कहीं कहीं संवादात्मक शैली तथा नाटकीय तत्त्व का निर्वाह किया है । अन्य जनवादी कवियों की भांति अपनी कविता में फैंटेसी का आधार लिया है । कवि ने नृत्य एवं संगीत की लोक शैली वाली भाषा को अपनाया है । नागार्जुन कविता में चुटीली भाषा का प्रयोग होने से उनकी कविता का व्यंग्य चुभता है । नागार्जुन की कविता में अलंकारों का मोह नहीं दिखाई देता, बल्कि अलंकार कविता के कथ्य को शानदार बनाने में सहायता प्रदान करने का काम करता है । वर्णिक, मात्रिक तथा मुक्त सभी प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है । कवि मिथकों, बिम्ब एवं विशेषणों का नूतन प्रयोग करने में सिद्धहस्त है । इस प्रकार अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों पक्षों से नागार्जुन की कविता हिन्दी साहित्य में अपनी अलग पहचान रखती है ।
संदर्भ सूची :-
1. डॉ. चन्द्रहास सिंह, नागार्जुन का काव्य, पृ. 16
2. सं. नामवर सिंह, आलोचना, जनवरी-मार्च, अप्रैल-जून, 1981, पृ. 94
3. नागार्जुन, सतरंगे पंखों वाली, पृ. 48
4. वही, पृ.15
5. सं. शोभाकान्त, नागार्जुन रचनावली, पृ. 60
6. नागार्जुन, रत्नगर्भ, पृ. 17
7. नागार्जुन, तुमने कहा था, पृ. 57
8. वही, पृ. 47
9. नागार्जुन, तालाब की मछलियाँ, पृ. 125 10. तुमने कहा था, पृ. 53
11. नागार्जुन, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, पृ. 125
12. वही, पृ. 125
13. हरिचरण शर्मा, नये प्रतिनिधि कवि, पृ. 125
14. नागार्जुन, तालाब की मछलियाँ, पृ. 125
15. वही, पृ. 125
16. वही, पृ. 126