Sunday, 20 June 2021

मलबे का मालिक कहानी का मूल्यांकन

  

प्रस्तावना :-

                 आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य में मदन मोहन गुगलानी उर्फ़ ‘मोहन राकाश’ का नाम बडे आदर एवम् सम्मान के साथ लिया जाता है । मोहन राकेश ने हिन्दी साहित्य में कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, निबंध, डायरी, अनुवाद, संपादन आदि विधाओं के सर्जन से अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया हैं । हिन्दी कथा-साहित्य की विकास यात्रा में उनकी कथात्मक कृतियाँ मील के पत्थर के समान हैं । मोहन राकेश का सर्जन काल सन् 1947 से 1969 के बीच का रहा हैं तथा वे अपने दौर के सर्वाधिक चर्चित नाटककार एवं कहानीकार थे । हिन्दी कहानी साहित्य में उनकी की पहचान ‘नई कहानी’ आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में हैं । उन्होंने कुल मिलाकर पाँच कहानी संग्रहों में संकलित साठ के आसपास कहानियों को लिखकर हिन्दी साहित्य की समृद्धि को समृद्ध किया हैं । लेखक की प्रथम कहानी ‘नन्ही’ है । जिसको कमलेश्वर ने सन् 1944 में ‘सारिका’ पत्रिका के ‘मोहन राकेश स्मृति’ विशेषांक में प्रकाशित किया था, लेकिन लेखक की डायरी के अनुसार उनकी पहली कहानी ‘भिक्षु’ है । जो सन् 1946 के ‘सरस्वती’ के अंक में प्रकाशित की गई थी । लेखक की महत्वपूर्ण कहानियों में ‘मलबे का मालिक’, ‘पमात्मा का कुत्ता’, ‘अर्धविराम’, ‘मिसपाल’, ‘कटी हुई पतंगे’, आदि हैं । मोहन राकेश समय-समय पर अपने कहानी संग्रहों के शीर्षक बदलते रहे हैं । जिसमें ‘इन्सान के डहर’ (1950), ‘नये बादल’ (1957), ‘जानवर और जानवर’ (1958), ‘फौलाद का आकाश’ (1966) मुख्य हैं ।

                     मोहन राकेश ने स्वयं अपने जीवन में अस्थिरता, अकेलापन, अर्थाभाव, घुटन, अंधविश्वास, बंटवारा, भ्रष्ट-राजनीति, विभाजन की त्रासदी आदि विडम्बनाओं के दृष्टा और भोक्ता रहे हैं । जिसका प्रतिबिम्बि उनके साहित्य में प्रतिबिंबित होता है । ‘मलबे का मालिक’ कहानी विभाजन समय के कभी न भरने वाले गहरे घाव की कहानी है । कहानी की पृष्ठभूमि ईस्विसन 1947 में भारत के राजनैतिक बँटवारे से पैदा हुई मन:स्थिति है । अमृतसर की ‘बाँसा बाजार’ को कथा केन्द्र बनाया है । ‘लाहौर’ और ‘पाकिस्तान’ का जिक्र मात्र मिलता हैं | कहानी के नायक अब्दुल गनी मियाँ तथा खलनायक रक्खे पहलवान के जरिए पूरी कहानी ‘पूर्ण दीप्ती’ शैली में निरुपित है ।

कथानक :-

                  कथानक कहानी का अनिवार्य अंग हैं । जिस पर कहनी का गुलदस्ता निर्मित होता है | ‘मलबे का मालिक’ कहानी का कथारंभ अमृतसर की बाँसाँ बाजार के जीवंत दृश्य से होता है । कथा नायक अब्दुल गनी मियाँ और इनके साथी फतह्दीन लहौर से हॉकी मैच देखने के बहाने साढ़े सात साल पहले पराये हो गये अमृतसर को अपनी आँखों में भरने की चाव लेकर आये हैं । शहर की हर सड़क पर मुसलमानों की कोई न कोई टोली घुमती नजर आती थी । उन लोगों की आग्रह भरी आँखें हर चीज को इस तरह देखती हैं कि जैसे अमृतसर अच्छा-खासा आकर्षण केन्द्र हो । वे तंग बाजारों से गुज़रते हुये फतहदी और खान साहब को संबोधित कर मिसरी बाजार की दुकाने, नुक्कड़ पर भटियारिन की भट्टी, नमक मण्डी और बैठे पान वाले को देखकर अपनी नमकी चीजों और यादों को ताजा कर रहे थे । लाहौर से काफी संख्या में मुसलमान आये थे । जिन्हें विभाजन के समय अमृतसर को छोडना पड़ा था । शहर में बहुत दिनों बाद तुर्रेदार पगडियाँ और लाल तुर्की टोपियाँ नजर आ रही थी । साढ़े सात साल बाद के जयमलसिंह की चौड़ाई, हकीम आसिफ अली की दुकान के स्थान पर बैठा मोची को देखकर प्रश्न होता हैं कि क्या इस तरफ के सब के सब मकान जल गये थे एवं ज्यों की त्यों खड़ी मस्जिद को देखकर विस्मित भी हैं कि इन लोगों ने मस्जिद का गुरूद्वारा नहीं बना दिया । इस प्रकार कहानी के शरूआत में शहर के पुराने घाव एवम् उभरे नयेपन को चित्रांकित किया हैं ।

                       अमृतसर के जिस रास्ते से पाकिस्तानियों की टोली गुजरती वहाँ के लोगों की आँखें और चेहरों पर उत्सुकता एवं आशंका उभरने लगती हैं । कई लोग रास्ते से हट जाते हैं तो कुछ आत्मीयता से पाकिस्तान-लाहौर के हाल-चाल जानने की कोशिश करते हैं । लाहौर से आये मेहमान के पास से अनारकली की रौनक, शाहालमीगेट बाजार का नयापन, रिश्वतपुरा की रिश्वत का रहस्य, पाकिस्तान में बुर्के निकाल जाने की सच्चाई आदि बातें खुशी से करके लोग को लग रहा था कि लाहौर एक शहर नहीं, लेकिन कई लोगों के सगे-संबंधि हैं । यह घटना विभाजन के बाद के पाकिस्तान और लाहौर का चित्र प्रस्तुत करती हैं ।

                        अमृतसर की बाँसाँ बाजार कहानी का मुख्य घटना स्थल है । बाँसाँ बाजार अमृतसर का एक उजड़ा-सा बाज़ार हैं, जहाँ विभाजन से पहले निचले तबके के मुसलमान रहते थे । इस बाजार में विभाजन के समय बाँसों और शहतीरों की दुकाने जलकर राख हो गई थी । उस आग में पुरा शहर जल जाने का अंदेशा था, लेकिन किसी प्रकार आग पर काबू पाने में सफल रहे थे । मुसलमानों के घर के साथ हिन्दू के घर भी जलकर राख हो गये थे । वहाँ कई इमारतें नई बनगई तो कई जगहों पर केवल मलबे का ढेर पड़े है । उस दिन भी बाँसाँ बाजार में कोई चहल-पहल नहीं थी, कयोंकि अधिकत्तर लोग अपने मकनों के साथ शहीद हो गये थे और जो रह गये उन्होंने कभी लौटकर आने की हिंमत नहीं दिखाई । उस दिन विरान बाँसा बाजार में एक दुबला-पतला बुड्ढा मुसलमान आया हैं । नये बाजार और जली इमारतें देखकर भूल-भूलैया में पड़ जाता हैं । गली में आते ही देखते है कि कुछ बच्चें कीडी-कीड़ा खेल रहे थे तो कुछ फासले पर स्त्रीयाँ आमने-सामने गालियाँ सुना रही थी । अब्दुल गनी मियाँ को उसे देखकर लगा कि आज भी बोलियाँ नहीं बदली । उसी समय रोते हुए बच्चे को पुचकार कर अपने पास बुलाते है, परंतु सोलह सत्रह साल की लड़की दौडी-दौडी आई और बच्चें को लेकर चली गयी । बच्चे का मुह चूमकर चुप हो जाने के लिए कहती हैं मगर बच्चा चुप नहीं हुआ तो फिर बोलने लगी | तुम्हें मुसलमान पकडकर ले जायेगा । उस बुड्ढ़े मुसलमान ने बच्चे को देने लिए जो निकाला था, वे फिर ज़ेब के अन्दर रख देते हैं तथा बंध दुकान के तख़्त पर मालिक का नाम लेकर बदले हुए शहर को देखता रहता है ।

                   उसी दौरान एक नवयुवक चाबियों का गुच्छा घुमाता हुआ आया और अब्दुल गनी मियाँ से पूछने लगता है कि यहाँ किसलिए खड़े है ? गनी मियाँ ने देखते ही मनोरी को पहचान लिया था । वे मनोरी अपने नाम से पुकारते है तब मनोरी आश्चर्य से पूछता हैं कि आपको मेरा नाम कैसे मालूम है ? बुड्ढे मुसलमान ने उत्तर दिया कि मेरा लडका चिरागदीन तुम लोगों का दरजी था । उसने छः महीने पहले ही नया मकान बनवाया था । अब मनौरी गनी मियाँ को पहचान लेता है । आप पाकिस्तान से आये हो । अब्दुल गनी मियाँ हाँ कहकर चिरागदीन की बात करने लगते है और मनौरी गनी मियाँ को बाँह पकड कर घर दिखाने ले जाता हैं । शहर में खबर फ़ैल गयी थी कि रामदासी के लडके को मुसलमान उठा लेता | उसकी लडकी ने सही समय पहुँचकर बचाया लिया था । अब गली में एक फेरीवाला तथा कुएँ के पास रक्खा पहलवान सो रहा था, लेकिन खिड़कियों के अंदर से कई चेहरे झाँक रहे थे । गली के सब लोगों ने चिरागदीन के बाप अब्दुल गनी मियाँ को पहचा लिया है ।

              अब्दुल गनी मियाँ को मनोरी ने दूर से मलबा दिखाकर कहा कि वह तुम्हारा मकान है । मलबे में केवल एक चौखट और पीछे दो आलमारियाँ बची थी । जैसे मकान की चौखट अब्दुल गनी मियाँ के जीर्ण जीवन का प्रतीक है । इस भयंकर दूर्घटना के बारे सोचकर उनके मुख से चित्कार निकलता है । मलबे को बड़े चाव से देखता है, किन्तु कुछ भी तो बचा नहीं था ।

               अब्दुल गनी मियाँ को मलबे के पास देखकर लोगों के बीच चेहमेगोईयाँ होने लगी थी । आज कुछ जरूर होगा और चिरागदीन की साढे सात साल पहले की घटना सामने आयेगी । चिरागदीन, उनकी बीवी जुबैदा, लडकी किश्वर और सुलताना को किस प्रकार अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए विभाजन की आड में रक्खा पहलवान ने पाकिस्तान दिया था । रक्खा पहलवान अपने आप को मलबे मालिक समझकर किसी को गाय-भैंस बाँधने नहीं देता था । अब उसे पता चलेगा । लोगों की कशमकश चल रही थी और गनी मियाँ के हदय में रुदन एवं पश्चात्ताप की आग सुलग रही थी । लोग यह भी चाहते थे कि सारी कहानी गनी मियाँ के पास पहुँच जाये ।

                 कुएँ के पीपल के नीचे सोये हुए रक्खे पहलवान को उसका शागिर्द सामाचार देता हैं कि पाकिस्तान से अब्दुल गनी मियाँ आये है और मलबे पर बैठा है । यह सुनकर रक्खें का ह्दय धौकनी की तरह चलने लगा । चिलम के कस पर कस मारने लगा । डर के साथ यह भी आशंका होने लगी थी कि मनोरी ने गनी मियाँ को कुछ बता तो नहीं दिया होगा ? शागिर्द लच्छे पहलवान झटक कर कहता है, मलबा उसका कैसे हो सकता है ! मलबा तो हमारा हैं । तब मनोरी गनी मियाँ की बाँह थामे मलबे की ओर से आते दिखाई देते हैं । मनोरी चाहता था कि रक्खा पहलवान उसे न देख पायें और वह दूर से ही निकल जाये । कुएँ के पास पहुँच कर गनी मियाँ ने कहा मुझे पहचाना ? चिरागदीन का बाप अब्दुल गनी मियाँ ।

                 रक्खे पहलवान ने पुरा जायजा लेकर अब्दुल गनी मियाँ को पहचानता है । फिर कोई प्रतिक्रिया नहीं देता और गनी मियाँ पीपल का सहारा लेकर कुएँ के सिल पर बैठ जाते हैं । अब ऊपर की खिड़कियों में चेहमेगोईयाँ तेज हो गयीं थी, क्योंकि गनी मियाँ और रक्खिया दोनों आमने-सामने हैं । लोगों की आवाजे सुनाय पड रही थी | मनोरी डरपोक है, उसे बता देना चाहिए कि चिरागदीन और उसके बीवी-बच्चों के कातिल रक्खा पहलवान ही है । लोग मलबे और रक्खें को लेकर भी खुश हो रहे थे ।

                 अब्दुल गनी मियाँ कहते हैं कि देख रक्खें क्या से क्या हो गया हैं । मेरे भरे-पुरे परिवार के स्थान पर केवल मिट्टी बची हैं पर उसे भी छोडकर जाने को मन नहीं करता । तुम सब भाई-भाई थे, गली में तुम्हारे होते कोई खतरा भी नहीं था और तुम पर तो उसे सबसे ज्यादा भरोसा था । फिर बता यह सब कैसे हुआ ? गनी मियाँ की बात सुनकर रक्खें की आवाज़ अस्वाभाविक, मुछों के नीचे पछीना और माथे पर दबाव आने लगा था । बात बदल ने इरादे से रक्खा गनी मियाँ को पाकिस्तान का हाल-चाल पूछने लगता है । गनी मियाँ ने बताया मेरा हाल तो ईश्वर ही जानता है । चिरागदीन को बहुत समझाया मगर मेरे साथ चलने को तैयार ही नहीं हुआ । आज वे हमारे साथ होते तो अलग बात थी, किन्तु चारों ने मकान की रखवाली के लिए अपनी जान दे दी । यह सुनकर रक्खे का पुरा ज़िस्म पसीने से भीग गया था और जबान एवं होठों के बीच फासला-सा महसूस हो रहा था । वे अपने मुँह से कैसे भी करके हे, प्रभु, तू ही है पुकार निकाल पाया था । शारीरिक और मानसिक प्रतिक्रिया से साफ पता चलता हैं कि गनी मियाँ के पुत्र चिरागदीन और उसके बीवी-बच्चें को रक्खे ने ही मार डाले थे ।

                     अब्दुल गनी मियाँ ने रक्खे पहलवान के हाव-भाव एवं चेष्ठा को देखकर उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा कि जो होना था हो गया । उसे अब कोई लौटा नहीं सकता हैं । खुदा नेक की नेकी बनाये और बद की बदी माफ करे । आप सब को देख लिया है तो मैं समझूँगा की चिराग को देख लिया है । छडी के सहारे खडे होते हुए रक्खे की सेहत के लिए मंगल कामना करते है । रक्खा दोनों हाथ जोड़कर मद्धिम-मद्धिम आवाज़ से गनी मियाँ को बिदा करता हुआ धीरे-धीरे-धीरे गली के बाहर चला आता है । गनी मियाँ के जाते ही खिड़कियों में थोड़ी देर चेहमेगोईयाँ चलती रही कि मनोरी ने सच बता दिया होगा, रक्खा का तालू खुश्क हो गया, अब मलबे पर गाय-भैंस बांधने से कैसे रोकेगा ? जुबैदा कितनी अच्छी थी । थोडी देर में गली का वातावरण फिर पूर्ववत् हो जाता हैं । स्त्रीयाँ, बच्चें और लड़कीयाँ गलि में उतर आती हैं । रक्खा पहलवान गहरी रात तक चिलम फूंकता हुआ बैठा रहा और वहाँ से निकल ने वाले उसे पूछते रहे कि पाकिस्तान से अब्दुल गनी मियाँ आये हैं । वे उत्तर देता रहा आये थे । उसके आगे कहने को उसके पास कुछ भी नहीं था | वे देर रात तक गली की दुकान के तख्ते पर लच्छे को पंद्रह साल पहले की हुई वैष्णवो देवी की यात्रा का वर्णन सुनाता रहा । आज किसी को भी सेहत के किस्से सुनने नहीं बुलाया एवम् मलबे के पास पहूंच कर लोकू पंडित की भैंस को तत-तत कर हटाने लगा था । रात की ख़ामोशी में नाली के पानी की हल्की आवाज़ सुनाई देती हैं और एक भटका हुआ कौआ चौखट पर बैठकर फिर कुएँ के पीपल पर चला जाता है । कौए के चले जाने के बाद कुत्ता आता है । कुत्ते को माँ की गाली के साथ ढेला मार कर हटा ने लगता है । रक्खा कुएँ के सिल पर जाकर लेट जाता है और फिर वहाँ मलबे के पास कुत्ता आकर भौंकने लगता है । गली में कोई चलता फिरता दिखाई नहीं देता तो मलबे के कौने में बैठ कर कुत्ता गुर्राने लगता है । यहाँ पर ‘मलबे का मालिक’ कहानी का अंत होता है । कहानी में मुख्य कथा बहुत तेजी से उद्देश्य की गति करती दिखाई देती हैं |

चरित्र-चित्रण :-

                   कहानी गद्य की संक्षिप्त विद्या है । इसमें किसी एक घटना, विचार एवं मनोगत संघर्ष को शब्दान्कित करने का लक्ष्य होता है । कहानी में अधिक से अधिक मुख्य पात्र एक या दो तथा गौण पात्र चार-पाँच से अधिक नहीं होने चाहिए । ‘मलबे का मालिक’ कहानी चरित्र-चित्रण की दृष्टि से एक सफल कहानी हैं, क्योंकि प्रस्तुत कहानी का मुख्य पात्र अब्दुल गनी मियाँ है तथा प्रतिनायक के रूप में रक्खा पहलवान है । प्रमुख गौण पात्रों में मनोरी, लच्छे पहलवान और चिरागदीन है । इसके अलावा कहानी के जितने भी पात्र हैं, उसकी झलक मात्र मिलती हैं । जिसमें चिरागदीन की बीवी जुबैदा, किश्वर, सुलताना दो लड़कियाँ, रामदासी की सत्रह साल की लड़की और बच्चा, गली में खेलते बच्चें, गली की स्त्रियाँ, फतहदीन, गाय-भैंस, कुत्ता एवं कौआ आदि हैं ।

                    अब्दुल गनी मियाँ अमृतसर का रहनेवाले था, परंतु विभाजन के पहले लाहौर चले गये थे । आज हॉकी मैच देखने के बहाने अमृतसर आये थे । विभाजन से पहले निचले तबके के मुसलमानों के साथ बाँसाँ बाज़ार में उसका घर था । उसने बेटे चिरागदीन ने छः महिने पहले ही नया मकान बनवाया था । बुड्ढे गनी मियाँ स्वभाव से स्नेही व्यक्ति है । सिर पर तुर्कीस्तानी टोपी पहने हुए है । हाथ में छडी हैं । दुःख और दुर्बल शरीर को संभालता हुआ पश्चाताप करता है कि मैं बदब्खत विभाजन के पहले लाहौर निकल गया था । मलबे को ममत्व और प्यार से देखता है । जैसे अपने पुत्र चिरागदीन, बीवी जुबैदा, बेटियाँ किश्वर और सुलताना को मिल रहा हो । रक्खा पहलवान और गनी मियाँ का आमने-सामने में उनके विशाल मानव ह्दय का परिचय मिलता है । जो सबको माफ करके कल्याण की कामनाएँ करता हैं । इस तरह गनी मियाँ के पात्र में अपनत्व, स्नेह, प्यार, और इन्सानियत की रेखाएँ अंकित हैं ।

                    रक्खा पहलवान कहानी का खलनायक है । इसी गली का रहनेवाला है । बस्ती के हिन्दु-मुसलमान को डराना, धमकाना, मारपीट करना, सोते रहना, शागिर्द रखना और मौका पाकर लोगों की संपत्ति हडपने का उनका पेशा हैं । खुद को मलबे का मालिक समझकर किसी आस-पास फरकने नहीं देता था, किन्तु जब गनी मियाँ के आने की खबर मिलते ही चेहरा पानी-पानी हो जाता है और उनके सामने ठीक से बात तक नहीं कर पाया था, क्योंकि वही इनके परिवार का हत्यारा था । अपने शागिर्द के साथ मलबे के पास जाता है तो कुत्ता भी हटने का नाम नहीं लेता है । लेखने इस तरह प्रतिनायक के सारे लक्षण रक्खें पहलवान में चित्रित किये हैं ।

                      मनोरी एक नव युवक है । जब गनी मियाँ अमृतसर छोडकर गये थे । उस समय बहुत छोटा था । गनी मियाँ को मलबे तक ले जाना और रक्खे पहलवान की मुलाक़ात तक साथ रहता है । यही लगता कि गनी मियाँ अपने पुत्र चिरागदीन की बाँह पकडकर घुम रहे है । मनोरी स्वभाव से मिलनसार एवं मददगार व्यक्तित्व का धनी है । लच्छे पहलवाण खलनायक का शागिर्द पात्र है । रक्खे के हर बुरे काम का साथी है । चिरागदीन गनी मियाँ का बेटा था और वे बाँसाँ बाजार में दर्जी का व्यवसाय करता था । जिसकी बीवी जुबैदा एक अच्छी औरत थी । अतः कहानी में मुख्यऔर गौण पात्रों की बाह्य और आंतरिक विशेषताएँ अच्छी तरह से उभरकर सामने आती है | मुख्य पात्र के इर्द-गिर्द कथा चलती हैं एवम् गौण पात्र सहायक होते हैं | पात्र कथा को गतिशील और विकसित करके उद्देश्य तक ले जाने का कार्य करते हैं । यह कहानी चरित्र-चित्रण की दृष्टी से एक सफल कहानी हैं |

कथोपकथन :-

                     कथा साहित्य में कथोपकथन या संवाद का विशेष महत्त्व होता है । कहानी आकार में लघु होती है, इसलिए कहानी के संवाद सरल, सहज और संक्षिप्त होने चाहिए । संवाद से कहानी के पात्र सजीव और स्वाभाविक लगते हैं । संवाद के जरिए कथा आगे बढाती है, चरित्रों की विशेषताएँ प्रकट होती हैं और अंत तक पाठक की उत्सुकता एवं कौतूहल बना रहता हैं ।

                ‘मलबे का मालिक’ एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति की व्यक्तिगत विभिषिका को व्यक्त करने वाली कहानी है । कहानी के संवाद मार्मिक, ह्दय द्रावक, छोटे-छोटे, सहज, सटीक, चित्रात्मक और सारगर्भित हैं । अब्दुल गनी मियाँ मनोरी के सामने मार्मिक और ह्रदय हिला देने वाले दुःख को व्यक्त करता हैं कि “हाँ, बेटा यह मेरी बदबख्ती थी कि मैं अकेला पहले निकलकर चला गया था । यहाँ रहता, तो उसके साथ मैं भी…” मनोरी संक्षिप्त में गनी मियाँ को स्वस्थ करता है कि “छोड़ो गनी मियाँ, अब उन बातों को सोचने में क्या रखा है ?” बाँह पकडकर कहता है, “चलो, तुम्हें तुम्हारा घर दिखा दूँ ।“ मलबे को देखकर गनी मियाँ के मुँह से निकल जाता है, “हाय ओए चिरागदीन ।“ रक्खा पहलवान के शागिर्द के संवाद चरित्र के अनुकूल नियोजित है, “गनी अपने मलबे पर बैठा है ।…मलबा उसका कैसे ? मलबा हमारा है ।“ अब्दुल गनी मियाँ के आने से गली में हो रही चेहमेगोईयाँ से परिवेश स्पष्ट होता हैं तथा गली का सत्य एवं लोगों की मनोगत वैचारिता व्यक्त करते हैं, “बेचारी जुबैदा कितनी अच्छी थी वह । रक्खे मरदूद का घर…न घाट, इसे किसी की माँ-बहन का लिहाज था ?” कुत्ता के भौंकने में ध्वनि प्रतीकों का सहारा लिया है । जो कहानी के वातावरण को जीवंत बनाता है । कुत्ता जोर-जोर से भौंकने लगता है-“वऊ-वऊ-वऊ !” रात की खामोशी को काटती नाली के पानी के साथ तरह-तरह की आवाज़ सुनाई देती हैं, “च्यु-च्यु चिक् किर् र् र्-र् र्-र्-रीरीरीरी-चिर् र् र् ।“ रक्खा पहलवान के द्वारा कुत्ते को भगाने के लिए-‘दुर-दुर-दुर-दुरे ।“ आदि । मोहन राकेश एक सफल नाट्य लेखक है । जिसके फलस्वरूप कहानी के संवाद नाट्यात्म और बोधगम्य बन पाये हैं । मलबे के मालिक कहानी के संवाद कथा, पात्र और विभाजन की त्रासदी को कलात्मक, यथार्थपूर्ण एवं चटीक और संक्षिप्त अबिव्यक्ति करने में सक्षम हैं |

देशकाल और वातावरण :-

            ‘मलबे का मालिक’ कहानी में सन १९४७ के राजनीति विभाजन की त्रासदी को चित्रित किया है | कहानी के आरंभ में तंग गली, मिसरी की दुकान, भठीयारण की भट्ठी, नमक मंडी आदि के जरिए अमृतसर की बाँसाँ बाजार के वातावरण को जीवंत किया है | साढ़े सात साल के बाद लाहौर से होकी मैच देखने के बहाने आये मुसलमानों के हालचाल के पूछते वक्त लाहौर के परिवेश का निर्माण किया है | भौतिक वातावरण के साथ पत्रों के सामाजिक, धार्मिक एवं मानसिक वातावरण को भी बखूबी वर्णित किया हैं | अमृतसर की बाँसाँ बाजार में मुसलमानों को देखकर लोगों के मन में आशंकाएँ और उत्सुकताएँ बढ़ने लगी थी | बाँसाँ बाजार के आग का दृश्य बटवारे की भयानकता को खोलकर रख देता हैं | बटवारें के दौरान भेड़-बकरियों की तरह कोगों को मारा-काटा गया था, इसका ऐतिहासिक दस्तावेज बाँसाँ बाजार हैं |

            बाँसाँ बाजार की गली का सामाजिक वातावरण बहुत सहज था, किन्तु अब्दुल गनी मियाँ के आते ही क्षणभर में पूरा वातावरण अस्वाभाविक हो जाता है | स्त्रियाँ और बच्चे घरों के अंदर चले जाते है | गली में केवल एक फेरीवाला बचता है | एक सत्रह साल की लड़की बच्चे को अपने से सटाकर बोली, “चुप कर, खसन-खाने ! रोएगा, तो मुसलमान तुज़े पकड़कर ले जाएगा ! कह रही हूँ, चुप कर !” जब गनी मियाँ मनोरी को मिलते है तो बहुत दू:खी हो जाते है और मानसिक परिताप व्यक्त करते हैं | मनोरी कहता है कि “छोड़ो गनी मियाँ, अब उन बातों को सोचने में क्या रखा है ?” यहाँ पात्रों के व्यक्तिगत संघर्ष को व्यक्त किया हैं | लेखक ने मलबे के परिवेश को चित्रात्म शैली से अभिव्यक्ति दी हैं | हम सच में मलबे के सामने खड़े हो जाते हैं | चौखट जैसे बूढ़े गनी मियाँ का प्रतीक लगती है | कहानी में कुत्ते का भौंकना, पानी की आवाज और सुनसान गली की घटना रात के परिवेश को यथार्थ रूप में व्यक्त करते है | रक्खे पहलवान और उनके गार्दिश द्वारा आतंकित रक्तपात की राजनीति का बयान मिलता है | चिरागदीन अपने परिवार के लिए चीखता-चिल्लाता रहा मगर रक्खे ने जान बख्श नहीं दी | “रक्खे पहलवान, मुझे मत मार ! हाय, कोई मुझे बचाओं !” गली के प्राकृतिक परिवेश का वर्णन करने में भी चूकते नहीं | कहानी रात होते-होते ख़तम हो जाती हैं | इस प्रकार समग्र कहानी में देशकाल और वतावरण का सफल चित्रण किया है |

भाषा-शैली :-

          भाषा घटना, विचार और भावों के अभिव्यक्ति का माध्यम है; इसीलिए भाषा-शैली कहानी अनिवार्य तत्व है | ‘मलबे का मालिक’ कहानी की मुख्य भाषा हिंदी हैं | इसके अलावा अंग्रेजी, उर्दू और अरबी-फारसी शब्दावली का प्रयोग किया गया हैं | जिससे कहानी के पत्रों की अपनी भाषा लगाती हैं | प्रस्तुत कहानी की भाषा कथा, पात्र और परिवेश के अनुकूल, सरल, सहज, सूत्रात्मक, मुहावरेदार, संक्षिप्त रूप से नाट्यात्मक ढाँचे में ढली हुई हैं | गनी मियाँ भी रक्खे पहलवान से कहते है कि “मैं गनी हूँ, अब्दुल गनी, चिरागदीन का बाप !” गली के चेहमेगोईयाँ के द्वारा एक मध्यम वर्गीय जीवन की बोलचाल की भाषा का प्रोयाग किया हैं | “गनी बेचारा कितना दुबला हो गया है !”, “असल में मलबा न इनका है, न गनी का | मलबा तो सरकार की मलकियत है |” कहानी के परिवेश को प्रतिबिंबित करने के लिए सांकेतिक भाषा पूट दिये हैं |

        मलबे का मालिक कहानी ‘पूर्वदीप्ति शैली’ में निर्मित की गई हैं, क्योंकि इस कहानी केन्द्रीय घटना भूतकाल से चयनित हैं | अब्दुल गनी मियाँ, मनोरी और रक्खे पहलवान के वार्तालाप में संवादात्मक तथा नात्यात्म्क शैली का सफल प्रयोग हैं | मनोरी कहता है कि “ आपको मेरा नाम कैसे मालूम है ?”...”साढ़े सात साल पहले तू इतना-सा था |”... “ओ गनी मियाँ !” कहानी का देशकाल और वातावरण वर्णात्मक और विवरणात्मक शैली में वर्णित किया हैं तो मलबे का वर्णन बड़ी सूक्ष्मता से चित्रात्मक शैली में अंकित हैं | अत: भाषा-शैली की दृष्टी से एक सफल कहानी हैं |

उद्देश्य :-

          विश्व का कोई भी कार्य निरुद्देश्य होता नहीं तो क्या हिंदी कहानी साहित्य उद्देश्य के बगैर हो सकता हैं ? इसमें भी कोई न कोई उद्देश्य जरुर निरुपित होता हैं | ‘मलबे का मालिक’ कहानी भी मोहन राकेश ने अपने मनोगत उद्देश्य को सामने रखकर लिखी हैं तथा इन द्देश्य को पूर्ण करने में सफल भी रही हैं | सन् १९४७ के विमाजन दौरान के मानव के रक्त रंजित देश के हालत को बाया करते हैं | इस त्रासदी के कारण व्यक्ति का व्यक्तिगत जीवन कैसा त्राहित हो जाता हैं | इसका हूबहू वर्णन किया है | एसी परिस्थितियों में लोग अपने नीजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए रक्त के प्यासे बन जाते हैं | रक्षक ही भक्षक हो जाते हैं | गनी मियाँ के चरित में मानवीयता की महेक महकती दिखाई देती हैं तो दूसरी तरफ रक्खे पहलवान जैसे लोगों की आतंकित मानसिकता से एक सामान्य समाज कैसे त्रस्त होता हैं | इसका खुलकर वर्णन किया हैं | अंत में यही सन्देश दिया है की बिना परिश्रम के प्राप्त सम्पति टिकती नहीं हैं | यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी की ‘मलबे के मालिक’ कहानी अपने मुख्य उद्देश्य के साथ गौण उद्देश्य पूर्ण करने में सफल रही हैं | यहाँ हमें अज्ञेय द्वरा रचित ‘शरणदाता’ कहानी की याद हो आती है |

निष्कर्ष :-

          निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि ‘मलबे का मालिक’ हिंदी कहानी साहित्य की अमर कहानी हैं | विभाजन समय का एतिहासिक दस्तावेज हैं | लेखक ने कहानी कला के सभी तत्वों का अच्छी तरह से निर्वाह किया हैं | कथा शरुआत से लेकर अंत तक पाठकों की उत्सुकता एवं आत्मीयता स्थापित करने में सफल रही हैं | पात्र भी लोगों के दिल में स्थान बना लेते हैं | कहानी के संवाद, परिवेश और भाषा-शैली का अच्छा गूम्फन आकर्षित करता हैं | अत: यह कहानी समग्र रूप से बहुत सफल कहानी हैं |