Saturday, 26 June 2021

पंचवटी खंडकाव्य का कथानक

'पंचवटी' राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
'पंचवटी' का कथानक
प्रस्तावना :-                                       
                ‘पंचवटी’ राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त के प्रसिद्ध खंड-काव्यों में से एक है । प्रस्तुत कविता रचना ईस्वीसन् 1925 में की है । इसके अलावा गुप्त जी ने अनेक खंड-काव्य लिखें हैं । जिसमें यशोधरा, द्वापर, कुणाल-गीत, सिद्धराज, विष्णु-प्रिया, जयद्रथ-वध, भारत-भारती आदि महत्वपूर्ण काव्य रचनाओं का सृजन किया हैं । कवि के काव्य लेखन का प्रारंभ 1906 से ही शुरुआत हो जाता हैं लेकिन, उनका पहला कविता संग्रह ‘रंग में भंग’ 1909 में हिन्दी साहित्य जगत को प्राप्त होता है । इसके पहले की कविताएँ प्रमुखतः ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित होती थी ।

               कवि काव्य के मुख्य विषय के रुप में भारतीय सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीय एकता  एवम् अखंडितता रहे हैं । राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी साहित्य का वह सूर्य हैं कि जिसकी किरणें भारतीय लोगों के मन-हृदय को प्रकाशवान करके संरक्षण और संवाहक का आह्वान करती हैं ।


‘पंचवटी’ खंडकाव्य का काव्य बोध :-

               मैथिलीशरण गुप्त ‘पंचवटी’ खंडकाव्य में भारतीय सभ्यता-संस्कृति के महाग्रंथ रामायण से कथा सूत्र ग्रहण कर लिखी गई हैं । कवि राम के अनन्य भक्त होने का प्रमाण काव्यारंभ में श्रीराम स्मरण से करवा जाते है । काव्य में प्रकृति का भी सुन्दर और सजीव वर्णन किया हैं । कवि अपने सृजन के माध्यम से लोगों के जनमानस में सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता और मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास भी करते हैं । पंचवटी कविता उसका सफल उदाहरण कहा जा सकता है ।


पूर्वाभास :-

            मैथिलीशरण गुप्त पंचवटी खंडकाव्य काव्य का प्रारंभ पूर्वाभास से करते है । अपने पूज्य पिता के सहज सत्य वचन पर राम अपना राज-परिवार, अपनी धरती और सर्व धन को त्याग कर वन के लिए निकल पड़े हैं । उनके पीछे सीता भी गहन वन को जाने के लिए तैयार होती हैं । उनके पीछे लक्ष्मण दिखाई पड़ते है तो राम पूछते तुम कहाँ जा रहे हो ? राम के प्रश्न का उत्तर विनीत वंदन से देते हुए कहते हैं कि तुम यानी राम मेरा सर्वस्व है । वे जहाँ रहेंगे वहाँ मैं रहूँगा । यह सुनकर सीता बोलती है कि राम अपने पिताजी की आज्ञापालन करने लिए सब छोड़ चले हैं । तुम स्वयं त्याग कर क्यो मुँह मोड़ कर राम के साथ वनगमन चल निकले ? तब सीता को लक्ष्मण उत्तर के रुप कहते हैं कि मुझे त्यागी कह कर मजबूर मत करों । आर्य चरणों की सेवा करने में मुझे भी अपना सहभागी समझो । नत मस्तक होकर कहते हैं कि भाई का कर्त्तव्य यही हैं ? आर्य आपके प्रति इस जन ने कब-कब क्या कर्तव्य किया ? ये मुझे पता नहीं है, लेकिन तुमने तो राम को प्यार किया है । सीता यह कह कर मुस्कुराती है पर राम की उज्ज्वल आँखें सफल सीप सी आँसू से भर आती हैं ।


गणेश वंदना :-

                भारती संस्कृति में किसी भी कार्य की शुभ शुरुआत से पहले गणेश वंदना की जाती है । ‘पंचवटी’ खंडकाव्य में भी श्री गणेशाय नम:  के साथ शुरू होती है ।


प्रकृति सौंदर्य :-

                सहज, सजीव और सौंदर्यमयी प्रकृति वर्णन के साथ ही काव्य प्रवाहित होता हैं । मनोहारी चन्द्र की चंचल किरणें जल और थल में खेल रही हैं । धरती और आसमान पर स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है । धरती अपना हर्ष मानो हरित तृणों की नोंकों से प्रकट करती है । इतना ही नहीं तरु भी मंद पवन के झोंकों से खुशी से झूम रहे हैं ।

               राम, लक्ष्मण और सीता के विश्राम के लिए पंचवटी की सुन्दर छाया में सुन्दर पर्ण-कुटी बनी है । उसके सामने ही स्वच्छ शिला पर धीर, वीर और निर्भीक मन वाला यह कौन धनुर्धर जाग रहा है ? जब्कि पुरा संसार सो रहा हैं । यह पुरुष देखने में राजा, गृहस्थ या विषयासक्त योगी रूप दृष्टिगत होता है ।

             यह वीर पुरुष किस व्रत को पूर्ण करने के लिए अपनी निन्द्रा इस प्रकार त्याग करके राज या सुख भोग के योग्य समय में आज विराग (अनुराग का अभाव) लिए बैठा है । जिस कुटीर का पहरी बना हुआ है उस कुटीर में क्या धन छिपा है ? जिसकी रक्षा में इसका तन, मन और जीवन है ! इन पंक्तियों में कवि लक्ष्मण की चरित्र रेखाएँ अंकित करते हैं ।

             पंचवटी की पर्णकुटी में मृत्युलोक में लगी मलिनता नष्ट करने के लिए स्वामी के साथ आई हुई तीन लोक की लक्ष्मी ने यह कुटी आज अपनायी है । ये वीर वंश की लाज भी है तब तो प्रहरी स्वयं वीर पुरुष लक्ष्मण है । निर्जन देश में शेष रात्रि भी मायावी राक्षसी जैसी लगती है । यहाँ कवि मायावी रात्रि, सोई सीता और प्रहरी लक्ष्मण का चित्रात्मक वर्णन करते हैं ।


लक्ष्मण का मनन और प्रकृति :-

             यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि कोई पास न हो तब भी मानव मन मौन नहीं रहता है । लक्ष्मण का मन अपनी आपकी सुनता रहता है और अपने आपको कहता रहता है । मनोमंथन के बीच-बीच में अपनी हर्षित दृष्टि इधर उधर डालकर धीर धनुर्धर नयी-नयी बातें मन ही मन करता रहता है । इन पंक्तियों कवि का सूक्ष्म-चिन्तक लक्ष्मण का काव्यांकन चित्रित किया है ।

           निस्तब्ध निशा और स्वच्छ चाँदनी हैं । स्वछन्द सुमन्द गन्ध भी आनंद तथा अप्रसन्न होकर कौन दिशा में चला गया है ? इतने निस्तब्ध रात्रि में भी नियति नटी का कार्य-कलाप चलता हैं पर बहोत एकांत भाव, शांत और चुपचाप । रात्रि के घने अंधकार में प्रकृति स्पर्श एवं नियति अनुभूतियों किया जा सकता हैं ।

              धरती पर चाँदनी रात के सौंदर्य वर्णन में कवि कहते हैं कि सबके सो जाने पर धरती मोती बिखेर देती हैं । जब सबेरे होने पर रवि उनको बटोरता लेता है । यह मोती विरामदयिनी संध्या को देकर जाता हैं । जिससे उसका शून्य श्याम शरीर पर नया रुप सौंदर्य छलकता है !

              प्रकृति सरल तरल ओस कण सी हर्षित होती हैं तो अति आत्मीयया प्रकृति हमारे दुःख में रोती भी है । अनजानी भूल कर ने पर दण्ड देती है पर  दूसरी ओर बूढ़ों को भी बच्चो-सा सहृदय बनकर पालती-पोसती है । प्रकृति मानव जीवन   में सहचरी, पालक और पोषक बनती हैं ।

              लक्ष्मण चिन्तन में डूब कर सोच रहे हैं कि वनगमन के तेरह साल व्यतित हो चुके पर लगता है कल की ही बात हो । मेरे पिता का हृदय वनगमन आते देखकर दुःखी हुआ था । अब वह समय निकट आ गया है । जहाँ हमारे वन की अवधि पूर्ण होगी । वन में रह कर हमने जो धन कमाया है वह और किसी को प्राप्त नहीं हो सकता । यहाँ वन में आने बाद जो धन मिला है इससे बढ़कर कोई धन न होगा ।

              राम को राज्य का भार प्रजा के हितार्थ ही दिया जाने वाला था । व्यस्त और विवश होकर हमारे बारे में भी विचार करेंगे । आप लोकोपकारी विचार कर हमे इससे कोई शोक नहीं होगा । नरलोक अपना हित स्वयं नहीं कर सकता हैं ! यही  चिन्तन में बैठा लक्ष्मण सोच रहा है ।

           मंझली माँ कैकेयी ने सोचा समझा होगा कि मैं राजमाता बन जाऊँगी । राम निर्वासित कर स्वयं की जड़े जमा लूँगी लेकिन, चित्रकूट में करुणा का पात्र स्वयं बन गयी । सब लोग कैकेयी को देख रहे थे पर वे खुद को न देख सकती थी ।

           राज मातृत्व  यही कहता था कि राम और लक्ष्मण को वनवास तथा भरत को राज्य पर भरत राज ग्रहण करने की  बजाय सब-कुछ त्याग करता है । उसके त्याग के लिए कहते है कि उस सौ सौ सम्राटों से बडे भाग्यशाली वह त्यागी है । मूढ़ जगत ने कितना महा मूल्य रक्खा है, किन्तु हमे हमको वन में जाने के लिए चुना हैं ।

           हमारे जीवन का लक्ष्य मात्र राज्य प्राप्त करना ही होता तो हमारे पूर्वज राजसत्ता को छोडकर वनगमन का मार्ग नहीं लेते ?

          परिवर्तन को ही उन्नति मानते हैं तो हम बढ़ते जाते हैं, किन्तु मुझे सीधे-सच्चे विचार और भाव ही अच्छें लगते हैं ।

           जहाँ राम रहते हैं । वहीं पर राज्य करते हैं । राम राज्य में सब पशु-पक्षी स्वच्छंद रुप से वन में विचरण करते हैं । जिन्हें प्रयत्न पूर्वक धर के अंदर पिंजरें में बंद कर रखते हैं । वे पशु-पक्षी भाभी यानी सीता के समीप, सस्नेह और सानन्द हिल-मिलकर रहते हैं ।

           सुसंस्कृत जन, पथभ्रष्ट या गिरे हुए जन पर बहुधा पशुता का आरोप लगाते हैं, लेकिन पशु वर्ग अपने खुद के नियमों को कभी तोड़ते नहीं हैं । कवि मानवता को सुरत्व की जननी कह सकते हैं परंतु पतित मानव को पशु कहना सह नहीं सकते हैं ।

        पंचवटी की गहरी छाया भूमी में दोपहर के समय विचित्र पशु-पक्षी आते हैं और भाभी इन पशु-पक्षीयों को भोजन देती हैं ।  जिस प्रकार सुन्दर संचल बालक अपनी माँ को घेर कर खिझाते हैं । उसी तरह यह पशु-पक्षी खेलकर-खिझाकर भी सीता को रिझाते हैं ।

          पंचवटी में अब भी गोदावरी नदी का किनरा ताल दे रहा है । जहाँ चंचल जल भी कल-कल कर तान दे रहा है । नदी के किनारे पत्ते नाच रहे हैं और सुमन मन से महकते रहते हैं । इस नदी तट पर चन्द्र और नक्षत्र तीव्र गहरी लालसा से लहराते रहते हैं ।

          समसामयिक समय में स्तुतिगान करते हुए विहंग ध्यान लग्न से दिखते हैं । जैसे कोई कवि कुल के समान ही नये गान की रचना में मग्न हैं । मयूर बीच बीच में बोलकर यह संदेश देता है कि देखते हैं कल कौन झूठी तारीफ लेता हैं ।

           यहाँ प्रकृति मध्य हर समय आँखों के आगे हरियाली ही छायी रहती हैं । झाडियों में से जहाँ-तहाँ झरनों झड़ी बहती रहती हैं । वन की एक-एक ओस बूंदें सरस और पवित्र लगती हैं । यह हिमकणीकायें मानो सौ सौ नागरिक जन का विमल और रम्य प्रेम या अनुराग हैं ।

           जिन मुनियों को तत्व-ज्ञान प्राप्त हुआ हैं उनका सत्संग भी यहाँ मिलता हैं । नित्य समय उनके नये नये आख्यान भी सुनने को मिलते हैं । जिनका जीवन जितना कष्ट और कण्टकों में रहता है, वही जीवन सुमन अधिक महक उठता हैं । उन्हें अत्र-तत्र सर्वत्र गौरव गंध भी मिलती हैं ।

            आश्रम में रहने वाले तोता-मैना भी मनुष्य की तरह शुभ सिद्धान्त वाक्य पढ़ते हैं । मुनिकन्याएँ पुण्य पराक्रम का यशगान करती रहती हैं । राम के भुवन में आश्चर्य के साथ सब के सब सुखपूर्वक रहते हैं । इतना ही नहीं, सिंह और मृग दो विपरीत प्रकृति के प्राणी भी एक घाट पर पानी पीते हैं ।

             पंचवटी वन भुवन में राम प्राचीन अनार्य जंगली जाति या पहाड़ी जंगली जाति शवरों सम्मान करते हैं । शवरों के भोले-भाले चेहरे पर सरल वचन बहते हैं । जिसे समाज निम्न और छोटा समझते हैं बल्कि, आम मनुष्य की तरह सामान्य मानव ही हैं । इन मनुष्यों में भी सामान्य जन की तरह मन एवं भाव उपलब्ध हैं, परंतु उसके पास  सुसंस्कृत जन जैसी वाणी नहीं हैं ।

           वनवास के दौरान कभी वन में व्यंजन के व्यवहार का अभाव खलता नहीं हैं । यहाँ वन में पीने के लिए निर्मल जल, खाने को मधुर कंदमूल और फल हैं । आयोजनमय भोजन व्यवस्था हैं । मन को केवल अनुग्रह, प्रेम या ईश्वर कृपा चाहिए फिर वह कुटीर हो या राज भवन हो कोई फरक नहीं पड़ता । यहाँ भाभी द्वारा दी गई अतुलनीय खुशी है या मझली माँ का दिया हुआ विपुल दुःख है ! कुछ पता नहीं चलता हैं ।

          सीता अपने लगाये पौधों को स्वयं पानी देती हैं और खुरपी लेकर खेत की देख-भाल करती हैं । उसे तब बहुत अधिकाधिक गौरव, संतोष और सुख मिलता है । लक्ष्मण येसे स्वावलंबनणूर्ण जीवन की एक झलक पर कुबेर के धन कोष को भी न्यौछावर कर देता है ।

            लक्ष्मण सोचता है कि यहाँ  निर्जन और एकांत के बावजूद भी  सांसारिकता के साथ इच्छा रहीत जीवन का अनोखा आनंद मिलता है । अत्रि ॠषि की पत्नी अनसूया जैसी कोई पुण्यशाली गृहिता कहाँ होगी ? कयोंकि अनसूया के तेज का अनुभूति देव जब आकाश मार्ग से गुज़रते थे तब भी होता था, इसलिए उसे सति और पुण्य समझा जाता है । राम, लक्ष्मण और सीता का यह भुवन सबसे अनोखा और भिन्न हैं, जिसमें कृत्रिमता नाम मात्र की भी नहीं हैं । पूर्ण रूप से प्रकृति की गोद में बना है तथा प्रकृति  इसकी अध्यक्षता करती हैं ।

           वन में रहकर भी हमको स्वजनों की चिन्ता होती हैं । स्वजन भी हमारे लिए दुःखी और पश्चाताप करके चिन्ता करते होंगे । जंगल में बने निवास स्थान में हमे दोनों ओर से सिकुडन और लज्जा मेहसूस होती हैं, लेकिन प्रत्यक्ष भाव से हम वन में सुख और कुशल मंगल के साथ रहते हैं ।

            लक्ष्मण अपनी इच्छा प्रकट करके कहते हैं कि मेरे स्वजनों को एक बार वन में ले आने की चाह होती हैं और यहाँ की प्रकृति की जो अनुपम महिमा या संपदा को घुमाकर दिखाना चाहता हूँ । स्वजन आर्य यानी राम को घर की भाँति प्रसन्न देखकर विस्मित हो जायेंगे । राम भले ही वन-विहार में  कार्य रत हैं, फिरभी वे प्रकृति की गोद में श्रीसम्पन्न और बहुत सुखी है । 

          वन विहार के दौरान अगर हमें कोई बाधाओं का सामना हुआ तो हम उन बाधाओं के सामने लडेंगे । यह तय हैं कि जिसके जीवन में कोई बाधा बोध का सामना नहीं होता हैं उसे कभी अपने जीवन में सबसे बडी शक्ति यानी सहन शक्ति प्राप्त नहीं होती हैं । यह येसी जीवन शक्ति हैं जो जिन्दगी में कम या कुछ समय के लिए आनेवाली बाधाओं को चले जाने के बाद भी शक्ति हमारे पास रहती हैं ।

            हाय ! हमारी माताएँ यह नहीं जानती कि हमे वन में क्या भोग-विलास और सुख चैन मिला हैं । इतना ही नहीं वे यह भी नहीं जानती कि हमे वन में कितनी कोमल एंव बहुत बडी प्रकृति की गोद मिली हैं । जहाँ किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं हो सकती हैं । अगर इसी खेल को विद्वज्जन जीवन संग्राम समझते हैं ? अगर यही सच हैं तो इसमें यश और कीर्ति प्राप्त करना बहुत आसान और सरल हैं ।

शूर्पणखा का सौंदर्य वर्णन :-

               लक्ष्मण शीला पर बैठा उर्मिला की स्मृतियों में याद करके कहता है कि बेचारी उर्मिला हमारे व्यर्थ ही रोती रहती होगी । इनको क्या पता हैं कि हम सब वन में बहुत सुख-भोग से अपना जीवन जी रहे हैं ! सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण कुछ समय के लिए चित्र की तरह आँखों की पलकें बंद करके खोलते हैं । जैसे ही लक्ष्मण की आँखें खुलते ही देखते हैं कि यह क्या देख रहा हूँ ? निशा का अनुपम रुप और अलौकिक वेश हैं !

            धन प्रदर्शन करने वाली जिस पर हमारी दृष्टि स्थिर नहीं रहती है येसी ज्योती की ज्वाला । लक्ष्मण की जब आँखें खुलती हैं तो निसंकोच भाव से एक हास्यवदिनी बाला सामने खड़ी है । बाला का शरीर रत्नाभरण अलंकरण से अलंकृत अंग सुन्दर लगते थे । जैसे कोई खिले और विकसित फूल मंजरी पर सौ सौ जुगनू जगमग जगते थे । येसी दिखती हैं ।

            इनकी बड़ी-बड़ी आँखों से अत्यंत अतृप्त वासना झलक रही थी । छवि से मानो कमल दल का मधुर फूल रस छलकता हैं, लेकिन इनकी दृष्टि जिसे खोजती थी वे उसे पाप्त चुकी हो येसा लगता है । इनको देखने से साफ पता चलता हैं कि रास्ता भूली और भटकती हिरनी अपने स्थान आ चुकी थी ।

            सौंदर्यमयी युवती के बालों से बने जाल में कमर के नीचे तक अपना बायाँ हाथ फँसाव बना रहा था । इसको देखकर लगता है कि चंचल और उत्सुक कमल के साथ भँवरें खेल रहे हो । इसके दाये हाथ में सुगंधित चित्र विचित्र फूलों की माला हैं । लक्ष्मण कल्पलता सी सुन्दर स्त्री पर अपना धनुष टाँग लेता है और उसे कामदेव ने झूला डाला हो येसा लगता है ।

            इन सौंदर्य संपन्न युवती को देखकर लक्ष्मण का मन संदेह का झूला झुल रहा था । अपनी भावनाओं के भ्रमणाओं में भीतर ही भीतर भटकने रहा था । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि विचार चक्र में पड़े लक्ष्मण को किनारा नहीं मील रहा था । यह आज मेरे सम्मुख  जाग्रत कैसा स्वप्न कक्ष बन रहा है ! मुझे अचरज होता हैं ।


शूर्पणखा और लक्ष्मण के संवाद :-

            लक्ष्मण को विशेष विस्मित देखकर मधुर हँसी हँसने वाली (सुन्दर युवती की देहाकृति तेजोमय और प्रिय थी) बोलती हैं कि तुम भाग्यवान होकर भी अबला यानी कमजोर स्त्री को देखकर मुग्ध हो गये । मनुष्य लोक की स्वाभाविकता पर अस्थिर होकर आश्चर्य में पड़ गया हैं ।

              शूर्पणखा लक्ष्मण से कहती हैं । तुमने कुछ बात भी नहीं पूछी प्रथम मुझे ही बोलना पडा हैं । इससे पुरुषों की निर्ममता प्रतिबिम्बित होती हैं । अब लक्ष्मण ठोडे मुस्कुरा कर सँभल गये थे । 

        शूर्पणखा जब पुरूष जाति को निर्मम ठहराती तो यह सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराकर नीज स्वभावानुसार गंभीर होकर उत्तर देते हैं कि सुन्दरी तमको ढलती रात में यहाँ देखकर मैं सचमुच विस्मित हुआ हूँ ! इतनी ढलती रात बीते तुम अकेली अबला तुम कौन हो और कहाँ जा रही है ? तुम अपने आप को अबला संबोधित कर स्वयं चतुर करार दिया और पुरूष को निर्ममता की निगाह से देखती है ! 

          लक्ष्मण परनारी से पहले संवाद करता तो पुरुष जाति की सुधर्मपरता चली जाती । मैं  तुम्हें क्या चण्डी कहूँ  ? तुमने मेरे बारे में सही सोचा है कि तुम्हारे प्रति मेरी ममता बहुत कच्ची हैं  । 

              मुझे मेरे जीवन परंपरा में माता, पिता, पत्नी, धन, धरा की कुछ भी ममता बंधी नहीं । मुंजुमुखी ममता महिलाओं में होती हैं  । मुझे उन बातों से कोई अभाव नहीं मेहसूस होता हैं । मैं स्वयं को परम सुखी अनुभव करता हूँ । 

           तुम मुझे शूरवीर कहकर कायर बताती हो, इससे तो तुम सूक्ष्मदर्शिता लगती है । तुम्हारें भाषण सुनकर भय होता है  तथा वन में  देखकर संशय भी होता है !

         तुम्हें मानवी, दानवी या वनदेवी क्या समझूँ ? तुम्हारे पास मानव का संकोच, दानवी-सा लावण्य लोच और वनदेवी का भोलापन कहाँ हैं ? तुम ही बतोओ संचित रहस्यों वाली तुम कौन हो ?

             शूर्पणखा लक्ष्मण का प्रश्न रूप उत्तर सुनकर बोलती है कि पति मानकर कहती हैं, कान्त तुम निष्ठुर हो । शूर्पणखा कहती तम्हें यह भी मालूम नहीं हैं कि मेरा मन कैसे शांत होगा और क्या चाहती हूँ ? यही मालूम होता है, मैं आज तुमसे छली जाऊँगी, लेकिन आ गयी हूँ तो क्या सहज चली जाऊंगी ?

           लक्ष्मण तुम मुझे अपना अतिथि समझो । तब क्या आतिथ्य मिलेगा ? पत्थर पिघल जायेंगा, लेकिन तुम्हारा ह्दय हिलेगा नहीं । रमणि स्वरुपा शूर्पणखा अधर दंशन करने के बाद भी लक्ष्मण मुस्कुराकर बोले तुम शुभ मूर्तिमति माया हो ।

          तुम अपुपम ऐश्वर्य संपन्न हो और मैं एक सामान्य अकिंचन जन, वन-वासी निर्धन तथा लज्जित हूँ  । लक्ष्मण का उत्तर सुनकर रमणि ने कहा कि मैंने तुम्हारें भाव जान लिये हैं, परंतु विधिने तुम्हें येसा धन दिया है जो देवों को भी दुर्लभ है !

           तुम स्वयं त्यागी और विराग भाव लेकर जी रहे हो । अगर ये रत्नाभरण तुम पर न्यौछावर करके मैं बडभागी हो जाऊँ ! तुम्हारी तरह योग धारण कर सकती हूँ एवं विपुल बाधाओं को चुटकी मीटा सकती हूँ  ।

           मुझे बताओं कि तुम्हारी कौन सी इच्छा के कारण तुमने व्रत लिया है ? मेरे पास येसा सामर्थ्य है कि तुम जो चाहो वे सब कुछ प्राप्त कर सकते हो । तुम्हें धन चाहिए तो सोने का भू-भाग मिलेंगे । तुम राजा बनकर यह विषम विराग का त्याग कर दो । 

       अगर किसी दुर्जन वैरी प्रतिशोध लेना है तो मुझे आज्ञा दो । मैं उसे अपने कालानल क्रोध से जला दूँगी । पत्नी के आहत से करते हो तो तुम सचमुच भोले हो । तुम क्यों अपने मन को इस तरह परेशान करते हो ? 

         येसे यौवन-धन पर सब कोई अपना प्राण न्यौछावर कर देंगें । तुम इसे व्यर्थ मत गवाओं, अपितु संसार भार सा अनुभव होता हैं तो उसे मेरे साथ दानी एक अवसर दो ।

       शूर्पणखा का प्रस्ताव सुनकर लक्ष्मण गंभीर होकर कहते हैं, धन्यवाद । तुम्हें देख के येसा लगता है कि निश्चय ही तुम नृप कन्या है, क्या सामान्य रमणी ऐसे प्रस्ताव कर सकती है ? मैं तुम्हें सच कहता हूँ कि मुझे इस वन में कोई अभाव नहीं ।

        लक्ष्मण तो फिर तुम इस वय में निष्काम तपस्या करते हो ? तुम्हें आश्रम के गृहधर्म क्षय से पाप न होगा ? इस तप का कोई फल जरूर होगा । जो तुम्हें स्वयं अपने आप प्राप्य होगा ।  क्या ये फल तेरे द्वारा भोगा जायेंगा  ?

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