रूपनारायण सोनकर हिन्दी दलित साहित्य के मूर्धन्य व सशक्त हस्ताक्षर है | इनके लेखन की शुरुआत अन्य दलित लेखकों की भाँति सामान्य विषयों से ही हुई थी | साहित्य जगत में आज वे कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार, आत्मकथा लेखक, संपादक तथा एक सफल अभिनेता के रूप में प्रतिष्ठित है | सोनकरजी बेहद संवेदनशील, जुझारू, सरल, सहज, परिश्रमी व प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के धनी है | रूपनारायण सोनकर दलित साहित्य के एक गौरवमयी व्यक्तित्व है | उनकी बहुमुखी प्रतिभा को हिन्दी गौरव, डॉ.अम्बेडकर राष्ट्रीय साहित्य सम्मान, साहित्य महोपाध्याय (डी.लिट), नाट्य रत्न एवं हिन्दू मुस्लिम एकता जैसे विभिन्न पुरस्कार व सम्मान प्राप्त है | इनके 'जहरीली जड़े' कहानी संग्रह के लोकार्पण में डॉ. नामवरसिंह ने दलित सर्जकों को इंगित करते हुए कहा था कि-“सोनकर सबसे बड़े दलित लेखकों में से एक है | इनके साथ ‘घर का जोगी-जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध’ वाली कहावत चरितार्थ न करे | आपके बीच में सोनकर जैसा बड़ा लेखक मौजूद है | फिर भी आप लोग बाहर तलाश कर रहे हैं |”(1)
सोनकर जी ने उनकी आत्मकथा ‘नागफनी’ से देशव्यापी फलक पर अपनी ख्याति अर्जित की है | जब 'हँस' में उनकी आत्मकथा के अंश छपे थे, तब हँस के संपादक और विख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने अपने संपादकीय लेख में लिखा था कि -“अभी तक जितने भी दलित लेखकों की आत्मकथाएँ आई है, उनमे 'हाय मार डाला' की चीत्कार सुनाई पड़ती है | पहली बार किसी दलित लेखक की आत्मकथा में ऐसी चीत्कार सुनाई नहीं पड़ती है, बल्कि इसमें संघर्ष है, विरोध है, जिसे अंग्रेजी में ''साइलेंट रेवोल्युशन' कहा जाता है |” (2)
समय-परिवेश से आबद्ध रह कर साहित्यकार समाज के बदलते हुए परिवेश का निरूपण अपनी साहित्यिक रचनाओं में करता है | परिवर्तन संसार का नियम है | प्रवर्तमान समय में हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं कि हमारे सामने अनेक ज्वलंत समस्याएँ विराट रूप धारण करके खड़ी है | ऐसे समय में लेखक-साहित्यकार का दायित्व बनता है कि वह समाज को यथार्थता से अवगत करे | सचमुच लगता है कि सोनकर जी यह कार्य बड़ी निष्ठा से कर रहे है |
'डंक' रूपनारायण सोनकरजी का प्रथम उपन्यास है | चर्चित व प्रयोगधर्मी उपन्यास 'डंक' का प्रकाशन अनिरुद्ध बुक्स दिल्ली से सन् 2010 में हुआ था | उपन्यास के विमोचन दौरान पदमभूषण डॉ. बिन्दे वरी पाठक ने कहा था कि-“मैंने अपने जीवन में केवल दो पुस्तकें ही एक बार में लगातार पढ़ी हैं | एक ‘नाच्यों बहुत गोपाला’ व ‘डंक’ |”(3) रूपनारायण सोनकर का मानना है कि उपन्यास में वर्णित घटनाएँ उनके अपने समय की स्थितियों, विसंगतियों और चुनौतियों के साथ पूर्वापेक्षा को अधिक व्यापकता विविधता से रूपायित करती हैं | कथाकार का मानवीय संवेदन, तर्कसम्मत द्रष्टिकोण और विचारात्मक संतुलन हमारे समय की इन वास्तविकताओं को उजागर करता है कि वे सहज ही पाठकों के दिलो-दिमाग को झकझोरती है | उपन्यास में वर्णित कई घटनाक्रम परंपराओं से जुडकर भी उसमे बंधे नहीं है वरन् कथाकार उन्हें नये विकासमान अर्थ संदर्भों में बखूबी रूपायित और व्याख्यायित करता चलता है और ठीक इसी बिन्दु पर यह कथानक लीक से हटकर कुछ नया करने, सोचने और समझने को विवश करता है | 'डंक' उपन्यास में विविधायामी जीवनक्षेत्रों, पृष्ठभूमि और कई ज्वलंत प्रश्नों-सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, पारिवारिक के साथ स्त्री, आदिवासी, अमीर, मजदूर, फिल्म, सेक्स, पर्यावरण आदि का चित्रण है | लेखक ने उपन्यास में न केवल प्रश्न, बल्कि उत्तर की ओर भी इशारा किया गया है |
‘डंक’ उपन्यास में लेखक ने जिस सभ्यता, संस्कृति और समाज व्यवस्था का वर्णन सटीक अंदाज में किया है, वह कल्पना नहीं है, बल्कि स्वयं जाकर उन सभ्यता, संस्कृति व समाज व्यवस्था का अध्ययन किया है | उपन्यास के प्रमुख पात्र विराट और संध्या घुम्मकड प्रवृति के है और भारत के विभिन्न राज्यों में भ्रमण करने के लिए निकलते हैं | गौरतलब है कि उपन्यास का प्रमुख पात्र विराट दलित है और उसकी प्रेमिका संध्या ठाकुर घराने से ताल्लुक रखती है | उनके घुमने से ही उपन्यास की कथा आगे बढती है | उपन्यास का प्रारंभ मध्य प्रदेश के एक आदिवासी गाँव टिनहरीया से होता है | जहाँ आदिवासी संस्कृति तथा हृदय को दहलाने वाले दर्द का परिचय करवाते है-
“मध्यप्रदेश में एक आदिवासी दलित गाँव है,
जहाँ दो औरतों के बीच मात्र एक साडी होती है,
जब बहू घर से बाहर जाती है,
तब सास घर में नंगी रहती है,
ऐ ! मेरे देश के महान कर्णधारो,
इन अभागी माताओं-बहिनों पर
तरस खाओ...|”(4)
आदिवासी युवक को विवाह से पहले अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ता है | इसके लिए उसे रींछ से भी लड़ना पड़ता है और अपनी प्रेमिका को डंडा बनाकर रस्सी पर भी चलना पड़ता है | वह आदिवासी समाज की रक्त पवित्रता तथा सात्विक प्रेम की अभिव्यक्ति है | आदिवासी संस्कृति-सभ्यता से विराट व संध्या प्रभावित होते है | वह कहते है कि-“हम लोग ऐसी दुनिया में थे जो वास्तव में हमारी सभ्य दुनिया से बहुत अलग थी | प्यार मोहब्बत, भाईचारा सभी मौजूद था | अतिथि का सत्कार कैसे किया जाता है, आदिवासी हमें सिखा रहे थे |”(5)
भारत से विदेश जो लोग चले जाते है | (एन.आर.आई.) वह भारतीय सभ्यता-संस्कृति को भूलकर विदेशी सभ्यता-संस्कृति को ग्रहण कर लेते है, नैतिक मूल्यों का विध्वंस कर डालते हैं | अमेरिका में सास अपनी बहू को बड़े लड़के के साथ जबरन सोने के लिए कहती है | इनकी सभ्यता व संस्कृति का परिचय लेखक करवाता है कि-“विदेशी केवल अपनी पुत्री व माँ को छोड़कर संसार की किसी भी औरत या लड़की के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने में अपना गर्व-गौरव और मर्दानगी समझते है |”(6) तथा जसविंदर खुराना को उनका जेठ बाल पकड़ कर और जबरदस्ती होंठ को चुमते हुए कहता है कि-“It is a western and NRI culture.”(7)
भारतीय समाज आज इक्कीसवीं सदी में भी ऊँच-नीच, जात-पाँत, छुआ-छूत, अंधविश्वास से मुक्त नहीं हो पाया है | समाज पर इन समस्याओं की बेडियाँ मजबूत नजर आती हैं | सवर्ण, आदिवासियों व दलितों को ठगे जा रही हैं | अंधविश्वास का शिकार इन जातियों को बनना पड़ता है | प्रस्तुत उपन्यास में उत्तर प्रदेश के बिंदकी क़स्बा की एक घटना का अंकन हमारा ध्यान खींच लेता है | रिन्द नदी पर पुल बनाने से पूर्व पन्द्रह लोगों की बलि चढाने को पुरोहितों ने राजा फतेहचंद से कहा | बलि चढाने में सारे के सारे दलित व पिछड़ी जाति के ही होते हैं | आजाद भारत में आज भी मानव बलि चिन्ता व चिंतन का विषय है | लेखक व संध्या राजस्थान में किले देखने जाते है तब वहाँ से आह (आवाज) निकलती है-“मैं बहुत दिनों से अन्दर गडा हूँ हमको राजाओं ने दफनाया था | हमारा कसूर मात्र यह था कि हम असहाय गरीब दलित थे |”(8) लेखक कुरीतियों के अलावा ऊँच-नीच, सांप्रदायिकता, दहेज-प्रथा, भ्रूण हत्या व सती-प्रथा जैसी समस्याओं का चित्रण बखुबी रूप से करते है | तमिलनाडु में जब सुनामी आया तो ऐसी कुदरती आपदाओं के समय भी लोगों के साथ जातिगत भेदभाव रखा गया था | उपन्यास में लेखक लिखते है कि सामाजिक कुरीतियाँ सुनामी लहरों से ज्यादा भयंकर होती है | उदहारण द्रष्टव्य है-“एक वृद्ध दलित महिला भूख से तड़प-तडपकर मर जाती है | यदि उसे समय से राहत सामग्री मिल गयी होती तो उसकी जान बचायी जा सकती थी | सुनामी लहरे तो उसे नहीं निगल पायी थी लेकिन जातिवाद की भयंकर सुनामी लहरों ने उसे निगल लिया था |”(9)
भारतीय समाज में व्याप्त जाती व्यवस्था एवं रूढियों पर लेखक बार-बार प्रहार करता है कि किस तरह से समाज को डस रही है और उनके डंक से किस तरह लोग छट-पटा रहे है | पानी जैसी प्राकृतिक संपदा को जातिप्रथा का झहर लग जाता है, जहाँ दलितों को वंचित रखते है, लेकिन समाज में रौशनी की किरण दिखाई देती है-“ये लोग हमें कभी भी इस झरने से पानी नहीं भरने देती है | आज से और अभी से इस झरने से पानी भरेंगी |”(10) इनके अलावा समस्याएँ ऐसी है जो भारतीय सरकार की नीतियों के अनुसार समाप्त कर दी गयी पर आज भी समाज को डंक दे रही है | जैसे, अशिक्षा, व्यसन, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, सत-प्रथा आदि |
प्रस्तुत उपन्यास में पर्यावरण पर विशेष ध्यान दिया गया है | आज समग्र विश्व पर्यावरण प्रदूषण के भीषण दौर से गुजर रहा है | प्राचीन समय में ॠषिमुनि, चिन्तक, धर्म प्रस्थापकों ने पर्यावरण का महत्त्व धर्म के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया था | पर्यावरण के नष्ट होने के खतरे की ओर संकेत करते हुए उपन्यासकार सूक्ति रूप वाक्यांश लिखते है कि-“जब एक पेड़ से पत्ता झरता है तो ऐसा लगता है कि मानव जाति का कोई न कोई अंश झड रहा है | जब हम पेडों को काटते है तो ऐसा लगता है हम मानव जाती को काट रहे हैं |”(11)
भारतीय सभ्यता के अनुसार गुरु-शिष्य परंपरा बहुत प्राचीन है | गुरु को माता-पिता से भी ऊँचा दर्जा दिया जाता है, लेकिन वर्तमान समय में शिक्षा क्षेत्र भी पवित्र नहीं रहा है | संध्या, विराट को पी.एच.डी. का किस्सा सुनते समय प्रोफेसर दिनदयाल की बात करती है-वह कहता था-“संध्या अगर जल्दी पीएच.डी. कम्प्लीट करना चाहती हो तो तुमको मेरे अनुसार चलना होगा | जो भी शोध-छात्रा मेरे निर्देश का पालन नहीं करती है | उसकी आज तक पीएच.डी. कम्प्लीट नहीं हुई है, छः छः सालों से लटकी पड़ी है |”(12) वर्तमान समय में पूंजी का राज कायम है जिससे सभी संत्रस्त है, दलित तो सर्वाधिक | लेखक आर्थिक समृद्धि को जातिगत भेदभाव मिटाने के लिए जरुरी समझते है |
निष्कर्ष रूप में कह सकते है कि ‘डंक’ उपन्यास में आज के समाज व समस्याओं का यथार्थ अंकन हुआ है | लेखक केवल समस्याओं का चित्रण करके चुप नहीं रहते, बल्कि उसका उचित समाधान भी प्रस्तुत करते है | इस प्रकार लेखक ने उपन्यास में विविध आयामी पृष्ठभूमियों का सहज अंकन किया है | जो इनके सहज व्यक्तित्व का प्रतिफल है | इसलिए लेखक ने डंक उपन्यास में सरल, संक्षिप्त, बोधगम्य, लोकभाषा, जनभाषा, जनपदीय भाषा, ग्रामीण व आँचलिक भाषा का प्रयोग किया है | अतः हम कह सकते है कि जिंदगी से जुडी भाषा है | इस प्रकार प्रस्तुत उपन्यास कथ्य एवं शिल्प दोनों द्रष्टि समस्या प्रधान एवं प्रयोगात्मक उपन्यास कहा जा सकता है |
संदर्भ सूची :-
(1) लेखक से प्राप्त सामग्री-बायोडेटा, उदधृत टिप्पणी.
(2) 'नागफनी' पत्रिका-नवम्बर-जनवरी-2013/ पृ.5
(3) लेखक से प्राप्त सामग्री-बायोडेटा, उदधृत टिप्पणी.
(4) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.9
(5) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.12
(6) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.22
(7) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.23
(8) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.28
(9) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.29
(10) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.34
(11) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.65
(12) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.113