Sunday, 27 June 2021

जयप्रकाश कर्दम का जीवन परिचय


            डॉ.जयप्रकाश कर्दन हिन्दी दलित साहित्य के सशक्त सर्जक है । हिन्दी दलित साहित्य के प्रथम पीढी के हस्ताक्षर है । वे दलित वर्ग से जुड़े होने के कारण उनका साहित्य अनुभूति का साहित्य न बनकर स्वानुभूति का साहित्य हैं । उनके साहित्य में दलित जीवन से सम्बन्धित यथार्थ चित्रण मिलता है । उनका साहित्य दलित जीवन की संवेदनशीलता और अनुभवों का यथार्थ हैं । डॉ. जयप्रकाश कर्दम का साहित्य दलितों के जीवन-संघर्ष और उनकी बेचैनी का जीवंत दस्तावेज है । इनके साहित्य में दलित जीवन की विडम्बना, दुःख, पीड़ा, कशक तथा छटपटाहट दिखाई देता है । वे अपने साहित्य के माध्यम से समाज में नवनिर्माण चाहते हैं । उनके के साहित्य की मांग विश्वदृष्टि, जातिभेद का त्याग, उदात्त आदर्श भाव तथा आदर्श जीवन का निर्माण करना है । जो सम्पूर्ण मानव जाति को सत्य के प्रशस्त मार्ग पर अग्रसर करना है । 

          डॉ. जयप्रकाश कर्दन का जीवन बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय व्यतित हो रहा है । इनका का जन्म १७ फरवरी १९५९ में उत्तरप्रदेश में गाजियाबाद के निकट हापुड़ रोड पर स्थित इन्दरगढी गाँव में एक दलित परिवार में हुआ था, परंतु शैक्षणिक प्रमाणपत्र और सरकारी दस्तावेजों में इनकी जन्मतिथि ५ जलाई १९५८ दर्ज हैं । डॉ. जयप्रकाश कर्दम के परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, अपनी पत्नी और पुत्र-पुत्री आदि हैं । उनके के पिता का नाम हरिसिंह है । जब लेखक ११ वीं कक्षा में पढ़ते थे तब सन १९७६ में बिमारी से त्रस्त होने के कारण उनकी असमय मृत्यु हो गयी । डॉ. जयप्रकाश कर्दम की माता का नाम अतरकली हैं । अतरकली को सब रिश्तेदार लोग ‘अतरों’ नाम से पुकारते थे । लेखक से प्राप्त जानकारी के अनुसार आज उनकी मां को उन ८१ वर्ष की है और छोटे भाईयों के साथ गाँव में ही रहती है । कर्दम जी सामान्य परिवार में असामान्य व्यक्तित्व के धनि है । बचपन गाँव इन्दरगढ़ी में ही बीता । बचपन के समय उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी, लेकिन उनके दादाजी के मृत्यु के बाद उनके घर की स्थिति बदल गयी । इनके पिताजी टी. बी. के गरीज होने के कारण वे खेत में काम नहीं कर सकते थे | इसलिए एक-एक करके उनके सारे खेत बीक गये । बाद में उन्हें पेट भरने के लिए मुश्किल पड़ गया । बचपन में ही अभाव और संघर्षों का सामना करना पड़ा । इनके पास किताब-कापियाँ तो होती थी, लेकिन स्कूल युनिफॉर्म के अलावा न ढंग के कपड़े होते थे | सन् १९७६ में उनके पिताजी का देहान्त हो गया । घर की सारी जिम्मेदारी बड़ा होने के कारण उनके ऊपर आ गयीं । स्कूल न जाकर दिन में मजदूरी करते थे और रात के समय में घर में पढ़ाई करते थे । उन्होंने इन्टरमीडिएट विज्ञान विषयों के साथ पास किया था, लेकिन कॉलेज की फीस भरने के लिए पैसे न होने के कारण वह बी. एस. सी, में प्रवेश न ले सके । बचपन में जयप्रकाश खूब खेलते-गाते थे । उनकी दादी को ‘आल्हा’और ‘ढोला’सुनने का शौक था । वह पूरी तर्ज के साथ ‘आल्हा’और‘ढोला’गाते थे । 

          डॉ. जयप्रकाश कर्दम उच्च-शिक्षित सर्जक हैं । उन्होंने कठोर परिश्रम करके शिक्षा के क्षेत्र में कई उपाधियाँ प्राप्त की हैं । आम लेखकों से कई अनोखे शिक्षित है, जिन्होंने शून्य में से सर्जन किया । अपनी नौकरी के बारे में स्वयं लिखते है कि मेरे सरकारी नौकरी की शुरूआत सन् १९८० में बी. ए. की पढ़ाई के दौरान हो गयी थी । सबसे पहले बीक्री कर विभाग में अमीन बना, गाजियाबाद में ही । अब गृहमंत्रालय राजपाषा विभाग के अंतर्गत केन्द्रीय हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान नई दिल्ली के निर्देशक के पद से सेवानिवृत्त हुए है और स्वतन्त्र लेखन कर रहे हैं |  उनकी की शादी समाचार पत्र में प्रकाशित वैवाहिक विज्ञापन के माध्यम से १६ अक्टूबर, १९८८ में ताराजी के साथ दिल्ली में हुई थी । तारा जी उच्च-शिक्षित है और आज दिल्ली सरकार के माध्यमिक विद्यालय में अध्यापिका का काम करती है । लेखक का सबसे अधिक दिल पढ़ाई-लिखाई में ही लगता है । इनके अलावा खेलों में रूचि रखते है । क्रिकेट सर्वाधिक प्रिय खेल हैं । इनके अलावा टेनिस, बेडमिंटन, होकी, बोक्सिंग आदि खेल को पसंद करते है । संगीत के क्षेत्र में शास्त्रीय संगीत और नृत्य भी पसंद है । सिनेमा जगत में पुरानी फिल्मों के गाने सुनना काफ़ी पसंद करते है, लेकिन सिनेमा के बारे में पढ़ने में बहुत रूचि रखते है । उनके पसंदिदा साहित्यकारों में सामाजिक मुद्दों और सरोकारों पर लिखने वाले प्रत्येक लेखक का अग्रिम स्थान है । डॉ. अम्बेडकर का लेखन लेखक को सर्वाधिक प्रिय लगता है । इसके अलावा ज्योतिबा फूले का लेखन भी पसंद है । इन लेखको के लेखन से लेखक को अपने जीवन में ऊर्जा मिलती है । भारतीय सर्जनात्मक लेखकों में प्रेमचंद का नाम आदर के साथ लिया जाता है और विदेशी लेखकों में मेंक्सीक्म गोर्की का लेखन सर्वाधिक पसंद है । वे पहले स्कूल के दिनों में छोटी-छोटी कविता में तुक-बंदिया करके अपने दोस्तो को सुनाते थे । बाद में कहानी और उपन्यास लेखन की आर इनका ध्यान अग्रसर हुआ ।  

             डॉ. जयप्रकाश कर्दम ने परिवेश के अनुकुल अपने जीवन को दिशा देना का कार्य किया है । उनके व्यक्तित्व के विविध पहलूओं में संपर्षशील, परिश्रमी, कर्तव्यनिष्ठ, प्रेरणादायी, मानवतावादी, मूल्यों के अनुयायी आदि विविध पहलूओं से सम्पन्न एक आदर्श साहित्यकार और व्यक्ति के रूप में दिखाई देते है । उनके के साहित्य सृजन के प्रेरक डॉ. बाबा साहब के विचार, अनुभूति और संवेदना हैं । डॉ. जयप्रकाश कर्दम साहित्य लेखन की शुरूआत सन् १९७६ में करते हैं । आज हिन्दी दलित साहित्य में जयप्रकाश कर्दम का उल्लेखनीय स्थान है । यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि डॉ. जयप्रकाश कर्दम के बीना दलित साहित्य की चर्चा अधूरी ही कही जाएगी । उनका साहित्य समाज परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । उन्होंने हिंदी में दलित जीवन को केन्द्र में रखकर काव्य, कहानी, उपन्यास, वैचारिकी, बालसाहित्य, अनुवाद, संपादन आदि का सृजन किया है । उनकी प्रथम पुस्तक ‘वर्तमान दलित आंदोलन’ है । यह पुस्तक सन १९८३ में प्रकाशित हुई थी । हिन्दी दलित उपन्यास साहित्य में डॉ. जयप्रकाश कर्दम का नाम आदर एवं सम्मान के साथ लिया जाता है । उन्होंने हिन्दी दलित साहित्य को‘छप्पर’करूणा’और ‘श्मशान का रहस्य’ जैसे अमूल्य उपन्यासों की भेट दी । हिन्दी दलित साहित्य के प्रथम उपन्यास बनने का सम्मान ‘छप्पर’ को प्राप्त है । इस उपन्यास में उत्तरप्रदेश राज्य के मातापुर गांव में स्थित एक दलित चमार जाति के परिवार की संघर्ष कहानी को व्यक्त किया है । इसमें दलित जीवन के शैक्षिक आर्थिक राजनीतिक दलित, नारी एवं सामाजिक जीवन के विविध पहलुओं को उजागर किया है । 

           डॉ.जयप्रकाश कर्दम ने काव्य लेखन का आरंभ छात्र-जीवन से कर दीया था । कवि के ‘गूंगा नहीं था मैं,‘तिनका तिनका आग’ ‘राहुल’ (खंड-काव्य), ‘बस्तियों से बाहर’ काव्य संग्रह प्रकाशित हैं | अपनी कविताओं में समाज में व्याप्त विषमता, जाति-भेद आदि का चित्रण किया है । उपेक्षित दलित वर्ग के दुख-दर्द को काव्य रूप दिया है तथा कविताओं में परिवर्तन की गूंज हैं । बाल साहित्यकार डा. जयप्रकाश कर्दम ने बच्चों को प्रेरित, प्रभावित, ज्ञानप्रदत्त एवम् मनोरंजक रचना का सृजन किया हैं । इन रचनाओं में ‘मानवता के फूल’, डॉ. अम्बेडकर की कहानी’ ‘युद्ध की शरणागत नारियाँ’, ‘बुद्ध और उनके शिष्य,‘महान बौद्ध बालक’ ‘आदिवासी देव कथा-लिंगों’ तथा ‘हमारे वैज्ञानिक सी. वी. रामन अमर है |’ 

            अच्छे संपादक के रूप में ‘दलित साहित्य वार्षिकी’ का ईस्वीसन १९९९ से निरंतर कर रहे हैं एवं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल साहित्य शोध संस्थान वाराणसी की मासिक शोध-पत्रिका नया-मानदंड’ के ‘दलित चेतना पर अंक’, दलित साहित्य पर केन्द्रित अंक’ तथा ‘दलित आत्मकथाओं पर केन्द्रित अंक’ का अतिथि विशेष संपादन किया था । राजभाषा विभाग द्वारा ‘राजभाषा’ पत्रिका के कुछ अंकों के प्रधान संपादक कार्य भी संभाला था । उनकी आलोचना, समीक्षा और वैचारिक पुस्तक में श्रीलाल शुक्ल कृत राग दरबारी का समाजशास्त्रीय अध्ययन, इक्कीसवी सदी में दलित आंदोलन, साहित्य एवं समाज चिंतन, दलित विमर्श साहित्य की आइने में, जर्मनी में दलित साहित्य: अनुभव और स्मृतियाँ तथा दलित साहित्य का इतिहास भूगोल आदि हैं |  डॉ. जयप्रकाश कर्दम ने सृजनात्मक एवं आलोचनात्मक कृतियों के अलावा कई ऐसी किताले लिखी है जो पाठकों के मन को ललूभाती रही हैं । ऐसी किताबों में वर्तमान दलित आंदोलन बौद्ध धर्म के आधार स्तंभ, अम्बेडकरवादी आंदोलन दशा और दिशा, अम्बेडकर और उनका समकालीन, हिन्दुत्व और दलित कुछ प्रश्न कुछ विचार, डॉ. अम्बेडकर, दलित और बौद्ध धर्म प्रमुख है ।

           डॉ. जयप्रकाश कर्दम का साहित्य लेखन तीव्र और अबाधित गति से हो रहा है । इनकी कुछ ही समय में प्रकाशित होनेवाली रचनाओं में एक कहानी संग्रह 'खरोच’ और एक वैचारिक पुस्तक ‘दलित स्त्री के हक में’ हैं । इनके विशेष कार्य में राष्ट्रीय और आंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित संमेलन-संगोष्ठियों में भागीदारी, व्याख्याता एवं शोधपत्रों का वाचन दिया है ।  इनकी साहित्य साधना हिन्दी भाषिक सीनाओं को लांध कर पार हो चुकी हैं । इनकी साहित्यिक रचनाएँ इतनी जानदार है कि देश-विदेश की कई भाषाओं में अनुदित हुई हैं । छप्पर उपन्यास मराठी, गुजराती, तेलुगु, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मनी, इतालवी, जापानी और रूसो सहित अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनुदिन और प्रकाशित हैं । कर्दम जी को साहित्यिक, सास्कृतिक एवं सामाजिक संस्थानों द्वारा निम्नलिखित सम्मान एवं पुरस्कार प्राज है- संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा साहित्यकार फैलोशीप, भारतीय बौद्ध महासभा, उत्तर प्रदेश द्वारा बौद्ध साहित्य लेखन के लिए फैलोशीप, मध्यप्रदेश दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘छप्पर’ उपन्यास के लिए ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’, अस्मितादर्शी साहित्य अकादनी, उज्जैन द्वारा ‘साहित्य सारस्वत सन्मान’, भारतीय दलित साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा ‘डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार’, सत्यशोधक समाज महाराष्ट द्वारा ‘ज्योतिबा फुले सम्मान’ । भारतीय दलित साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश द्वारा ‘संत कबीर’ राष्ट्रीय सन्मान । उत्तर प्रदेश दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘रविदास सम्मान’ । विश्व हिन्दी सचिवालय, मारीशस द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी विषय पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय ‘निबंध प्रतियोगिता’ में ‘द्वितीय पुरस्कार’ । डॉ. जयप्रकाश कर्दम को गौरवान्वित करनेवाली उपलब्धियाँ यह है कि-सन् १९९५ में राष्ट्रीय हिन्दी अकादमी, रूपाम्बरा द्वारा काठमांडु नेपाला में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन में भागीदारी, सन् २००१ में चण्डीगढ़ में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय दलित साहित्यकार संमेलन की अध्यक्षता, सन् २००५ में आयोजित सार्क देशों के साहित्यकार संमेलन (एक आकाश-अनेक संसार) में कथाकार के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व, सन २००६ के जर्मनी में आयोजित विश्व पुस्तक मेला के अवसर पर ईन्टरनेशनल दलित सोलिडेरिटो नेटवर्क के निमंत्रण पर जर्मनी की साहित्यिक यात्रा आदि |

            डॉ. जयप्रकाश कर्दम हिन्दी दलित साहित्य का कभी न अस्त होने वाला सितारा हैं । जिन्होंने साहित्य के जरिए पूरे दलित समाज के नभमंडल को प्रकाशित किया है । इनका जीवन सरल, सहज, सेवाभावी, मिलनसार और कठोर परिश्रमी व्यक्तित्व के धनी हैं । उनके साहित्यकार बनने के पीछे उनकी स्वयं की आत्मप्रेरणा ही जिम्मेदार है । यह इस बात का प्रमाण हैं कि वे एक सच्चे अर्थ में समाज सेवी है । जिन्हें साहित्य का शस्त्र उठाया । साहित्य की गद्य और पद्य दोनों विद्या में उनकी लेखनी चली है । इन साहित्य सृजन के लिए कई सम्मान एवं पुरस्कार मिले है । जो इनकी बहुमुखी प्रतिभा को सम्मानित करता है |

Saturday, 26 June 2021

पंचवटी खंडकाव्य का कथानक

'पंचवटी' राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
'पंचवटी' का कथानक
प्रस्तावना :-                                       
                ‘पंचवटी’ राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त के प्रसिद्ध खंड-काव्यों में से एक है । प्रस्तुत कविता रचना ईस्वीसन् 1925 में की है । इसके अलावा गुप्त जी ने अनेक खंड-काव्य लिखें हैं । जिसमें यशोधरा, द्वापर, कुणाल-गीत, सिद्धराज, विष्णु-प्रिया, जयद्रथ-वध, भारत-भारती आदि महत्वपूर्ण काव्य रचनाओं का सृजन किया हैं । कवि के काव्य लेखन का प्रारंभ 1906 से ही शुरुआत हो जाता हैं लेकिन, उनका पहला कविता संग्रह ‘रंग में भंग’ 1909 में हिन्दी साहित्य जगत को प्राप्त होता है । इसके पहले की कविताएँ प्रमुखतः ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित होती थी ।

               कवि काव्य के मुख्य विषय के रुप में भारतीय सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीय एकता  एवम् अखंडितता रहे हैं । राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी साहित्य का वह सूर्य हैं कि जिसकी किरणें भारतीय लोगों के मन-हृदय को प्रकाशवान करके संरक्षण और संवाहक का आह्वान करती हैं ।


‘पंचवटी’ खंडकाव्य का काव्य बोध :-

               मैथिलीशरण गुप्त ‘पंचवटी’ खंडकाव्य में भारतीय सभ्यता-संस्कृति के महाग्रंथ रामायण से कथा सूत्र ग्रहण कर लिखी गई हैं । कवि राम के अनन्य भक्त होने का प्रमाण काव्यारंभ में श्रीराम स्मरण से करवा जाते है । काव्य में प्रकृति का भी सुन्दर और सजीव वर्णन किया हैं । कवि अपने सृजन के माध्यम से लोगों के जनमानस में सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता और मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास भी करते हैं । पंचवटी कविता उसका सफल उदाहरण कहा जा सकता है ।


पूर्वाभास :-

            मैथिलीशरण गुप्त पंचवटी खंडकाव्य काव्य का प्रारंभ पूर्वाभास से करते है । अपने पूज्य पिता के सहज सत्य वचन पर राम अपना राज-परिवार, अपनी धरती और सर्व धन को त्याग कर वन के लिए निकल पड़े हैं । उनके पीछे सीता भी गहन वन को जाने के लिए तैयार होती हैं । उनके पीछे लक्ष्मण दिखाई पड़ते है तो राम पूछते तुम कहाँ जा रहे हो ? राम के प्रश्न का उत्तर विनीत वंदन से देते हुए कहते हैं कि तुम यानी राम मेरा सर्वस्व है । वे जहाँ रहेंगे वहाँ मैं रहूँगा । यह सुनकर सीता बोलती है कि राम अपने पिताजी की आज्ञापालन करने लिए सब छोड़ चले हैं । तुम स्वयं त्याग कर क्यो मुँह मोड़ कर राम के साथ वनगमन चल निकले ? तब सीता को लक्ष्मण उत्तर के रुप कहते हैं कि मुझे त्यागी कह कर मजबूर मत करों । आर्य चरणों की सेवा करने में मुझे भी अपना सहभागी समझो । नत मस्तक होकर कहते हैं कि भाई का कर्त्तव्य यही हैं ? आर्य आपके प्रति इस जन ने कब-कब क्या कर्तव्य किया ? ये मुझे पता नहीं है, लेकिन तुमने तो राम को प्यार किया है । सीता यह कह कर मुस्कुराती है पर राम की उज्ज्वल आँखें सफल सीप सी आँसू से भर आती हैं ।


गणेश वंदना :-

                भारती संस्कृति में किसी भी कार्य की शुभ शुरुआत से पहले गणेश वंदना की जाती है । ‘पंचवटी’ खंडकाव्य में भी श्री गणेशाय नम:  के साथ शुरू होती है ।


प्रकृति सौंदर्य :-

                सहज, सजीव और सौंदर्यमयी प्रकृति वर्णन के साथ ही काव्य प्रवाहित होता हैं । मनोहारी चन्द्र की चंचल किरणें जल और थल में खेल रही हैं । धरती और आसमान पर स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है । धरती अपना हर्ष मानो हरित तृणों की नोंकों से प्रकट करती है । इतना ही नहीं तरु भी मंद पवन के झोंकों से खुशी से झूम रहे हैं ।

               राम, लक्ष्मण और सीता के विश्राम के लिए पंचवटी की सुन्दर छाया में सुन्दर पर्ण-कुटी बनी है । उसके सामने ही स्वच्छ शिला पर धीर, वीर और निर्भीक मन वाला यह कौन धनुर्धर जाग रहा है ? जब्कि पुरा संसार सो रहा हैं । यह पुरुष देखने में राजा, गृहस्थ या विषयासक्त योगी रूप दृष्टिगत होता है ।

             यह वीर पुरुष किस व्रत को पूर्ण करने के लिए अपनी निन्द्रा इस प्रकार त्याग करके राज या सुख भोग के योग्य समय में आज विराग (अनुराग का अभाव) लिए बैठा है । जिस कुटीर का पहरी बना हुआ है उस कुटीर में क्या धन छिपा है ? जिसकी रक्षा में इसका तन, मन और जीवन है ! इन पंक्तियों में कवि लक्ष्मण की चरित्र रेखाएँ अंकित करते हैं ।

             पंचवटी की पर्णकुटी में मृत्युलोक में लगी मलिनता नष्ट करने के लिए स्वामी के साथ आई हुई तीन लोक की लक्ष्मी ने यह कुटी आज अपनायी है । ये वीर वंश की लाज भी है तब तो प्रहरी स्वयं वीर पुरुष लक्ष्मण है । निर्जन देश में शेष रात्रि भी मायावी राक्षसी जैसी लगती है । यहाँ कवि मायावी रात्रि, सोई सीता और प्रहरी लक्ष्मण का चित्रात्मक वर्णन करते हैं ।


लक्ष्मण का मनन और प्रकृति :-

             यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि कोई पास न हो तब भी मानव मन मौन नहीं रहता है । लक्ष्मण का मन अपनी आपकी सुनता रहता है और अपने आपको कहता रहता है । मनोमंथन के बीच-बीच में अपनी हर्षित दृष्टि इधर उधर डालकर धीर धनुर्धर नयी-नयी बातें मन ही मन करता रहता है । इन पंक्तियों कवि का सूक्ष्म-चिन्तक लक्ष्मण का काव्यांकन चित्रित किया है ।

           निस्तब्ध निशा और स्वच्छ चाँदनी हैं । स्वछन्द सुमन्द गन्ध भी आनंद तथा अप्रसन्न होकर कौन दिशा में चला गया है ? इतने निस्तब्ध रात्रि में भी नियति नटी का कार्य-कलाप चलता हैं पर बहोत एकांत भाव, शांत और चुपचाप । रात्रि के घने अंधकार में प्रकृति स्पर्श एवं नियति अनुभूतियों किया जा सकता हैं ।

              धरती पर चाँदनी रात के सौंदर्य वर्णन में कवि कहते हैं कि सबके सो जाने पर धरती मोती बिखेर देती हैं । जब सबेरे होने पर रवि उनको बटोरता लेता है । यह मोती विरामदयिनी संध्या को देकर जाता हैं । जिससे उसका शून्य श्याम शरीर पर नया रुप सौंदर्य छलकता है !

              प्रकृति सरल तरल ओस कण सी हर्षित होती हैं तो अति आत्मीयया प्रकृति हमारे दुःख में रोती भी है । अनजानी भूल कर ने पर दण्ड देती है पर  दूसरी ओर बूढ़ों को भी बच्चो-सा सहृदय बनकर पालती-पोसती है । प्रकृति मानव जीवन   में सहचरी, पालक और पोषक बनती हैं ।

              लक्ष्मण चिन्तन में डूब कर सोच रहे हैं कि वनगमन के तेरह साल व्यतित हो चुके पर लगता है कल की ही बात हो । मेरे पिता का हृदय वनगमन आते देखकर दुःखी हुआ था । अब वह समय निकट आ गया है । जहाँ हमारे वन की अवधि पूर्ण होगी । वन में रह कर हमने जो धन कमाया है वह और किसी को प्राप्त नहीं हो सकता । यहाँ वन में आने बाद जो धन मिला है इससे बढ़कर कोई धन न होगा ।

              राम को राज्य का भार प्रजा के हितार्थ ही दिया जाने वाला था । व्यस्त और विवश होकर हमारे बारे में भी विचार करेंगे । आप लोकोपकारी विचार कर हमे इससे कोई शोक नहीं होगा । नरलोक अपना हित स्वयं नहीं कर सकता हैं ! यही  चिन्तन में बैठा लक्ष्मण सोच रहा है ।

           मंझली माँ कैकेयी ने सोचा समझा होगा कि मैं राजमाता बन जाऊँगी । राम निर्वासित कर स्वयं की जड़े जमा लूँगी लेकिन, चित्रकूट में करुणा का पात्र स्वयं बन गयी । सब लोग कैकेयी को देख रहे थे पर वे खुद को न देख सकती थी ।

           राज मातृत्व  यही कहता था कि राम और लक्ष्मण को वनवास तथा भरत को राज्य पर भरत राज ग्रहण करने की  बजाय सब-कुछ त्याग करता है । उसके त्याग के लिए कहते है कि उस सौ सौ सम्राटों से बडे भाग्यशाली वह त्यागी है । मूढ़ जगत ने कितना महा मूल्य रक्खा है, किन्तु हमे हमको वन में जाने के लिए चुना हैं ।

           हमारे जीवन का लक्ष्य मात्र राज्य प्राप्त करना ही होता तो हमारे पूर्वज राजसत्ता को छोडकर वनगमन का मार्ग नहीं लेते ?

          परिवर्तन को ही उन्नति मानते हैं तो हम बढ़ते जाते हैं, किन्तु मुझे सीधे-सच्चे विचार और भाव ही अच्छें लगते हैं ।

           जहाँ राम रहते हैं । वहीं पर राज्य करते हैं । राम राज्य में सब पशु-पक्षी स्वच्छंद रुप से वन में विचरण करते हैं । जिन्हें प्रयत्न पूर्वक धर के अंदर पिंजरें में बंद कर रखते हैं । वे पशु-पक्षी भाभी यानी सीता के समीप, सस्नेह और सानन्द हिल-मिलकर रहते हैं ।

           सुसंस्कृत जन, पथभ्रष्ट या गिरे हुए जन पर बहुधा पशुता का आरोप लगाते हैं, लेकिन पशु वर्ग अपने खुद के नियमों को कभी तोड़ते नहीं हैं । कवि मानवता को सुरत्व की जननी कह सकते हैं परंतु पतित मानव को पशु कहना सह नहीं सकते हैं ।

        पंचवटी की गहरी छाया भूमी में दोपहर के समय विचित्र पशु-पक्षी आते हैं और भाभी इन पशु-पक्षीयों को भोजन देती हैं ।  जिस प्रकार सुन्दर संचल बालक अपनी माँ को घेर कर खिझाते हैं । उसी तरह यह पशु-पक्षी खेलकर-खिझाकर भी सीता को रिझाते हैं ।

          पंचवटी में अब भी गोदावरी नदी का किनरा ताल दे रहा है । जहाँ चंचल जल भी कल-कल कर तान दे रहा है । नदी के किनारे पत्ते नाच रहे हैं और सुमन मन से महकते रहते हैं । इस नदी तट पर चन्द्र और नक्षत्र तीव्र गहरी लालसा से लहराते रहते हैं ।

          समसामयिक समय में स्तुतिगान करते हुए विहंग ध्यान लग्न से दिखते हैं । जैसे कोई कवि कुल के समान ही नये गान की रचना में मग्न हैं । मयूर बीच बीच में बोलकर यह संदेश देता है कि देखते हैं कल कौन झूठी तारीफ लेता हैं ।

           यहाँ प्रकृति मध्य हर समय आँखों के आगे हरियाली ही छायी रहती हैं । झाडियों में से जहाँ-तहाँ झरनों झड़ी बहती रहती हैं । वन की एक-एक ओस बूंदें सरस और पवित्र लगती हैं । यह हिमकणीकायें मानो सौ सौ नागरिक जन का विमल और रम्य प्रेम या अनुराग हैं ।

           जिन मुनियों को तत्व-ज्ञान प्राप्त हुआ हैं उनका सत्संग भी यहाँ मिलता हैं । नित्य समय उनके नये नये आख्यान भी सुनने को मिलते हैं । जिनका जीवन जितना कष्ट और कण्टकों में रहता है, वही जीवन सुमन अधिक महक उठता हैं । उन्हें अत्र-तत्र सर्वत्र गौरव गंध भी मिलती हैं ।

            आश्रम में रहने वाले तोता-मैना भी मनुष्य की तरह शुभ सिद्धान्त वाक्य पढ़ते हैं । मुनिकन्याएँ पुण्य पराक्रम का यशगान करती रहती हैं । राम के भुवन में आश्चर्य के साथ सब के सब सुखपूर्वक रहते हैं । इतना ही नहीं, सिंह और मृग दो विपरीत प्रकृति के प्राणी भी एक घाट पर पानी पीते हैं ।

             पंचवटी वन भुवन में राम प्राचीन अनार्य जंगली जाति या पहाड़ी जंगली जाति शवरों सम्मान करते हैं । शवरों के भोले-भाले चेहरे पर सरल वचन बहते हैं । जिसे समाज निम्न और छोटा समझते हैं बल्कि, आम मनुष्य की तरह सामान्य मानव ही हैं । इन मनुष्यों में भी सामान्य जन की तरह मन एवं भाव उपलब्ध हैं, परंतु उसके पास  सुसंस्कृत जन जैसी वाणी नहीं हैं ।

           वनवास के दौरान कभी वन में व्यंजन के व्यवहार का अभाव खलता नहीं हैं । यहाँ वन में पीने के लिए निर्मल जल, खाने को मधुर कंदमूल और फल हैं । आयोजनमय भोजन व्यवस्था हैं । मन को केवल अनुग्रह, प्रेम या ईश्वर कृपा चाहिए फिर वह कुटीर हो या राज भवन हो कोई फरक नहीं पड़ता । यहाँ भाभी द्वारा दी गई अतुलनीय खुशी है या मझली माँ का दिया हुआ विपुल दुःख है ! कुछ पता नहीं चलता हैं ।

          सीता अपने लगाये पौधों को स्वयं पानी देती हैं और खुरपी लेकर खेत की देख-भाल करती हैं । उसे तब बहुत अधिकाधिक गौरव, संतोष और सुख मिलता है । लक्ष्मण येसे स्वावलंबनणूर्ण जीवन की एक झलक पर कुबेर के धन कोष को भी न्यौछावर कर देता है ।

            लक्ष्मण सोचता है कि यहाँ  निर्जन और एकांत के बावजूद भी  सांसारिकता के साथ इच्छा रहीत जीवन का अनोखा आनंद मिलता है । अत्रि ॠषि की पत्नी अनसूया जैसी कोई पुण्यशाली गृहिता कहाँ होगी ? कयोंकि अनसूया के तेज का अनुभूति देव जब आकाश मार्ग से गुज़रते थे तब भी होता था, इसलिए उसे सति और पुण्य समझा जाता है । राम, लक्ष्मण और सीता का यह भुवन सबसे अनोखा और भिन्न हैं, जिसमें कृत्रिमता नाम मात्र की भी नहीं हैं । पूर्ण रूप से प्रकृति की गोद में बना है तथा प्रकृति  इसकी अध्यक्षता करती हैं ।

           वन में रहकर भी हमको स्वजनों की चिन्ता होती हैं । स्वजन भी हमारे लिए दुःखी और पश्चाताप करके चिन्ता करते होंगे । जंगल में बने निवास स्थान में हमे दोनों ओर से सिकुडन और लज्जा मेहसूस होती हैं, लेकिन प्रत्यक्ष भाव से हम वन में सुख और कुशल मंगल के साथ रहते हैं ।

            लक्ष्मण अपनी इच्छा प्रकट करके कहते हैं कि मेरे स्वजनों को एक बार वन में ले आने की चाह होती हैं और यहाँ की प्रकृति की जो अनुपम महिमा या संपदा को घुमाकर दिखाना चाहता हूँ । स्वजन आर्य यानी राम को घर की भाँति प्रसन्न देखकर विस्मित हो जायेंगे । राम भले ही वन-विहार में  कार्य रत हैं, फिरभी वे प्रकृति की गोद में श्रीसम्पन्न और बहुत सुखी है । 

          वन विहार के दौरान अगर हमें कोई बाधाओं का सामना हुआ तो हम उन बाधाओं के सामने लडेंगे । यह तय हैं कि जिसके जीवन में कोई बाधा बोध का सामना नहीं होता हैं उसे कभी अपने जीवन में सबसे बडी शक्ति यानी सहन शक्ति प्राप्त नहीं होती हैं । यह येसी जीवन शक्ति हैं जो जिन्दगी में कम या कुछ समय के लिए आनेवाली बाधाओं को चले जाने के बाद भी शक्ति हमारे पास रहती हैं ।

            हाय ! हमारी माताएँ यह नहीं जानती कि हमे वन में क्या भोग-विलास और सुख चैन मिला हैं । इतना ही नहीं वे यह भी नहीं जानती कि हमे वन में कितनी कोमल एंव बहुत बडी प्रकृति की गोद मिली हैं । जहाँ किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं हो सकती हैं । अगर इसी खेल को विद्वज्जन जीवन संग्राम समझते हैं ? अगर यही सच हैं तो इसमें यश और कीर्ति प्राप्त करना बहुत आसान और सरल हैं ।

शूर्पणखा का सौंदर्य वर्णन :-

               लक्ष्मण शीला पर बैठा उर्मिला की स्मृतियों में याद करके कहता है कि बेचारी उर्मिला हमारे व्यर्थ ही रोती रहती होगी । इनको क्या पता हैं कि हम सब वन में बहुत सुख-भोग से अपना जीवन जी रहे हैं ! सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण कुछ समय के लिए चित्र की तरह आँखों की पलकें बंद करके खोलते हैं । जैसे ही लक्ष्मण की आँखें खुलते ही देखते हैं कि यह क्या देख रहा हूँ ? निशा का अनुपम रुप और अलौकिक वेश हैं !

            धन प्रदर्शन करने वाली जिस पर हमारी दृष्टि स्थिर नहीं रहती है येसी ज्योती की ज्वाला । लक्ष्मण की जब आँखें खुलती हैं तो निसंकोच भाव से एक हास्यवदिनी बाला सामने खड़ी है । बाला का शरीर रत्नाभरण अलंकरण से अलंकृत अंग सुन्दर लगते थे । जैसे कोई खिले और विकसित फूल मंजरी पर सौ सौ जुगनू जगमग जगते थे । येसी दिखती हैं ।

            इनकी बड़ी-बड़ी आँखों से अत्यंत अतृप्त वासना झलक रही थी । छवि से मानो कमल दल का मधुर फूल रस छलकता हैं, लेकिन इनकी दृष्टि जिसे खोजती थी वे उसे पाप्त चुकी हो येसा लगता है । इनको देखने से साफ पता चलता हैं कि रास्ता भूली और भटकती हिरनी अपने स्थान आ चुकी थी ।

            सौंदर्यमयी युवती के बालों से बने जाल में कमर के नीचे तक अपना बायाँ हाथ फँसाव बना रहा था । इसको देखकर लगता है कि चंचल और उत्सुक कमल के साथ भँवरें खेल रहे हो । इसके दाये हाथ में सुगंधित चित्र विचित्र फूलों की माला हैं । लक्ष्मण कल्पलता सी सुन्दर स्त्री पर अपना धनुष टाँग लेता है और उसे कामदेव ने झूला डाला हो येसा लगता है ।

            इन सौंदर्य संपन्न युवती को देखकर लक्ष्मण का मन संदेह का झूला झुल रहा था । अपनी भावनाओं के भ्रमणाओं में भीतर ही भीतर भटकने रहा था । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि विचार चक्र में पड़े लक्ष्मण को किनारा नहीं मील रहा था । यह आज मेरे सम्मुख  जाग्रत कैसा स्वप्न कक्ष बन रहा है ! मुझे अचरज होता हैं ।


शूर्पणखा और लक्ष्मण के संवाद :-

            लक्ष्मण को विशेष विस्मित देखकर मधुर हँसी हँसने वाली (सुन्दर युवती की देहाकृति तेजोमय और प्रिय थी) बोलती हैं कि तुम भाग्यवान होकर भी अबला यानी कमजोर स्त्री को देखकर मुग्ध हो गये । मनुष्य लोक की स्वाभाविकता पर अस्थिर होकर आश्चर्य में पड़ गया हैं ।

              शूर्पणखा लक्ष्मण से कहती हैं । तुमने कुछ बात भी नहीं पूछी प्रथम मुझे ही बोलना पडा हैं । इससे पुरुषों की निर्ममता प्रतिबिम्बित होती हैं । अब लक्ष्मण ठोडे मुस्कुरा कर सँभल गये थे । 

        शूर्पणखा जब पुरूष जाति को निर्मम ठहराती तो यह सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराकर नीज स्वभावानुसार गंभीर होकर उत्तर देते हैं कि सुन्दरी तमको ढलती रात में यहाँ देखकर मैं सचमुच विस्मित हुआ हूँ ! इतनी ढलती रात बीते तुम अकेली अबला तुम कौन हो और कहाँ जा रही है ? तुम अपने आप को अबला संबोधित कर स्वयं चतुर करार दिया और पुरूष को निर्ममता की निगाह से देखती है ! 

          लक्ष्मण परनारी से पहले संवाद करता तो पुरुष जाति की सुधर्मपरता चली जाती । मैं  तुम्हें क्या चण्डी कहूँ  ? तुमने मेरे बारे में सही सोचा है कि तुम्हारे प्रति मेरी ममता बहुत कच्ची हैं  । 

              मुझे मेरे जीवन परंपरा में माता, पिता, पत्नी, धन, धरा की कुछ भी ममता बंधी नहीं । मुंजुमुखी ममता महिलाओं में होती हैं  । मुझे उन बातों से कोई अभाव नहीं मेहसूस होता हैं । मैं स्वयं को परम सुखी अनुभव करता हूँ । 

           तुम मुझे शूरवीर कहकर कायर बताती हो, इससे तो तुम सूक्ष्मदर्शिता लगती है । तुम्हारें भाषण सुनकर भय होता है  तथा वन में  देखकर संशय भी होता है !

         तुम्हें मानवी, दानवी या वनदेवी क्या समझूँ ? तुम्हारे पास मानव का संकोच, दानवी-सा लावण्य लोच और वनदेवी का भोलापन कहाँ हैं ? तुम ही बतोओ संचित रहस्यों वाली तुम कौन हो ?

             शूर्पणखा लक्ष्मण का प्रश्न रूप उत्तर सुनकर बोलती है कि पति मानकर कहती हैं, कान्त तुम निष्ठुर हो । शूर्पणखा कहती तम्हें यह भी मालूम नहीं हैं कि मेरा मन कैसे शांत होगा और क्या चाहती हूँ ? यही मालूम होता है, मैं आज तुमसे छली जाऊँगी, लेकिन आ गयी हूँ तो क्या सहज चली जाऊंगी ?

           लक्ष्मण तुम मुझे अपना अतिथि समझो । तब क्या आतिथ्य मिलेगा ? पत्थर पिघल जायेंगा, लेकिन तुम्हारा ह्दय हिलेगा नहीं । रमणि स्वरुपा शूर्पणखा अधर दंशन करने के बाद भी लक्ष्मण मुस्कुराकर बोले तुम शुभ मूर्तिमति माया हो ।

          तुम अपुपम ऐश्वर्य संपन्न हो और मैं एक सामान्य अकिंचन जन, वन-वासी निर्धन तथा लज्जित हूँ  । लक्ष्मण का उत्तर सुनकर रमणि ने कहा कि मैंने तुम्हारें भाव जान लिये हैं, परंतु विधिने तुम्हें येसा धन दिया है जो देवों को भी दुर्लभ है !

           तुम स्वयं त्यागी और विराग भाव लेकर जी रहे हो । अगर ये रत्नाभरण तुम पर न्यौछावर करके मैं बडभागी हो जाऊँ ! तुम्हारी तरह योग धारण कर सकती हूँ एवं विपुल बाधाओं को चुटकी मीटा सकती हूँ  ।

           मुझे बताओं कि तुम्हारी कौन सी इच्छा के कारण तुमने व्रत लिया है ? मेरे पास येसा सामर्थ्य है कि तुम जो चाहो वे सब कुछ प्राप्त कर सकते हो । तुम्हें धन चाहिए तो सोने का भू-भाग मिलेंगे । तुम राजा बनकर यह विषम विराग का त्याग कर दो । 

       अगर किसी दुर्जन वैरी प्रतिशोध लेना है तो मुझे आज्ञा दो । मैं उसे अपने कालानल क्रोध से जला दूँगी । पत्नी के आहत से करते हो तो तुम सचमुच भोले हो । तुम क्यों अपने मन को इस तरह परेशान करते हो ? 

         येसे यौवन-धन पर सब कोई अपना प्राण न्यौछावर कर देंगें । तुम इसे व्यर्थ मत गवाओं, अपितु संसार भार सा अनुभव होता हैं तो उसे मेरे साथ दानी एक अवसर दो ।

       शूर्पणखा का प्रस्ताव सुनकर लक्ष्मण गंभीर होकर कहते हैं, धन्यवाद । तुम्हें देख के येसा लगता है कि निश्चय ही तुम नृप कन्या है, क्या सामान्य रमणी ऐसे प्रस्ताव कर सकती है ? मैं तुम्हें सच कहता हूँ कि मुझे इस वन में कोई अभाव नहीं ।

        लक्ष्मण तो फिर तुम इस वय में निष्काम तपस्या करते हो ? तुम्हें आश्रम के गृहधर्म क्षय से पाप न होगा ? इस तप का कोई फल जरूर होगा । जो तुम्हें स्वयं अपने आप प्राप्य होगा ।  क्या ये फल तेरे द्वारा भोगा जायेंगा  ?

*...


मधुशाला में व्यक्त मानवीय संदेश

हरिवंशराय बच्चन की कविता मधुशाला
मधुशाला
(१) प्रस्तावना :-

                हरिवंशराय बच्चन हिन्दी साहित्य के लोकप्रिय एवं हालावाद के प्रवर्तक कवि है | इनकी कविता अन्तः प्रेरित और सहज सिद्ध कविता है | कवि ने काव्य हाला पिलाकर सबको काव्य रस से तरबतर कर दिया है | बच्चन की कविता कोटि-कोटि जनगण का कण्ठहार बनी हुई है | कवि की काव्य साधना उनकी जीवन साधना के समान्तर चली है | उनका सौंदर्यबोध शाश्वत जीवन पर और जीवन दर्शन भारतीय अध्यात्म पर आश्रित है | आधुनिक हिन्दी कवियों में सुमित्रानंदन पंत को बच्चन ने सबसे अधिक पढ़ा है तो दूसरी तरफ अंग्रेजी के पुराने कवियों में शेक्सपियर और आधुनिक कवियों में डबल्यू.बी.ईट्स उनके प्रिय कवि रहे है | बच्चन जी रसवादी कवि है | उनकी दृष्टि से रसविहीन कविता बेकार है | बच्चन न केवल भाव के कवि है, बल्कि एक उत्तम शैलीकार भी है | उनकी शैली उनके व्यक्तित्व का शब्द-रूप है ; जिससे हम उन्हें सहज ही पहचान सकते है | वे जनजीवन के कलाकार है | उनकी शैली सहज, सरल, सुलभ, सुबोध और प्रभावपूर्ण है | इस प्रकार युग प्रवर्तक कवि हरिवंशराय बच्चन ने  हिन्दी साहित्य और जन ह्रदय में अपना अनोखा स्थान बनाया है |


                      'मधुशाला' कवि हरिवंशराय बच्चन की ऐसी काव्यकृति है जो बीसवीं सदी की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रख्यात कृतियों में से एक है | मधुशाला काव्य संग्रह ने बच्चन जी की प्रसिद्धि और लोकप्रियता को चरम शिखर पर पहुँचाया | कवि ने ४ जून १९३३ से मधुशाला लिखना प्रारंभ कर अप्रेल १९३४ में १३५ रुबाइयाँ लिखकर पूर्ण किया और इसका प्रकाशन सन् १९३७ में हुआ | मधुशाला कवि के व्यक्तिगत जीवन की उथल-पुथल के साथ तत्कालिन परिवेशगत प्रभाव को व्यक्त करती है | कवि बच्चन एक युग द्रष्टा शब्द शिल्पी कवि के रूप में उभर कर हमारे सामने आये है | सिद्ध हस्त लेखक ने हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं को अपनी लेखनी से एक नया आयाम दिया है | कवि ने मधुशाला, मधुकलश, निशा-निमंत्रण, एकांत संगीत के गीत सुनाकर अभूतपूर्व लोकप्रियता प्राप्त की और नरेश शर्मा - "बच्चन को कवि सम्मेलनों का बेताज बादशाह मानते है |"१ कवि सम्मलेन किसी भी नए कवि की प्रसिद्धि के लिए अच्छा माध्यम होता है | बच्चन भी इससे अछूते नहीं रहे | सन् १९३३ में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में कवि संमेलन के दौरान अनजान कवि बच्चन ने अपने सुललित कंठ से 'मधुशाला' को सस्वर सुनाना शुरू किया तो सभी श्रोता झूम उठे थे | वाह-वाह और तालियों की गडगडाहट से धरती आसमान गुंज उठा था | नरेश शर्मा के अनुसार - "बच्चन ने पहली बार सहृदय श्रोताओं के जमघट में घुसकर घडल्ले से मधुस्फोट किया |"२ बच्चन जी के संदर्भ में प्रेमचंद ने भी लिखा है कि -"मद्रास के लोग अगर किसी हिन्दी कवि का नाम जानते है तो वह 'बच्चन' का नाम है |"३ हरिवंशराय को अपनी बहुमुखी प्रतिभा के लिए अनेक अलंकरण एवं उपाधियों से सम्मानित भी किया गया है | संक्षेप में कहे तो बच्चन हिन्दी साहित्य जगत के एक दैदिव्यमान नक्षत्र है ।


(२) 'मधुशाला' कविता का अनुभूति सौंदर्य :- 

           सन् १९३७ में प्रकाशित और बीसवीं सदी की सर्वाधिक लोकप्रिय व प्रख्यात कृति मधुशाला के कवि ने प्रकृति के स्थूल रूप के प्रति विद्रोह न कर उसे सूक्ष्म का आकार देकर आभ्यातरिक प्रकृति को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है | उनका प्रकृति चित्रण मानवसापेक्ष कट्टरता एवं कठोरता को चुनौती देता है | सामाजिक रुढिवादिता को कवि ने मधुशाला में चुनौती दी है | प्रेमानुभूति मधुशाला के भावपक्ष का महत्वपूर्ण आयाम रहा है, जिसमे कवि की राष्ट्र से, मानव से, सौंदर्य से, प्रकृति से, ईश्वर से प्रेम भावना व्यक्त हुई है | दुःख को जीवन की साधना मानने वाले बच्चन दुःख रूपी हलाहल को हँसते हुए पीकर कर्मण्यवादी बनकर भविष्य के कष्टों को झेलने के लिए तैयार रहने का पाठ सिखाते है | इसलिए तत्कालिन स्थितियों में नरक-सा जीवन जीने वाले निराश मानव के मन में कवि ने मधुशाला के माध्यम से जिजीविषा जगाई है | सौंदर्य भी मधुशाला काव्य कृति का एक महत्वपूर्ण भाव रहा है, जिसमे नारी सौंदर्य, प्रकृति सौंदर्य, मानव सौंदर्य आदि को सुकोमल मन के कवि ने बड़े ही शालीन भाव से व्यक्त किया है |


          कवि ने मधुशाला काव्यकृति में प्रकृति सौंदर्य, मानव सौंदर्य, नारी सौंदर्य व आध्यात्मि सौंदर्य की अभिव्यक्ति की है | ईश्वर ने संसार में प्रकृति से लेकर मानव तक सभी में सुन्दरता भर दी है | बच्चन ने मधुशाला काव्यकृति में सौंदर्य की अच्छी परख की है | कवि ने प्राकृतिक चित्रणों में प्रायः अपनी भावनाओं का सौंदर्य मिलाकर उन्हें एन्द्रिक चित्रण के योग्य बनाया है तथा नारी सौंदर्य के सुन्दर चित्र भी उपस्थित होते है | मानव का बाहय रूप तो सौंदर्य की दृष्टि से खुद होता है, पर उसमे आंतरिक सौंदर्य भी छिपा रहता है | कहीं कहीं पर आध्यात्मिक सौंदर्य की झलक भी मिलती है | इस प्रकार कवि ने व्यापक सौंदर्यानुभूति का चित्रण किया है | प्रस्तुत पंक्तियाँ मानव के आंतरिक सौंदर्य को प्रस्तुत करती है -


"बुरा सदा कहलाया जग में

बाँका, मद-चंचल प्याला

छैल-छबीला रसिया साकी

अलबेला पीनेवाला |"४


  उक्त वर्णन में प्याला, बाँका, चंचल है तो रसिया साकी छैल-छबीला है और पीनेवाला अलबेला है | मधुशाला के द्वारा कवि हरिवंशराय बच्चन ने सामाजिक रुढिवादिता एवं नैतिकता के विरुद्ध अपनी आवाज को जिंदा किया और साथ ही उस समय के जन-जीवन में व्याप्त निराशा, असंतोष, अकर्मण्यता, अंध-विश्वासों, रूढियों आदि का खुलकर चुनौती देकर मधुशाला के विद्रोही स्वर के माध्यम से सोये समाज को सजग कर उनमे चेतना, प्रेरणा, रोष और उद्घोष उत्पन्न किया है |


"धर्म-ग्रंथ सब जला चुकी है

जिसके अंतर की ज्वाला

मंदिर, मस्जिद, गिरजे सबको

तोड़ चूका जो मतवाला

पंडित, मोमिन, पादरियों के 

फंदों को जो काट चुका 

कर सकती है आज उसीका 

स्वागत मेरी मधुशाला |"५ 


      प्रस्तुत पंक्तियों में कवि की मधुशाला केवल उन्हीं का स्वागत करती है जो रूढियों, परंपराओं, अंध मान्यताओं, सड़े-गले मूल्यों, लचर प्रतिमानों को लात मार चुका हो | जो मंदिर, मस्जिद, गिरजे के नाम का सहारा लेकर भेदभाव न करते हो और पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों की बेडियाँ काट चुके हो | यहाँ कवि का असंतोष और विद्रोहात्मक स्वर प्रमुख होता है |


         प्रस्तुत काव्यकृति में बच्चन जी ने कुछ स्थानों पर देश के प्रति अपनी प्रेमभावना की अभिव्यक्ति की है | कवि मधुशाला के माध्यम से व्यक्ति व देशवासियों में बलिदान, त्याग और अपनत्व-अर्पण करने की प्रेरणा को जाग्रत करते है | देशवासियों के ह्रदय में देश के प्रति अटूट देशभक्ति की भावना एवं राष्ट्र प्रेम को जाग्रत करने के लिए संपूर्ण भारत वर्ष को एक पवित्र 'मधुशाला' के रूप में देखा और अंकित किया है -


''हिम श्रेणी अंगूर लता-सी

फैली हिम जल है हाला

चंचल नदियाँ साकी बनकर

भरकर लहरों का प्याला

कोमल कूल-करों में अपने

छलकाती निशिदिन चलती

पीकर खेत खड़े लहराते

भारत पावन मधुशाला |६


        मधुशाला काव्य कृति में बच्चन जी ने यह महसुस किया था कि लोग भूतकाल के दारुण दुखों तथा जीवन में उत्पन्न श्रम, संकट, व्याधियाँ, नियति के कठोराघात के कारन इन्सान गौरव एवं गर्व से जी नहीं सकता | जीवन के प्रति जनसाधारण की आस्था खत्म हो जाती है | ऐसे समय में कवि जीवन के प्रति आस्था, जिजीविषा जगाने का प्रयत्न करते है | इन्सान को जीवन, नरक की दहकती हुई ज्वाला सा लगता है पर कवि जानता है कि मधुशाला की मधुरता मनुष्य को नरक की दहकती ज्वालाओं से भी बचा लेगी |


"हमें नरक की ज्वाला में भी

दिख पड़ेगी मधुशाला |"७


          मधुशाला प्रेम सौंदर्य की एक अत्यंत लोकप्रिय रचना है | कवि का सौंदर्य प्रेम उत्तेजना देनेवाला अनिवार्य तत्व है | देशप्रेम भारतवासियों के ह्रदय में अटूट देशभक्ति की भावना जाग्रत करनेवाला है | कहीं-कहीं कवि ने प्रेम प्रणय की अनुभूति को भी अभिव्यक्त्ति प्रदान की है | मानव के प्रति भी अपनी प्रेम भावना की अभिव्यक्ति की है | कवि की मनोकामना प्रकृति के अस्तित्व की जीवन सापेक्ष स्थिति ही स्वीकार करती है | कवि स्वयं कहते है कि -"जब कभी में प्रकृति के समीप गया हूँ तो अपनी भावनाओं से इतना अतिरंजित हुआ की उसमे भी मुझे अपनी ही छाया दिखाई दी है |"८ अंत में कवि जानता है कि संसार के कण-कण में ईश्वर बसा हुआ है | अतः वह प्रियतम(ईश्वर) को हाला और स्वयं को प्याला बनाकर उस प्रियतम रूपी परमात्मा के साथ एकाकार होने की भावना प्रस्तुत करता है | इस प्रकार कवि ने सौंदर्य प्रेम, देशप्रेम, प्रणय प्रेम तथा ईश्वरिय प्रेम की अभिव्यक्त की है |


          हरिवंशराय बच्चन ने मधुशाला में अपनी भावनाओं को प्रकृति के साथ जोड़ा है | सूर्य, समुद्र, बादल, जल, भूमि, पौंधा, फूल, भ्रमरदल, डालियाँ, पंछी, रौशनी, हिम, नदियाँ आदि का अत्यंत सुन्दर और यथार्थ वर्णन किया है –


"सूर्य बने मधु का विक्रेता

    सिन्धु बने घट, जल हाला |" ९


          मनुष्य के लिए जीवन एक अनबुझ पहेली-सा बना हुआ है | इस पहेली को कोई समझ नहीं सकता | कवि को अपने जीवन में दुःख-पीड़ा आदि का गहरा परिचय था | इन सबसे मुक्ति पाने की कोशिष में दार्शनिकता का उदय होता दिखाई पड़ता है | कवि मधुशाला को ही ईश्वर का सर्वोच्च स्थान मानते है | विश्व के प्रत्येक पथिक ईश्वर तक पहुँचने या ईश्वर को पाने के लिए अलग-अलग रास्ते अपनाता है, किन्तु ईश्वर को पाने का केवल एक ही रास्ता कवि को सूझता है और वह है मधुशाला | कवि मधुशाला को ही एक धर्म और दर्शन का गुढ़ गंभीर ग्रंथ मानते है | संसार में मृत्यु की आशंका मनुष्य के वर्तमान सुख में बाधा डाल देती है किन्तु मधुशाला मौत के आतंक से बचाकर मनुष्य को मस्ती में जीना सिखाती है |


           हरिवंशराय जी अपने विशाल और समृद्ध साहित्य के आधार पर हिन्दी साहित्य में उच्च स्थान के अधिकारी है | मधुशाला लिखते हुए कवि ने वाणी के अभूतपूर्व उल्लास का अनुभव किया था | मधुशाला की मूल शक्ति समाज, धर्म और राजनीति की रूढ़-सीमा को तोड़ने वाली अभिव्यंजना में समाई है | मधुशाला का मधु मध नहीं, कारण है | मधुशाला के भाव में बच्चन जी काव्य का प्रयोजन, आनंद और लोकहित की भावना मानते है | इस प्रकार मधुशाला काव्यकृति के माध्यम से बच्चन जी ने अपने सौन्दर्योपासक ह्रदय के मादक आनंद को वाणी की रसमुग्ध प्याली में उडेलने का प्रयत्न किया है | उनकी मधुशाला मदिरा की नहीं अपनी मस्ती बनी है, जिस मस्ती में उन्होंने जगत को भी मस्त बनाने की ठानी है, किन्तु मधुशाला एक प्रतीकात्मक रचना है | इसलिए उसे अभिधा से नहीं व्यंजना से समझना चाहिए, क्योंकि वह नव भारत के नव यौवन या चढती जवानी के उन्माद को प्रतिबिम्बित करती है |


(३) निष्कर्ष :-

              अतः अनुभूतियों की दृष्टि से मधुशाला में वैविध्य विद्यमान है | मधुशाला का मूल भाव समाज, धर्म और राजनीति की रूढियों को तोड़नेवाला है | इसमें व्यापकता है, समन्वयात्मकता है और मानवता का उच्चादर्श है तथा अनुभूति की सम्पन्नता में व्यक्तिगत आनंद और लोकहित की भावना से परिपूर्ण रचना है | साथ ही साथ भारतीय संस्कृति के उज्जवल रूप को प्रस्तुत करती है |


संदर्भ सूची :-

१.बच्चन : व्यक्ति और कवि - सं. बाँके बिहारी भटनागर, पृ.सं.-१५ 

२.बच्चन निकट से - सं. सजित कुमार, औंकारनाथ श्रीवास्तव, पृ. सं. ३६

३.क्या भूलूँ क्या याद करूँ - बच्चन, पृ.सं.३३९ 

४.मधुशाला - बच्चन, पच्चासवाँ संस्करण, रुबाई सं.२३ 

५.मधुशाला - बच्चन, पच्चासवाँ संस्करण, रुबाई सं.१७  

६.मधुशाला - बच्चन, पच्चासवाँ संस्करण, रुबाई सं.३३ 

७.मधुशाला - बच्चन, पच्चासवाँ संस्करण, रुबाई सं.७५ 

८.नए पुराने झरोखे - बच्चन, पृ.सं.२५६ 

९.मधुशाला - बच्चन, पच्चासवाँ संस्करण, रुबाई सं.३०

डंक में चित्रित जातिवाद की सुनामी लहरें



       रूपनारायण सोनकर हिन्दी दलित साहित्य के मूर्धन्य व सशक्त हस्ताक्षर है | इनके लेखन की शुरुआत अन्य दलित लेखकों की भाँति सामान्य विषयों से ही हुई थी | साहित्य जगत में आज वे कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार, आत्मकथा लेखक, संपादक तथा एक सफल अभिनेता के रूप में प्रतिष्ठित है | सोनकरजी बेहद संवेदनशील, जुझारू, सरल, सहज, परिश्रमी व प्रतिभा संपन्न व्यक्तित्व के धनी है | रूपनारायण सोनकर दलित साहित्य के एक गौरवमयी व्यक्तित्व है | उनकी बहुमुखी प्रतिभा को हिन्दी गौरव, डॉ.अम्बेडकर राष्ट्रीय साहित्य सम्मान, साहित्य महोपाध्याय (डी.लिट), नाट्य रत्न एवं हिन्दू मुस्लिम एकता जैसे विभिन्न पुरस्कार व सम्मान प्राप्त है | इनके 'जहरीली जड़े' कहानी संग्रह के लोकार्पण में डॉ. नामवरसिंह ने दलित सर्जकों को इंगित करते हुए कहा था कि-“सोनकर सबसे बड़े दलित लेखकों में से एक है | इनके साथ ‘घर का जोगी-जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध’ वाली कहावत चरितार्थ न करे | आपके बीच में सोनकर जैसा बड़ा लेखक मौजूद है | फिर भी आप लोग बाहर तलाश कर रहे हैं |”(1)

                     सोनकर जी ने उनकी आत्मकथा ‘नागफनी’ से देशव्यापी फलक पर अपनी ख्याति अर्जित की है | जब 'हँस' में उनकी आत्मकथा के अंश छपे थे, तब हँस के संपादक और विख्यात साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने अपने संपादकीय लेख में लिखा था कि -“अभी तक जितने भी दलित लेखकों की आत्मकथाएँ आई है, उनमे 'हाय मार डाला' की चीत्कार सुनाई पड़ती है | पहली बार किसी दलित लेखक की आत्मकथा में ऐसी चीत्कार सुनाई नहीं पड़ती है, बल्कि इसमें संघर्ष है, विरोध है, जिसे अंग्रेजी में ''साइलेंट रेवोल्युशन' कहा जाता है |” (2)

                       समय-परिवेश से आबद्ध रह कर साहित्यकार समाज के बदलते हुए परिवेश का निरूपण अपनी साहित्यिक रचनाओं में करता है | परिवर्तन संसार का नियम है | प्रवर्तमान समय में हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं कि हमारे सामने अनेक ज्वलंत समस्याएँ विराट रूप धारण करके खड़ी है | ऐसे समय में लेखक-साहित्यकार का दायित्व बनता है कि वह समाज को यथार्थता से अवगत करे | सचमुच लगता है कि सोनकर जी यह कार्य बड़ी निष्ठा से कर रहे है |

                       'डंक' रूपनारायण सोनकरजी का प्रथम उपन्यास है | चर्चित व प्रयोगधर्मी उपन्यास 'डंक' का प्रकाशन अनिरुद्ध बुक्स दिल्ली से सन् 2010 में हुआ था | उपन्यास के विमोचन दौरान पदमभूषण डॉ. बिन्दे वरी पाठक ने कहा था कि-“मैंने अपने जीवन में केवल दो पुस्तकें ही एक बार में लगातार पढ़ी हैं | एक ‘नाच्यों बहुत गोपाला’ व ‘डंक’ |”(3) रूपनारायण सोनकर का मानना है कि उपन्यास में वर्णित घटनाएँ उनके अपने समय की स्थितियों, विसंगतियों और चुनौतियों के साथ पूर्वापेक्षा को अधिक व्यापकता विविधता से रूपायित करती हैं | कथाकार का मानवीय संवेदन, तर्कसम्मत द्रष्टिकोण और विचारात्मक संतुलन हमारे समय की इन वास्तविकताओं को उजागर करता है कि वे सहज ही पाठकों के दिलो-दिमाग को झकझोरती है | उपन्यास में वर्णित कई घटनाक्रम परंपराओं से जुडकर भी उसमे बंधे नहीं है वरन् कथाकार उन्हें नये विकासमान अर्थ संदर्भों में बखूबी रूपायित और व्याख्यायित करता चलता है और ठीक इसी बिन्दु पर यह कथानक लीक से हटकर कुछ नया करने, सोचने और समझने को विवश करता है | 'डंक' उपन्यास में विविधायामी जीवनक्षेत्रों, पृष्ठभूमि और कई ज्वलंत प्रश्नों-सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, पारिवारिक के साथ स्त्री, आदिवासी, अमीर, मजदूर, फिल्म, सेक्स, पर्यावरण आदि का चित्रण है | लेखक ने उपन्यास में न केवल प्रश्न, बल्कि उत्तर की ओर भी इशारा किया गया है |

                      ‘डंक’ उपन्यास में लेखक ने जिस सभ्यता, संस्कृति और समाज व्यवस्था का वर्णन सटीक अंदाज में किया है, वह कल्पना नहीं है, बल्कि स्वयं जाकर उन सभ्यता, संस्कृति व समाज व्यवस्था का अध्ययन किया है | उपन्यास के प्रमुख पात्र विराट और संध्या घुम्मकड प्रवृति के है और भारत के विभिन्न राज्यों में भ्रमण करने के लिए निकलते हैं | गौरतलब है कि उपन्यास का प्रमुख पात्र विराट दलित है और उसकी प्रेमिका संध्या ठाकुर घराने से ताल्लुक रखती है | उनके घुमने से ही उपन्यास की कथा आगे बढती है | उपन्यास का प्रारंभ मध्य प्रदेश के एक आदिवासी गाँव टिनहरीया से होता है | जहाँ आदिवासी संस्कृति तथा हृदय को दहलाने वाले दर्द का परिचय करवाते है-

             “मध्यप्रदेश में एक आदिवासी दलित गाँव है,

              जहाँ दो औरतों के बीच मात्र एक साडी होती है,

              जब बहू घर से बाहर जाती है,
              तब सास घर में नंगी रहती है,
              ऐ ! मेरे देश के महान कर्णधारो,
              इन अभागी माताओं-बहिनों पर
              तरस खाओ...|”(4) 


                         आदिवासी युवक को विवाह से पहले अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ता है | इसके लिए उसे रींछ से भी लड़ना पड़ता है और अपनी प्रेमिका को डंडा बनाकर रस्सी पर भी चलना पड़ता है | वह आदिवासी समाज की रक्त पवित्रता तथा सात्विक प्रेम की अभिव्यक्ति है | आदिवासी संस्कृति-सभ्यता से विराट व संध्या प्रभावित होते है | वह कहते है कि-“हम लोग ऐसी दुनिया में थे जो वास्तव में हमारी सभ्य दुनिया से बहुत अलग थी | प्यार मोहब्बत, भाईचारा सभी मौजूद था | अतिथि का सत्कार कैसे किया जाता है, आदिवासी हमें सिखा रहे थे |”(5)  

                 भारत से विदेश जो लोग चले जाते है | (एन.आर.आई.) वह भारतीय सभ्यता-संस्कृति को भूलकर विदेशी सभ्यता-संस्कृति को ग्रहण कर लेते है, नैतिक मूल्यों का विध्वंस कर डालते हैं | अमेरिका में सास अपनी बहू को बड़े लड़के के साथ जबरन सोने के लिए कहती है | इनकी सभ्यता व संस्कृति का परिचय लेखक करवाता है कि-“विदेशी केवल अपनी पुत्री व माँ को छोड़कर संसार की किसी भी औरत या लड़की के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने में अपना गर्व-गौरव और मर्दानगी समझते है |”(6) तथा जसविंदर खुराना को उनका जेठ बाल पकड़ कर और जबरदस्ती होंठ को चुमते हुए कहता है कि-“It is a western and NRI culture.”(7)  

                       भारतीय समाज आज इक्कीसवीं सदी में भी ऊँच-नीच, जात-पाँत, छुआ-छूत, अंधविश्वास से मुक्त नहीं हो पाया है | समाज पर इन समस्याओं की बेडियाँ मजबूत नजर आती हैं | सवर्ण, आदिवासियों व दलितों को ठगे जा रही हैं | अंधविश्वास का शिकार इन जातियों को बनना पड़ता है | प्रस्तुत उपन्यास में उत्तर प्रदेश के बिंदकी क़स्बा की एक घटना का अंकन हमारा ध्यान खींच लेता है | रिन्द नदी पर पुल बनाने से पूर्व पन्द्रह लोगों की बलि चढाने को पुरोहितों ने राजा फतेहचंद से कहा | बलि चढाने में सारे के सारे दलित व पिछड़ी जाति के ही होते हैं | आजाद भारत में आज भी मानव बलि चिन्ता व चिंतन का विषय है | लेखक व संध्या राजस्थान में किले देखने जाते है तब वहाँ से आह (आवाज) निकलती है-“मैं बहुत दिनों से अन्दर गडा हूँ हमको राजाओं ने दफनाया था | हमारा कसूर मात्र यह था कि हम असहाय गरीब दलित थे |”(8) लेखक कुरीतियों के अलावा ऊँच-नीच, सांप्रदायिकता, दहेज-प्रथा, भ्रूण हत्या व सती-प्रथा जैसी समस्याओं का चित्रण बखुबी रूप से करते है | तमिलनाडु में जब सुनामी आया तो ऐसी कुदरती आपदाओं के समय भी लोगों के साथ जातिगत भेदभाव रखा गया था | उपन्यास में लेखक लिखते है कि सामाजिक कुरीतियाँ सुनामी लहरों से ज्यादा भयंकर होती है | उदहारण द्रष्टव्य है-“एक वृद्ध दलित महिला भूख से तड़प-तडपकर मर जाती है | यदि उसे समय से राहत सामग्री मिल गयी होती तो उसकी जान बचायी जा सकती थी | सुनामी लहरे तो उसे नहीं निगल पायी थी लेकिन जातिवाद की भयंकर सुनामी लहरों ने उसे निगल लिया था |”(9) 

                 भारतीय समाज में व्याप्त जाती व्यवस्था एवं रूढियों पर लेखक बार-बार प्रहार करता है कि किस तरह से समाज को डस रही है और उनके डंक से किस तरह लोग छट-पटा रहे है | पानी जैसी प्राकृतिक संपदा को जातिप्रथा का झहर लग जाता है, जहाँ दलितों को वंचित रखते है, लेकिन समाज में रौशनी की किरण दिखाई देती है-“ये लोग हमें कभी भी इस झरने से पानी नहीं भरने देती है | आज से और अभी से इस झरने से पानी भरेंगी |”(10) इनके अलावा समस्याएँ ऐसी है जो भारतीय सरकार की नीतियों के अनुसार समाप्त कर दी गयी पर आज भी समाज को डंक दे रही है | जैसे, अशिक्षा, व्यसन, दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, सत-प्रथा आदि |

                     प्रस्तुत उपन्यास में पर्यावरण पर विशेष ध्यान दिया गया है | आज समग्र विश्व पर्यावरण प्रदूषण के भीषण दौर से गुजर रहा है | प्राचीन समय में ॠषिमुनि, चिन्तक, धर्म प्रस्थापकों ने पर्यावरण का महत्त्व धर्म के माध्यम से लोगों तक पहुँचाया था | पर्यावरण के नष्ट होने के खतरे की ओर संकेत करते हुए उपन्यासकार सूक्ति रूप वाक्यांश लिखते है कि-“जब एक पेड़ से पत्ता झरता है तो ऐसा लगता है कि मानव जाति का कोई न कोई अंश झड रहा है | जब हम पेडों को काटते है तो ऐसा लगता है हम मानव जाती को काट रहे हैं |”(11)

                  भारतीय सभ्यता के अनुसार गुरु-शिष्य परंपरा बहुत प्राचीन है | गुरु को माता-पिता से भी ऊँचा दर्जा दिया जाता है, लेकिन वर्तमान समय में शिक्षा क्षेत्र भी पवित्र नहीं रहा है | संध्या, विराट को पी.एच.डी. का किस्सा सुनते समय प्रोफेसर दिनदयाल की बात करती है-वह कहता था-“संध्या अगर जल्दी पीएच.डी. कम्प्लीट करना चाहती हो तो तुमको मेरे अनुसार चलना होगा | जो भी शोध-छात्रा मेरे निर्देश का पालन नहीं करती है | उसकी आज तक पीएच.डी. कम्प्लीट नहीं हुई है, छः छः सालों से लटकी पड़ी है |”(12) वर्तमान समय में पूंजी का राज कायम है जिससे सभी संत्रस्त है, दलित तो सर्वाधिक | लेखक आर्थिक समृद्धि को जातिगत भेदभाव मिटाने के लिए जरुरी समझते है |

                  निष्कर्ष रूप में कह सकते है कि ‘डंक’ उपन्यास में आज के समाज व समस्याओं का यथार्थ अंकन हुआ है | लेखक केवल समस्याओं का चित्रण करके चुप नहीं रहते, बल्कि उसका उचित समाधान भी प्रस्तुत करते है | इस प्रकार लेखक ने उपन्यास में विविध आयामी पृष्ठभूमियों का सहज अंकन किया है | जो इनके सहज व्यक्तित्व का प्रतिफल है | इसलिए लेखक ने डंक उपन्यास में सरल, संक्षिप्त, बोधगम्य, लोकभाषा, जनभाषा, जनपदीय भाषा, ग्रामीण व आँचलिक भाषा का प्रयोग किया है | अतः हम कह सकते है कि जिंदगी से जुडी भाषा है | इस प्रकार प्रस्तुत उपन्यास कथ्य एवं शिल्प दोनों द्रष्टि समस्या प्रधान एवं प्रयोगात्मक उपन्यास कहा जा सकता है |

संदर्भ सूची :-

(1) लेखक से प्राप्त सामग्री-बायोडेटा, उदधृत टिप्पणी.

(2) 'नागफनी' पत्रिका-नवम्बर-जनवरी-2013/ पृ.5

(3) लेखक से प्राप्त सामग्री-बायोडेटा, उदधृत टिप्पणी.

(4) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.9

(5) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.12

(6) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.22

(7) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.23

(8) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.28

(9) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.29

(10) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.34

(11) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.65

(12) 'डंक'-रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध प्रकाशन दिल्ली- 2011, पृ.113
   

Friday, 25 June 2021

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है ! कविता का सारांश

प्रस्तावना :-

          हिन्दी काव्य साहित्य में ‘हालावाद’के प्रवर्तक कवि हरिवंशराय बच्चन है । कवि कीकविताओं में विषयगत और शैलीगत वैविध्य के कारण लोगों के ह्दय-मन पर आज भी राज करती हैं । छायावादोत्तर हिन्दी कविता में व्यक्ति प्रेम और तद्जन्य सुख-दुख के रंग भरने का श्रेय-प्रेय हरिवंशराय बच्चन को जाता है । सामान्य तौर पर सीधी-सादी सरल भाषा में काव्याभिव्यक्ति करनेवाले कवि है । काव्य मंचों के लोकप्रिय कवि रहे थे । कविता में गंभीर से गंभीर विषय को भी सरलता और सहजता से प्रस्तुत करने का हुनर कवि को हस्तगत था । काव्यों में अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों का साधारणीकरण करते हैं । कवि प्रेम, वेदना, सुख-दुख, पीड़ा, निराशा, आशा, समस्या, तत्कालीन परिवेश जैसे स्वानुभूतिजन्य विषयों को काव्य रूप प्रदान करते हैं ।हिन्दी काव्याकाश में कवि की कविताओं का अपना अनोखा महत्त्व है ।

         'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ कविता हरिवंशराय बच्चन की प्रसिद्ध कविताओं में से एक हैं । प्रस्तुत कविता में कवि प्रकृति के माध्यम से जिन्दगी के अकेलेपन, बेचैनी, तड़प, खालीपन और विह्वलता को प्रस्तुत करते हैं ।


दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !’का कविता का भावविश्व :

          ‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ काव्यमें कवि बच्चन जी प्राकृतिक जीवन दृश्य से काव्याभिव्यक्ति की शुरुआत करते है । दिन का ढलना और जिन्दगी का गलना सर्व सामान्य सत्य हैं । कवि उस सत्य को अपनी विह्वलता के साथ काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुति करते हैं । कविता की शुरुआत विस्मय के साथ होती है । दिन जल्दी-जल्दी अपने लक्ष्य की ओर ढलता जा रहा है । यह जीवनी की तेज गतिशीलता को व्यक्त करता है कि दिन का निकलना और ढलना ही तो जीवन हैं । इस बात की चिंता पंथी को लगी हैं कि पथ में कहीं रात न हो जाये । मेरी मंझील बहुत दूर नहीं है ।पुरे दिन का थका होने पर भी पंथी यही भाव में डूबा है किजल्दी-जल्दी ढलता जा रहा है ! यह सोच मन में वे जल्दी-जल्दी चलता जा रहा है । वे अपने थकेक़दम जल्दी-जल्दी बढ़ाने लगता है ।

“दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

हो जाय न पथ में रात कहीं,

मंज़िल भी तो है दूर नहीं-

यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है !”१

            कवि बच्चन जी काव्य केदूसरे दृश्य में ग्राम्य जीवन की संध्या समय के प्रकृति प्रदत्त वातावरण को वर्णित करते हैंऔर चिड़ियों कीसंवेदना को व्यक्त करते हैं । जब दिन जल्दी-जल्दी ढलता जा रहा है तबचिड़ियोंको स्मरण हो आता है कि हमारे बच्चें हमारी प्रतीक्षा में होंगे । हमारे पहूँचने का इन्तज़ार कर रहे होगें । हमे जल्दी जल्दी धर पहूँचनाचाहिए ।चिड़ियाँ सोचतीहैं कि हम घर आ रहे है या नहीं, यह जानने के लिए बच्चें घोंसलों से मुह बाहर करके झाँकते होंगे । यह ध्यान चिड़ियों के परों में जल्दी-जल्दी घर पहूँचने की चंचलता भरता हैं । इन पंक्तियों में कवि चिड़ियों की बेचैनी और विह्वलता तथा बेचैन जीवन में चंचलता का ऊर्जा संचार करने वाले उनके बच्चों का चित्रात्मक वर्णन करते है ।

“दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

बच्चे प्रत्याशा में होंगें,

नीड़ों से झाँक रहे होंगें

यह ध्यान परों मेंचिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है !”२

            कविता की अंतिम पंक्तियों तक आते-आते कवि अपने वैयक्तिक अनुभूतियों के प्रवाह में प्रवाहित करते है। पंथी और चिड़ियों की भावनाओं में डूबाने के बाद नीजी जीवन के रस में भीगोते हैं । जो कवि केजीवन की स्थिरता, मज़बूरी, लाचारी और विह्वलता को व्यक्त करता हैं ।कवि स्वयं अपने भावनात्मक अभाव को अभिव्यक्त करते हैं । जो जिन्दगी के अभाव को भी स्पष्ट करता हैं ।कवि अपनीवैयक्तिक अनुभूतियों में कहते हैं कि जिन्दगी के दिन जल्दी-जल्दी ढलते जा रहेहै । इतने बड़े संसार में मैं अकेला हूँ । संसार भर में मुझसे मिलने को कौनबेचैन हैं ? यही प्रश्न कवि की अकेली जिन्दगीको बार-बार सताता रहता हैं । दूसरा प्रश्न यह उठता है कि मैं किसको मिलने के लिए चंचल होऊँ ? यह प्रश्न जब कवि के मन-मस्तिष्क में उठता तो कवि के हृदय-मन को कुरेद देता है ।अपने जीवन पथ के कदम को शिथिल करता हैं तथा हृदय विह्वलता से भर जाता हैं ।कवि सोचते हैं कि इसभरी-पुरी दुनिया में मेरा कोई नहीं हैं ।जिसको मिलने के लिए मेरे अंदर चंचलता भरता रहूँ ।यहाँ कवि यह भी दिखाना चाहते हैं कि संसार में एक के लिए सुख हो, संभव हैं वह दूसरों के लिए न भी हो । एक व्यक्ति का सुखी संसार दूसरें व्यक्ति के लिए पीड़ा दायक भी हो सकता हैं ।

“दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !

मुझ से मिलने को कौन विकल्प ?

मैं होऊँ किसके हित चंचल ?

यह प्रश्न शिथिल करता पद को,

भरता उर में विह्वलता है !

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !”३



निष्कर्ष :-

         इस तरह एक छोटी सी कविता के द्वारा कवि हरिवंशराय बच्चन ने पंथीकी थकानके बावजूद भी मंज़िल को पाने की चाहत और चिड़ियों के बच्चों का स्मरण उनकी पंखो में चंचलताभरताहैंलेकिन, कवि को मिलने के लिए कोई बेचैन और बेताबभी नहीं हैं । कवि किसके लिए चंचल हो ? यही प्रश्न कवि को शिथिल और विह्वल बनाता है । यहाँ कवि अपने अभावग्रस्त जीवन की ओर भी ईशारा करते है । जो उसके समसामयिक जीवन की जीजीविषा को बरकरार रखने के लिए आवश्यक भी थी पर उस शक्ति से कवि वंचित ही रहना पड़ता हैं ।


संदर्भ :-

(१) दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !-हरिवंशराय बच्चन

(२) दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !-हरिवंशराय बच्चन

(३) दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !-हरिवंशराय बच्चन

(४) चित्र सहाय-गूगेल

नागार्जुन के काव्य में निरूपित प्रमुख विशेषताएं

नागार्जुन हिन्दी कवि
प्रस्तावना :-

हिन्दी काव्य साहित्य में प्रगतिवाद के शीर्षस्थ कवियों में कवि नागार्जुन का नाम अग्रीम रूप में लिया जाता है । प्रगतिवाद की चर्चा नागार्जुन के बिना अधूरी रह जाती है । प्रगतिवाद के बहुचर्चित एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार कवि नागार्जुन है । उनका काव्य सृजन छायावाद से लेकर बीसवीं सदी के अंत तक चलता रहा । उनका लेखन हर समय और युग में चर्चित रहा है । नागार्जुन की रचनाओं में युग जीवन का यथार्थ चित्रण पाया जाता है । जिसमें सामाजिक कुरीतियों तथा आर्थिक शोषण की नीतियों पर गहरा व्यंग्य किया है । कवि के काव्य विषय कल्पना की ऊँची उड़ान नहीं भरते, किन्तु अपने चारों ओर के वातावरण को ही विषय के रूप में ग्रहण करते है । प्रगतिवादी विचारधारा के साहित्यकारों में उनकी काव्य साधना स्पष्टवादिता, व्यंग्यात्मकता, जनवादिता, भुक्तभोगीपन, राजनैतिकता, स्वानुभूति, मानवतावादी स्वर, लोकजीवन दर्शन, प्रकृति चित्रण तथा सहजता के कारण अलग और अनोखा स्थान रखती है । अर्वाचीन समय में कवि निराला जनवादी साहित्य के जनक के रूप में सामने आते है, लेकिन उनके पश्चात् सशक्त एवं ताकतवर जनवादी साहित्य का प्रचार एवं प्रसार करने वाले कवि के रूप में नागार्जुन का नाम ही उल्लेखनीय है । नागार्जुन का साहित्य एवं कविता स्वानुभूत भुक्तभोगी होने से हर पाठक को अपनी कविता लगती है । उनके काव्य में हमेशा नये विषय, जन-जागरण के भाव एवं स्वर की चर्चा होती रही है । इनकी कविता में जनवादी स्वर एवं व्यंग्य एक अस्त्र के रूप में उभरकर आते हैं । नागार्जुन का व्यक्तित्व तथा कृतित्त्व जैसे बहुमुखी है, वैसे उनकी कविता की भाषा भी बहुरंगी है । उनकी काव्य भाषा सहज, सरल, सीधी-सादी, प्रवाहमयी, सपाट बयानी, चुटीली तथा लोकभाषा से युक्त भाषा है । इस प्रकार नागार्जुन हिन्दी प्रगतिवादी काव्य के सशक्त हस्ताक्षर है । 


                        नागार्जुन का जीवन एवं व्यक्तित्व ग्राम संस्कृति एवं ग्राम चेतना से पूर्ण विकसित हुआ था । उनके जीवन में आई विविध घटनाएँ प्रसंग, अनुभव व वातावरण तथा स्थितियों के अनुरूप व्यक्तित्व निर्माण हुआ था । इसी कारण पूंजीवादी एवं साम्राज्यवादी शोषण, अभावग्रस्तता आदि के प्रति उनका मन विद्रोही बन गया था । नागार्जुन का व्यक्तित्व संघर्षशील, संघर्षरत, एकांत प्रिय, मिलनसार, सीधा-सादा, यायावर एवं मस्तमौला स्वभाव वाला था । खुशामद व चापलूसी पसंद नहीं थी । दलित, शोषित, पीड़ित, अत्याचार व अन्यायग्रस्त व्यक्ति तथा समाज के प्रति उनके मन में करुणा तथा मानवता का भाव जागृत हो उठता था । वे चिंतन मनन कर साहित्य सर्जन करते थे । नागार्जुन का व्यवसाय खास कुछ नहीं था । कृषि पर अपनी आजीविका चलाते थे । स्वयं गाकर कविता बेचते थे । पुस्तकों के प्रकाशन के बाद मिलने वाली रायल्टी से वे अपने परिवार की आजीविका चलाते थे । इस प्रकार वे अपने परिवार का निर्वाह करते थे । नागार्जुन ने रामविलास शर्मा को लिखे हुए पत्र से बात स्पष्ट होती है - “नागार्जुन-साहित्य प्रचार-प्रसार करने का ठेका ले लिया है, बुकसेलरी कर रहा हूँ, बिहार के सत्रह जिले पता है न । एक-एक करके सभी जिलों की धूल छानने का संकल्प किया ।”1 भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन का भी प्रभाव उन पर रहा है । जिसका चित्रण कविता में करते है । रूस की क्रान्ति के प्रभाव स्वरूप मार्क्सवादी विचारों की ओर झुकते है । राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, जैन मुनि रत्नचंद्रजी, स्वामी सहजानंद, सुभाषचंद्र बोस, पंडित बलदेव मिश्र, दरभंगा की महारानी लक्ष्मीवती देवी, पंडित अनिरुद्ध मिश्र, पंडित सीताराम झा, पंडित मदनमोहन मालवीय, पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय, महाकवि कालिदास, कविन्द्र रविन्द्रनाथ टैगोर, गोर्की, लू शुन, कवि केदारनाथ अग्रवाल, महात्मा गाँधी एवम्  प्रकृति, राजनीति तथा सामाजिक स्थितियों से प्रेरणा प्राप्त करके काव्य लेखन करते रहें । 


                       नागार्जुन हिन्दी साहित्य में सन् 1935 से लिखना शुरू करते है । उनकी पहली हिन्दी कविता ‘राम के प्रति’ साप्ताहिक विश्वबंधु में सन् 1935 में छपी थी । इसके बाद निरंतर काव्य साधना करते रहे और आजकल कुल मिलाकर नागार्जुन के चौदह काव्य संकलन और दो खंडकाव्य प्रकाशित मिलते है । कथा साहित्य के अन्तर्गत तेरह उपन्यास, कहानियाँ, बुकलेट्स तथा पुस्तिकाएँ, स्फूट साहित्य, एक नाटक, परिचयात्मक लेख, यात्रा वर्णन, चार निबंध संकलन, पत्र, भाषण, साक्षात्कार, संस्मरण जीवनी आदि विधाओं में नागार्जुन ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है । संस्कृत साहित्य में तीन काव्य और मैथिली में उपन्यास तथा काव्य जैसी विधाओं को अपनी लेखनी से स्पर्श किया है । वे मैथिली में साहित्य लेखन करते थे तब वे ‘यात्री’ नाम से लिखा करते थे । वे पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते थे तब भी यात्री नाम से लेखन करते थे । इससे पूर्व वैधनाथ मिश्र ‘वैदेही’ नाम से लेखन करते थे । रामवृक्ष बेनीपुरी के मार्गदर्शन के बाद नागार्जुन नाम से लिखते रहे । वे बहुज्ञ भाषाविद् थे । संस्कृत, पाली, अपभ्रंश, प्राकृत, मैथिली, बिहारी, बंगला, अंग्रेज़ी व हिन्दी जैसी अनेक भाषा का ज्ञान था । यह उनके घुमक्कड़ स्वाभाव और अध्ययन का परिणाम  था । नागार्जुन बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने से उन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं में अपनी कलम चलायी है, लेकिन काव्य विधा से जितनी ख्याति मिली उतनी अन्य किसी विधा से नहीं मिल पायी । साहित्य लेखन को ही अपना धर्म मानकर साहित्य सृजन करते रहे थे ।


                        नागार्जुन की कविता उन्मुक्त एवं प्रफुल्लित है । इनकी कविता समष्टि की कविता है । काव्य में मानवीय भावों को जोड़कर सृजन करते है । जनता की भावनाओं को नागार्जुन चित्रित करते है इसलिए जनवादी काव्य बन गये है । जनवादी साहित्य जनता के भावों, विचारों, सुख-दुःख और समस्याओं को चित्रित करता है । इनका साहित्य आम आदमी भी समझ सकता है । यह साहित्य शोषित व पीड़ित लोगों का पक्षधर है । जनवादी साहित्य के संदर्भ में डॉ. शिवकुमार मिश्र का कथन है – “तमाम साहित्य जो आज भले ही बहुसंख्यक जनता की समझ के दायरे में नहीं है, किन्तु जो शोषण और अनाचार पर टिकी सत्ता की खिलाफत करता हुआ, शोषित मनुष्य का पक्षधर है । जनवादी साहित्य भले ही न कहा जाए, जनता का साहित्य ज़रूर है और हमारा समर्थन भी उसे है ।”2  नागार्जुन के काव्यों में विश्वास एवं उत्कट जिजीविषा का चित्रण किया गया है । संघर्षशील तथा पीड़ा से ग्रसित आम आदमी नागार्जुन के काव्य का केन्द्र है । वह व्यक्ति हताश-निराश नहीं है, बल्कि समस्याओं का सामना करने की ताकत रखता है । जीवन जीने की एक अदम्य जिजीविषा उसके मन के भीतर पाई जाती है । यह आदमी सहनशील एवं शक्ति संपन्न है । मानव की मूल्य शक्ति श्रम है । श्रमिकों की शक्ति संघठित होने पर उसके सामने कोई शक्ति अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगी । नागार्जुन आशावादी तथा परिश्रम पर पूर्ण विश्वास रखते है । उनके प्रति कवि आस्थावादी है । जनता की शक्ति पर विश्वास व्यक्त करने वाली कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत है- 


“तन जर्जर है भूख प्यास से

व्यक्ति-व्यक्ति दुःख-दैन्य ग्रस्त है 

दुविधा में समुदाय पस्त है

लो मशाल अब घर-घर को आलोकित कर दो 

सेतु बनो प्रज्ञा-प्रलय के मध्य

शांति को सर्व मंगला हो जाने दो ।”3


           कवि नागार्जुन के काव्यों में भारतीय लोकजीवन और लोक संस्कृति के दर्शन होते है । ग्राम जीवन और ग्राम प्रकृति के साथ जुड़कर कवि लिखता है । इससे कवि अनुभूति को यथार्थ वाणी प्रदान करते है तथा जीने की उर्जा प्रदान करते है – 


“बहुत दिनों के बाद 

अब की मैं जी भर सुन पाया 

धान कुटती किशोरियाँ की कोकिल कंठी तान ।”4


                    कवि के काव्यों में जनानुभूति का स्वर सुनाई देता है । संघर्षरत जीवन शोषितों को शोषण से मुक्ति,  इनकी समस्याएँ व दयनीय अवस्था का चित्रण नागार्जुन की कविता में पाया जाता है । उनकी कविता प्रतिहिंसा का समर्थन करने वाली कविता है । कवि ने प्रतिहिंसा नामक कविता में इसका प्रमाण दिया है । जन-सामान्य तथा जन जीवन की विसंगतियों का चित्रण कवि करता है – 


“नीचे निपट गरीबी, ऊपर थाट - बाँट की रजत जयंती 

शर्म न आती, मना रहे वे, महंगाई की रजत जयंती ।”5


                     नारी की दयनीय शोषित, पीड़ित अवस्था का चित्रण करके कवि नारी को भोग एवं गुलामी की वस्तु नहीं मानते बल्कि नारी को समाज में गरिमा व गौरव प्रदान करते है । नारी की गुलामी के लिए सवाल उठाकर कहते है कि कब तक गुलाम रहेंगी ? जैसे सवाल भी उठाते है । तालाब की मछलियाँ नामक कविता नारी को गुलामी से मुक्ति दिलाने की बात करती है । नारी शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ को बुलंद करते है –


“हाय पाकर भी मानव देह 

तुम्हारा यह बदतर हाल 

तनिक भी ची-चूं किया भी कि 

नहीं खींच लेते है जिंदा खाल ।"6 


                      नागार्जुन ने जनता के अभावों, समस्याओं एवं शोषण की अभिव्यक्ति अपनी कविता के माध्यम से की है । यह सब करते समय कवि कहीं पर प्रेम से घृणा करते है ऐसा नहीं है । उन्होंने प्रेम का चित्रण भी किया है, लेकिन उसके काव्य में आने वाला प्रेम का चित्रण यह गौण स्थान रखता है । उनकी कविता में आने वाला प्रेम का चित्रण मेहनतकश लोगों में श्रम की महत्ता बढ़ाने के लिए आता है या फिर शोषित, पीड़ित लोगों में जीने की प्रेरणा जगाने हेतु आता है । संघर्षमय जीवन की प्रेरणा के रूप में प्रेम का चित्रण आता है – 


“संध्या की तिगुनी धुंध में 

ओझल होती जाति किरणें

हिममंडित शिखरों को 

सत्वर रहीं चूम ....

भारी-भारी बोरियाँ लदी हैं पीठों पर

पर्वत कन्याएँ गयी घूम ।”7


                  नागार्जुन की कविता में उत्सवधर्मिता है । उत्सवधर्मिता उनकी कविता का अंग बन चुका है । उनकी कविता में आम आदमी के जीवन की त्रासदी तथा दर्द दिखाई देता है, लेकिन उनका काव्य प्रसन्न एवं प्रफुल्लित करने वाला है । कविता का नायक हमेशा आम आदमी तथा सर्वहारा वर्ग का मनुष्य रहा है । कवि स्वयं प्रसन्नचित व्यक्ति होने से उनके काव्य में अलगाव देखने को नहीं मिलता । इसीलिए वे समाज के साथ जुड़ते है और समाज में व्याप्त मानव जीवन के अनुभवों को अपनी कविता में अभिव्यक्त करते है । 


                      कवि नागार्जुन निडर एवं निर्भीक व्यक्तित्व के धनी है । देश और समाज में जो देखा, अनुभव किया तथा भोगा है । उसका चित्रण वे कविता में करते है । कवि निडर एवं निर्भीक होकर सहज रूप से अपनी बात रखकर वस्तु स्थिति का यथार्थ परक चित्रण करते है –


“स्वेत-श्याम-रतनार अँखियों निहार के 

सिंडिकेटी प्रभुओं की पगधूर झार के 

लौटे हैं दिल्ली से कुल टिकट मार के

खिले हैं दाँत ज्यों दाने अनार के

आये दिन बहार के ।”8


                           कवि की कविताओं में देशभक्ति एवं राष्ट्र प्रेम लबा - लब भरा दिखाई देता है । नागार्जुन आम आदमी, शोषित, पीड़ित, उपेक्षित लोगों के पक्षधर कवि है । उस व्यक्ति के प्रति मन में प्रेम, विश्वास व आस्था है । वह देश विद्रोही तथा विरोधी घटनाओं को धिक्कारते है । तालाब की मछलियाँ नामक संग्रह की कविता में कवि मानते है कि महात्मा गाँधी की हत्या होना न केवल देश के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए हानिकारक है । देश को सुजलाम -सुफलाम बनाने की बात कवि नागार्जुन अपनी कविता में करते है – 


“अन्न-वस्त्रदा

सुखदा, सुभदा 

प्राणों से भी बढ़कर प्यारी

हिम किरीटिनी

जलधि-पैजनी

बने स्वर्ग यह भूमि हमारी ।"9


                          कवि की कविता में सामाजिक  विषमता का चित्रण पाया जाता है । कवि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक विषमता का विरोध करते है – 


“कुत्ते ने भी कुत्ते पाले, देखो भाई

पैदल चलने वालों की तो शामत आई ।”10


                            कवि समाज में फैली सामाजिक विषमता को नष्ट करने की भावना से प्रेरित होकर कविता लिखता है । कवि आम आदमी, श्रमिक, मेहनतकश, उपेक्षित तथा नारियों पर होने वाले अन्याय जुल्म एवं अत्याचार का विरोध देखने को मिलता है । जिससे उनकी कविता में विद्रोही तथा क्रान्ति की भावना का साक्षात्कार होता है । राजनेता, भ्रष्टाचार, सरकारी नीतियां, पूंजीवादी व्यवस्था, सत्ता लोलुपता आदि के विरोध में कवि का विद्रोहात्मक स्वर सुनाई देता है –


“दिल ने कहा दलित माओं को

सब बच्चे अब बागी होंगे 

अग्निपुत्र होंगे ये अंतिम

विप्लव में सहभागी होंगे ।“11


            नागार्जुन ने राजनीति को लेकर अधिक कविताएँ लिखी है । राजनैतिकता का चित्रण करते समय कवि व्यंग्य के प्रहार और विद्रोह की आवाज़ बुलंद करके काव्य साधना करते है । इनमें दल, राजनीति, राजनीतिक दोष, राजनेताओं के आचरण, दोगली नीति एवं दोगला आचरण, राजनीतिक गतिविधियाँ, राजनीतिक उथल-पुथल आदि का वर्णन आता है । नागार्जुन जनता का पक्षधर होने से कवि राजनीति से मुँह नहीं मोड़ सकते है- 


“सच सच बोलो, उसके आगे

 तुम क्या थे भाई मोरारजी 

सूखे-रूखे काठ सरीखे 

पड़े हुए थे निराकारजी ।"12


                          नागार्जुन काव्य की आत्मा व्यंग्य है । कवि अपनी कविता में समाज के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर व्यंग्य करते हैं अपनी पैनी दृष्टि के माध्यम से सभी विषयों को स्पर्श करते है । विश्वभर मानव का कहना है कि - “हरिश्चंद्र के युग के कुछ साहित्यकारों को छोड़कर पिछले पचास वर्षों में नागार्जुन जैसी तीखी और सीधी चोट करने वाला व्यंग्यकार हमारे साहित्य में नहीं हुआ ।”13 निम्नलिखित पंक्तियाँ एक सशक्त व्यंग्यकार की परिचायक है – 


“लटक रही है तलवार रात-दिन इस गर्दन पर

बेकारी की

लाचारी की 

बीमारी की

चैन नहीं आराम नहीं है

सपने में भी सुख-सुविधा का नाम नहीं है 

तान विषण्ण, मन चिर अशांत है

पल पल हम भयाक्रांत है ।"14 


                     नागार्जुन की कविता में प्रकृति मानव जीवन से जुड़कर आती है । प्रकृति मनुष्य को के लिए प्रेरक व प्रेरणा देने वाली है । श्रम करने के लिए मनुष्य को उकसाती है, तैयार करती है । नागार्जुन की कविता में प्रकृति के विविध रूपों का वर्णन हुआ है । उनके काव्य में प्रकृति के विभिन्न ऋतु व मासों का वर्णन मानव जीवन से जोड़कर चित्रित किया है – 


“नदी के पेट में चला गया है समूचा गांव

बेघर हो गये हैं लोग 

पगला गई है बूढ़ी गंडक ।"15



                         मानवतावादी स्वर नागार्जुन की काव्य में गूंजता है । आम जनता पर हो रहे अत्याचार एवं जुल्म से कवि का मन पीड़ित होता है । शोषितों के प्रति उनके मन में करुणा का भाव दिखाई पड़ता है । मानवता एवं विश्वबंधुत्व की कल्पना कवि करता है –


“सतत अभ्युदिन 

जन-जन प्रमुदित 

सर्व सुखद सुन्दर समाज हो ।”16 


                   नागार्जुन का व्यक्तित्व व कृतित्त्व जैसे बहुमुखी तथा बहुविध है वैसे उननी वाण भाषा भी बहुरंगी है । नागार्जुन यह मानते हैं कि कविता का कथ्य यदि जानदार एवं सशक्त हैं तो भाषा-शैली व शिल्प अपने आप उसके अनुसार आचरण करता है । 


                      जन सामान्य के भावों को उन्हीं के शब्दों में जन भाषा द्वारा वे अभिव्यक्ति देते है । आम जनता के स्तरों की अभिव्यक्ति के लिए सपाट वयानी भाषा का प्रयोग करते है । इसके कारण काव्य स्पष्टता तथा प्रवाहीपन नज़र आता है । कवि ने कहीं कहीं संवादात्मक शैली तथा नाटकीय तत्त्व का निर्वाह किया है । अन्य जनवादी कवियों की भांति अपनी कविता में फैंटेसी का आधार लिया है । कवि ने नृत्य एवं संगीत की लोक शैली वाली भाषा को अपनाया है । नागार्जुन कविता में चुटीली भाषा का प्रयोग होने से उनकी कविता का व्यंग्य चुभता है । नागार्जुन की कविता में अलंकारों का मोह नहीं दिखाई देता, बल्कि अलंकार कविता के कथ्य को शानदार बनाने में सहायता प्रदान करने का काम करता है । वर्णिक, मात्रिक तथा मुक्त सभी प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है । कवि मिथकों, बिम्ब एवं विशेषणों का नूतन प्रयोग करने में सिद्धहस्त है । इस प्रकार अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों पक्षों से नागार्जुन की कविता हिन्दी साहित्य में अपनी अलग पहचान रखती है । 



संदर्भ सूची :- 

1. डॉ. चन्द्रहास सिंह, नागार्जुन का काव्य, पृ. 16

2. सं. नामवर सिंह, आलोचना, जनवरी-मार्च, अप्रैल-जून, 1981, पृ. 94 

3. नागार्जुन, सतरंगे पंखों वाली, पृ. 48 

4. वही, पृ.15 

5. सं. शोभाकान्त, नागार्जुन रचनावली, पृ. 60

6. नागार्जुन, रत्नगर्भ, पृ. 17 

7. नागार्जुन, तुमने कहा था, पृ. 57 

8. वही, पृ. 47 

9. नागार्जुन, तालाब की मछलियाँ, पृ. 125 10. तुमने कहा था, पृ. 53 

11. नागार्जुन, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, पृ. 125 

12. वही, पृ. 125 

13. हरिचरण शर्मा, नये प्रतिनिधि कवि, पृ. 125 

14. नागार्जुन, तालाब की मछलियाँ, पृ. 125 

15. वही, पृ. 125 

16. वही, पृ. 126