Friday, 2 December 2022

हिन्दी कविता का उद्भव और विकास

(१) प्रस्तावना :-

        हिंदी काव्य साहित्य के उद्भव और विकास की एक सुदीर्घ परंपरा रही है | जितनी पुरानी हमारी संस्कृति है, उतनी ही पुरानी हमारी काव्य यात्रा है | इसी संस्कृति और साहित्य के रास्ते चलकर हिंदी कविता ने अपने आधुनिक स्वरूप को निर्मित किया है | हिंदी काव्य साहित्य का नामकरण एवं काल विभाजन के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य का अभाव हैं, फिरभी हिंदी काव्य साहित्य की ऐतिहासिक यात्रा प्राचीन समय में ऋग्वेद से आरंभ करके समसामयिक कविता के विकास की रही हैं | आदिकाल को हिंदी कविता का आरंभिक काल माना जाता है और भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का सुवर्ण काल कहा जाता है | इस काल में भक्ति साहित्य की रचना प्रचुर मात्रा में होती हैं | रीतिकाल की कविताओं में रचना कला पर विशेष ध्यान दिया गया था, किन्तु आधुनिक काल में कविता कामिनी  का संपूर्ण विकास होता है | हिंदी कविता के इस विकासक्रम को निम्नलिखित रूप रखांकित किया जा सकता हैं | 


(२) हिंदी काव्य साहित्य का उद्भव :-

        हिंदी कविता की उद्भव गाथा इस प्रकार मिलती हैं | जिसका सम्बन्ध हमारी प्राचीन संस्कृति और हिंदी भाषा के उद्भव एवं विकास के साथ जुड़ा हुआ हैं | प्राचीन भारतीय भाषा में ऋग्वेद की रचना संस्कृत भाषा के छंदों मिलती है | इसके बाद मध्यकालीन भारतीय भाषा में पाली, प्राकृत एवं अपभ्रंश का काव्य मिलता हैं | प्राकृत की अंतिम अवस्था में गाहा या गाथा के रूप में काव्य साहित्य उपलब्ध होता हैं | अपभ्रंश तक आते ही कविता की परंपरा विकसित होकर दोहा या दुहा रूप में पद्यात्मक साहित्य लिखा जाने लगा था | सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण से हिंदी के सबसे पुराने पद्यों में अपभ्रश या प्राकृताभास से जुड़े तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों का सांप्रदायिक साहित्य मिलता है | तब तक काव्य भाषा के रूप में अपभ्रंश विकसित हो चुकी थी | इसी शौरसेनी अपभ्रंश से क्रमश: आदिकाल, भक्तिकाल और आधुनिक हिंदी खड़ीबोली कविता की परम्परा निकलती हैं | हिंदी साहित्य के प्रथम कवि और काव्य रचना के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद पाये जाते है, फिरभी राहुल सांकृत्यायन के अनुसार आठवीं शताब्दी में ‘दोहाकोष’ के रचयिता ‘सरहपा’ को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार करते है | इस तरह आधुनिक हिंदी कविता के उद्भव और विकास की ऐतिहासिक परंपरा रही हैं |


(३) हिंदी काव्य साहित्य का विकास :- 

        हिंदी कविता की एतिहासिक विकास परंपरा को निम्नलिखित काल-खंडों में विभाजित किया हैं | 


१. आदिकाल :-  

        हिंदी साहित्य के प्राम्भिक काल को ‘आदिकाल’ कहते हैं | इसका समय संवत् १०५० से १३७५ का रहा है | इस काल में मुख्य रूप से सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य, जैन-साहित्य, चारणी-साहित्य, रासो-साहित्य एवं प्रकीर्ण साहित्य मिलता हैं | इस काल में मिलने वाली रचनाएँ प्रबंध, मुक्तक एवं फुटकल स्वरूप में पाई जाती हैं | इन काव्य रचनाओं में धर्म, नीति, राष्ट्र-भाव, वीरता एवं श्रींगार से संबंधित विषयों का प्राधान्य रहा हैं | इस काल की महत्वपूर्ण रचनाओं में चन्दबरदाई की ‘पृथ्वीराज रासो’, नरपति नाल्ह ‘बीसलदेव रासो’, सरहपा ‘दोहकोष’, शालिभद्र सूरी ‘बाहुबली रास’, शबरपा ‘चर्यापद’, गोरखनाथ ‘गोरखबोध’, अब्दुर्रहमान ‘संदेश रसक’ और अमीर खुसरो की पहेलियाँ-मुकरियाँ आदि हैं | संक्षिप्त रूप में कह सकते है कि आदिकालीन हिंदी साहित्यिक भूमि पर काव्य का पौधा पनप रहा था |


२. भक्तिकाल :- 

             भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का ‘सुवर्णकाल’ कहा जाता है | भक्तिकाल का समय संवत् १३७५ से १७०० तक का रहा है | यह काल साहित्यिक दृष्टि बहुत समृद्ध रहा हैं | गौतम बुद्ध के बाद के सबसे बड़े लोकनायक एवं महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने कुल बारह काव्य-ग्रंथों की रचना की | इनमें ‘रामचरित मानस’ सबसे लोकप्रिय महा-काव्य है | कृष्ण भक्त कवि सूरदास भी भक्तिकाल के अग्रगण्य कवि है | सूरदास द्वारा पाँच ग्रंथ बताए जाते है, ‘साहित्य-लहरी’, ‘सूरसारावली’, ‘सूरसागर’ ‘नल-दमयंती’ और ‘ब्याहलो’ | उस काल के सबसे बड़े समाज-सुधारक कबीर ने साखी, सबद और रमैनी में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं | प्रेम के पीर मल्लिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’, ‘अखरावट’ आदि रचनाएँ लिखी हैं | भक्तिकाल के अन्य कवियों में असाईत ठाकुर, ईश्वरदास, कुतुबन, मंजन, नाभादास, मीराबाई, रसखान, वल्लभाचार्य आदि कवियों की भूमिका महत्वपूर्ण रही हैं | 


“मुझको तूँ क्या ढूँढे बंदे मैं तो तेरे पास में |’’


         इन कवियों की कविता में भक्ति, प्रेम, समाज-सुधार, प्रकृति, दार्शनिकता, अर्थ, आदर्शवाद, रहस्यवाद जैसे विषय वर्णित हैं और काव्य भाषा के रूप में संस्कृत, अवधि, ब्रजभाषा, अरबी-फ़ारसी और खड़ीबोली का अधिक प्रयोग किया हैं | हिंदी कविता के विभिन्न काव्य स्वरूपों का विकास इस काल में पाया जाता हैं |  

   

३. रीतिकाल :- 

        रीतिकाल का समय संवत् १७०० से १९०० तक का रहा है | इस काल को सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से अध: पतन का युग माना जाता है, लेकिन काव्य शास्त्रीय प्रवृति की दृष्टि से बहुल ही सफ़ल रहा हैं | केशवदास की ‘राम चंद्रिका’, ‘रसिक प्रिया’, मतिराम ‘रसराज’, भूषण ‘शिवराज भूषण’ बिहारी ‘बिहारी सतसई’ घनानंद ‘सुजान हित’, ‘घन आनंद ग्रंथावली’ इत्यादि कवि-आचार्यों ने साहित्यिक समृद्धि को बढ़ाया हैं | श्रृंगार, वीर, प्रकृति, राजनीति, काव्य कौशल, नारी तथा समाज एवं नैतिकता विरोधी प्रवृति की बोलबाला काव्यों में मिलती हैं | इस काल में भूषण अकेला कवि है, जिन्हों ने वीर रस की कविताएँ लिखी हैं | अपने आश्रयदाता की प्रशंसा करना कवियों का मुख्य उद्देश्य था |  दोहे, सवैया और कवित छंद कवियों के प्रिय छंद थे | उदहारण के लिए -


“लोग है लागि कवित अबनावत, मोहि तो मेरो कवित बनावत |”- घनानंद


“नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहीं विकास यही काल,

अली कलि ही सो बंद्यो आगे कौन हवाल |” – बिहारी


४. आधुनिक काल :-

४.१ भारन्तेंदु युग :- 

            आधुनिक काल के प्रथम चरण को भारतेन्दु युग (ई. स. १८५०-१९००) की संज्ञा प्रदान की गई हैं | आधुनिक काल के प्रथम चरण में पद्य से अधिक गद्य साहित्य लिखा जाने लगा था, किन्तु उस समय का गद्य कविता से काफी नजदिक का है | इस काल में औधोगिक विकास, अंग्रेजी शिक्षा, सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव, प्रस, पत्र-पत्रिका विकास, फोर्ट विलियम कोलेज की स्थापना आदि घटनाएँ साहित्यिक बदलाव में कारणभूत रही हैं | उस समय पद्य के क्षेत्र में ब्रजभाषा की अगली कड़ी के रूप में विषय एवं भाषा दोनों परम्परानुसार थे | कवियों में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, राजा लक्ष्मणसिंह, लछिराम, प्रतापनारायण मिश्र, राधाकृष्णदास, ठाकुर जग मोहनसिंह आदि ने भक्ति, श्रृंगार, राष्ट्रिय भावना एवं राजनीतिक समस्या को केन्द्र बनाकर कविता लिखी हैं | अत: आधुनिक हिंदी कविता की नींव भातेंदु युग में ही रखी गयी थी | शेख फरिउदीन का दोहा प्रस्तुत है –


“सजन सकोर जायेंगे और मरेंगे दोय |

विद्यना ऐसी रैन कर भोर कभी न होय ||’’  


४.२ द्विवेदी युग :-

            द्विवेदी युग (ई. स. १९००-१९१८) का नामकरण महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान के आधार पर किया गया है | इसे सुधाराकाल और जागरण काल के नाम से भी जाना जाता हैं | कविता और भाषा के लिए यह काल परिवर्तन और परिवर्धन का काल रहा हैं | कविता विषय का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो गया था, चीटी से लेकर हाथी पर्यंत की कविता होने लगी थी | ब्रजभाषा के स्थान पर साहित्यिक खड़ीबोली काव्य भाषा बन गई | कविता का उद्देश्य मनोरंजन के साथ उचित उपदेश का मर्म निरुपित किया | इन कवियों में अयौध्यासिंह उपाध्याय ‘प्रिय प्रवास’, मैथिलीशरण गुप्त ‘साकेत’, माखनलाल चतुर्वेदी ‘हिम किरिटनी’, सियारामशरण गुप्त ‘खादी के फूल’, बालकृष्ण शर्मा नवीन ‘कुमकुम’, रामनरेश त्रिपाठी ‘मिलन’, ‘पथिक’, सुभद्राकुमारी चौहान ‘झाँसी की रानी’, रामधारीसिंह दिनकर आदि का योगदान चिरस्मरणीय हैं |

 

“खूब लड़ी मर्दानी वह झाँसी वाली रानी थी |” - सुभद्राकुमारी चौहान        

       

        स्वच्छन्दतावाद के प्रमुख कवियों में श्रीधर पाठक ‘काश्मीर सुषमा’, मुकुटधर पाण्डेय ‘कानन कुसुम’, रूपनारायण पाण्डेय ‘वनवैभव’ आदि सर्जकों ने द्विवेदी युग के काव्य वैभव को बढ़ाया हैं | ई. स. १९०० में महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ के संपादक बनने के बाद प्रकृति प्रेम, मानवतावादी दृष्टिकोण, प्रणय भावना, पौराणिक पात्रों को आधुनिक ढंग से प्रस्तुत करना इत्यादि विषयों से संबंधित कविताएँ प्रकाशित होने लगी थी | कविता के अलग-अलग स्वरूप में कवि अपनी संवेदना को व्यक्त कर रहे थे | इसलिए यह कह सकते है कि हिंदी काव्य साहित्य में व्याप्त त्रुटियों का सुधार, सुधार-काल में होता हैं | 

   

४.३ छायावाद काल :-

                आधुनिक हिंदी कविता में ई. स. १९१८ से १९३८ तक के समय काल को हिंदी कविता में छायावाद काल कहते है | इस काल के प्रमुख आधार स्तंभ जयशंकर प्रसाद ‘कामायनी’, ‘आँसू’, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, ‘जूही की कली’, ‘सरोज स्मृति’ सूमित्रानंदन ‘पंत’ ‘उच्छवास’, ‘ग्रंथि’, ‘वीणा’ एवम् महादेवी वर्मा ‘नीहार’ ‘नीरजा’ ‘यामा’ हैं | इन कवियों के अलावा भी कई कवियों ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया हैं | 


“प्रिय तितली ! फूल-सी ही फूली

तुम किस सुख में हो रही डोल ?

क्या फूलों से ली, अनिल कुसुम !

तुमने मन के मधु की मिठास ?”

 - सूमित्रानंदन ‘पंत’


“बीती विभावरी जागरी !

अम्बर पनघट में डूबो रही

तारा घट उषा नगरी !

खगकुल ‘कुल-कुल’-सा बोल रहा

लो, यह लतिका भी भर लाई

मधु मुकुल नवां रस गागरी |”

 - जयशंकर प्रसाद 

           छायावाद कालीन कविता की मुख्य विशेषता है कि स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह तथा आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति, कल्पना की प्रचुरता, सौंदर्य के प्रति आकर्षण, प्रकृति चित्रण, अलौकिक प्रियतम का आहवान तथा ध्वन्यात्मक-चित्रात्मक भाषा का प्रयोग, प्रतीक, बीम्ब, छंद आदि का नये प्रयोग मिलते हैं |  


४.४ प्रगतिवाद :-

        हिंदी कविता की विकास परंपरा में छायावाद के बाद ई. स. १९३८ से १९४३ तक की कविता को ‘प्रगतिवाद’ या ‘प्रगतिशील’ कविता के शीर्षक से अभिहित गया हैं | प्रगतिवादी कवि और कविता का मूलाधार काल मार्क्स की साम्यवादी विचारधार है | काल मार्क्स के प्रभाव स्वरूप ई. स. १९३६ में पहली बार ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना हुई | इन कवियों ने अपनी कविता में पूँजीवाद का विरोध, शोषण के प्रति विद्रोह, शोषितों से सहानुभूति, संघर्ष और क्रांति को केन्द्रीय भूमि बना लिया था | 


“है सारा संसार सुखी क्या केवल, मैं एक दुखी क्या ?

यही समझ धीरज धर लेता, यह निष्फल-सा जीवन मेरा |

                                        -शिवमंगलसिंह सुमन

“काटो, काटो, काटो, कारबी

मारो, मारो, मारो, हँसिया 

हिंसा और अहिंसा क्या हैं

जीवन से बढ़ हिंसा क्या है |”

                          -केदारनाथ अग्रवाल 

      यह कह सकते है कि इस काल की कविता व्यक्ति केन्द्रीत आत्माभिव्यक्ति से निकलकर जनजीवन के सामाजिक यथार्थ से जुड़ गई | प्रगतिवाद के सशक्त हस्ताक्षरों में केदारनाथ अग्रवाल ‘कहें केदार खरी-खरी’, ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’, नागार्जुन ‘ऊबड-खाबड़’, ‘बादल को घिरते हमने देखा हैं’, शिवमंगलसिंह सुमन ‘हिल्लोल’, ‘प्रलय सर्जन’, त्रिलोचन ‘मिट्टी की बरात’ आदि है | काव्य प्रयुक्त भाषा लोकभाषा के अधिक करीब सरल, सहज और सुबोध है, क्योंकि सामान्य मनुष्य की संवेदना को व्यक्त करने के लिए अनिवार्य भी थी |


४.५ प्रयोगवाद :- 

                 प्रयोगवादी कविता का आरंभ सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के ई. स. १९४३ में ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन से ही माना गया है | प्रयोगवादी कवि कविता में वैयक्ति पीड़ा को अभिव्यक्त करते है | तार सप्तक के कवियों में मुक्तिबोध, नेमिचंद्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, रामविलास शर्मा और अज्ञेय सम्मिलित हैं | 



“मैं उस असीम शक्ति से

सम्बन्ध जोड़ना चाहता हूँ

अभिभूत होना चाहता हूँ

जो मेरे भीतर है |”

- ‘अज्ञेय’


       इनकी कविता में घोर व्यक्तिकता, अतिबौधिकता, रुढियों के प्रति विद्रोह, दमित कुंठा की अभिव्यक्ति, ईश्वर के प्रति अनास्था, व्यंग्य, पीड़ा बोध, अदम्य जिजीविषा, प्रकृति सौंदर्य की नवीन दृष्टि तथा प्रतीकात्मक काव्य भाषा का प्रयोग सशक्त रूप में किया हैं | 



४.६ नई कविता :- 

        हिंदी कविता के विकास क्रम में ई. स. १९५१ के आसपास लिखी गई कविता को नई कविता के रूप में पहचानते है | अज्ञेय द्वारा दुसरे ‘तार सप्तक’ के प्रकाशन के साथ ही प्रयोगवादी कविता नया मोड़ लेकर ‘नई कविता’ की ओर मुड़ गयी | कवियों ने अपनी कविता में जीवन के प्रति आस्था, यथार्थ की अभिव्यक्ति, लघु मानव की प्रतिष्ठा, लौकिक जीवन से सम्पृक्ति, ईश्वर में अनास्था, लम्बी कविता की प्रवृति एवं भाषा में रूपगत स्वच्छंदता जैसी विशेषताओं का चित्रण किया हैं | 


“मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ 

लेकिन मुझे फेंको मत 

     ×       × ×

क्या जाने 

सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले |”


“मौन भी अभिव्यंजना है

जितना तुम्हारा सच है

उतना ही कहो |” – अज्ञेय 


      नयी कविता के प्रमुक हस्ताक्षर में इन कवियों के नाम सादर लिया जाता है, अज्ञेय ‘हरी घास पर क्षण भर’, मुक्तिबोध ‘चाँद का मूँह टेढ़ा है’, रघुवीर सहाय ‘आत्म ह्त्या के विरुद्ध’, नरेश मेहता ‘मेरा समर्पित एकांत’, धर्मवीर भारती ‘कनु प्रिया’, भवानी प्रसाद मिश्र ‘गीत फरोश’, शमशेर बहादुरसिंह ‘बात बोलेगी’, कुँवरनारायण ‘आत्मजयी’, केदारनाथ अग्रवाल ‘अभी बिल्कुल अभी’ आदि | कविता में विषय के अनुकूल साहित्यिक भाषा का नया  प्रयोग किया है |  


४.७ समकालीन या समसामयिक कविता :-

       

        हिंदी कविता की विकास परंपरा में ई. स. १९६० के बाद लिखी गई कविता को साठोत्तरी कविता, नवगीत, समकालीन कविता या समसामयिक कविता जैसे शीर्षकों के छाये में रेखांकित की जाती है | जिसमें अनुभूति की सच्चाई, प्रामाणिकता एवम् भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति मिलती है | दलित, मजदूर, नारी, पीड़ित, शोषित एवं दबे-कुचले मनुष्य की चीखें इन कविताओं में सुनाई देती है | अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए कवियों ने अपनी खुद की भाषा का नया स्वरूप निर्मित किया है | जिससे कविता का अपनत्व बढ़ जाता है | यथार्थ की अतिश्योक्ति के कारण भाषा का भदेश रूप कुछ स्थान पर सामने आता है | कवियों का एक वर्ग येसा भी हैं, जो भोगे हुए यथार्थ के स्थान पर अपनी संवेदन को कविता में अभिव्यक्त करते हैं | हिंदी कविता के लिए यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि हिंदी कविता में समय के साथ चलने का लचीलापन एवम् अपने स्वरूप को परिवर्तनशील रखने की संपूर्ण शक्ति हैं | 


(४) निष्कर्ष :-

        हिंदी कविता के विकास परंपरा का एक रोचक इतिहास रहा है | यह परंपरा हमें केवल हिंदी कविता के उद्भव और विकास से ही परिचित नहीं करवाती है, बल्कि भारतीय संस्कृति, तत्कालीन परिवेश और भाषिक परम्पराओं से भी अवगत होने का अवसर देती हैं | हिन्दी कविता की जड़े प्राचीन जरुर हैं, किन्तु विद्वानों के अनुसार आदिकाल से   हिंदी कविता अपना स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित करती है और भक्तिकाल में अपनी विशाल एवम् समृद्ध विरासत का निर्माण करती है | जिसके आधार स्तंभ गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, कबीर और मल्लिक मुहम्मद जायसी हैं तथा रीतिकाल की कविता में कला पक्व स्वरूप नजर आता हैं | इसी काव्य विरासत को आधुनिक काल की प्रथम पंक्ति के नये छंद के रूप में भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनके युग के कवि ने गूम्फित किया | उसको पूर्ण आधुनिक बनाने का कार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के साथ मिलकर सुधारक काल के कवियों ने बखूबी किया और छायावाद में कविता सूक्ष्म संवेदन व्यक्त करके प्रगतिवाद तक आते ही जन-सामान्य से जुड़ जाती है | वही कविता प्रयोगवाद और नई कविता में विद्रोह के स्वर फूँकती है | नवगीत काल की कविता मनुजता गीत गुनगुनाने लगती हैं और आज हम इसी परंपरा से निकली कविता के मीठे रस का आस्वादन कर रहे है |