१) “अब किस-किस से डरूं, लीला? कालेज को दुकान की तरह चलाने वाले उस प्रेसिडेंट से (विराम) अंगोठा-छाप कमेटी मेम्बरों से चुगली खाने वाले अपने सहयोगियों से (विराम) उस लिजलिजे बेहूदे प्रिंसिपल से विद्यार्थियों से? क्या पूरी उम्र डरते ही रहना होगा ?” (पृ. १६)
२) “इसीलिए तो कहता हूं नौकरी करनी है तो कान बन्द कर लो। आंखे मूंद लो। मुंह खुला रखो-बोलने के लिए नहीं, रोटी खाने के लिए।“ (पृ. १९)
३) “पूरे तीस साल। चुंगी नाके के मुहर्रिर से बढता-बढता प्रिंसिपल हो गया। लडता तो क्या बनता ? लडो मत-झुको, सोचो मत-मानो।“ (पृ. २०)
४) “जो व्यवस्था तोडी नहीं जा सकती उसमें विश्वास करके ही जिया जा सकता है।“ (पृ. ५१)
५) “एकलव्य का अंगूठा बने रहने का अर्थ समझते हो ? धनर्विधा पर उसका अधिकार हो जाएगा। धीरे-धीरे उसकी जाति का अधिकार हो जाएगा। (विराम) शक्तिशाली होने के बाद ये क्षत्रियों से स्पर्धा करेंगे और परिणाम होगा वर्णाश्रम धर्म पर संकट।“ (पृ. ५३)
६) “इतिहास तो फिर भी कल हंसेगा आप पर। जब भी प्रतिभा को जाति और व्यवस्था के नाम पर कुचला जाएगा तो लोग आपको ही याद करेंगे। इतिहास आपको कभी क्षमा नहीं करेगा।“ (पृ. ५४)
७) “उनका कहना है, ऐसे मामलों में लोगों की कल्पना-शक्ति बडी उपजाऊ होती है। बलात्कार की कोशिश बढती-बढ़ती गर्भपात तक जा पहुंचेगी।“ (पृ. ६८)
८) “अपने क्षुद्र होने का आत्मज्ञान। सडे हुए आटे में विलबिलाने वाला कीडा होने का आत्मज्ञान | प्रेसिडेंट के फोन ने मुझे अपनी तस्वीर दिखा दी | समझौते के फंदे पर अपने-आपको पचीसो बार लटकाने मैं... दूसरों की नकाब उतारने की कोशिश में खुद नंगा हो जाने वाला मैं...मुझ पर थूको |” (पृ. ७४)
९) “मेरी चमडी अब गैंडे की तरह मोटी हो गयी है। मैं जानता हूँ कि सडे-गले मकान का मलवा गिरने वाला है। फिर भी गांखे मूंदकर अपनी रोटी खा रहा हूं।“ (पृ. ७५)
१०) “उस कमीने आदमी ने दुकानों की तरह बीस शिक्षण संस्थाएं खोल रखी हैं। साथ ही लेन-देन का व्यापार करता है।“ (पृ. ७५)
११) “अपना नपुंसक आचरण ढंकने के लिए मुझ पर आरोप लगाते हुए तुम्हें थोडी भी लज्जा नहीं आती ? मैं पूछती हूँ तुम्हारा आचार्यत्व कहाँ मर गया था ? क्या वह केवल एकलव्य का अंगूठा कटवाने या सूतपुत्र कहकर कर्ण की अवहेलना करने तक सीमित था ?” (पृ. ८४)
१२) “उस दिन भूख मेरे सिद्धांत से बड़ी हो गई थी। प्रतिशोध ने विवेक को जीता। उस दिन तुमने मुझे भडकाया। उस दिन तुमने मुझे राजकीय अन्न की दासता में धकेला।“ (पृ. ८६)
१३) मां, उस दिन तुमने आटे के घोल के बदले विष क्यों नहीं पिलाया ? मुझे समझौते की सन्तान क्यों बनाया तुमने ? पिताजी को ऋषि-परम्परा से गिराकर राजपुत्रों की दासता में क्यों धकेला तुमने ?” (पृ. ८६)
१४) “उस दासता ने मुझे सुरक्षा दी। झूठी प्रतिष्ठा दी। सुविधाओं ने मेरी धार भोंथरी कर दी। मेरे भीतर के उस आदमी को जगाया, जो बदला लेता हैं, जो अपने अहंकार को संसार से बडा मानता हैं।“ (पृ. ८७)
१५) “यदि व्यवस्था तुम्हें अपने इसारे पर भौंकने वाला कुत्ता बनाना चाहती हैं तो भोंको, कुत्ते के पिल्लों को जन्म दो। चंदू और युधिष्ठिर मत पैदा करो। राजकुमार और दुर्योधन पैदा करो।“ (पृ. १०७)
१६) “तू द्रोणाचार्य हैं। व्यवस्था और सत्ता के कीडों से पिटा हुआ द्रोणाचार्य-इतिहास की धार में लकडी की ठूंठ की तरह बहता हुआ, वर्तमान के कगार से लगा हुआ, सडा-गला द्रोणाचार्य। व्यवस्था के लाइटहाउस से अपनी दिशा मांगने वाले टूटे जहाज-सा दोणाचार्य।“ (पृ. १०७)