Saturday, 4 May 2024

एक और द्रोणाचार्य नाटक के नाट्यांश

१) “अब किस-किस से डरूं, लीला? कालेज को दुकान की तरह चलाने वाले उस प्रेसिडेंट से (विराम) अंगोठा-छाप कमेटी मेम्बरों से चुगली खाने वाले अपने सहयोगियों से (विराम) उस लिजलिजे बेहूदे प्रिंसिपल से विद्यार्थियों से? क्या पूरी उम्र डरते ही रहना होगा ?” (पृ. १६)


२) “इसीलिए तो कहता हूं नौकरी करनी है तो कान बन्द कर लो। आंखे मूंद लो। मुंह खुला रखो-बोलने के लिए नहीं, रोटी खाने के लिए।“ (पृ. १९)


३) “पूरे तीस साल। चुंगी नाके के मुहर्रिर से बढता-बढता प्रिंसिपल हो गया। लडता तो क्या बनता ? लडो मत-झुको, सोचो मत-मानो।“ (पृ. २०)


४) “जो व्यवस्था तोडी नहीं जा सकती उसमें विश्वास करके ही जिया जा सकता है।“ (पृ. ५१)


५) “एकलव्य का अंगूठा बने रहने का अर्थ समझते हो ? धनर्विधा पर उसका अधिकार हो जाएगा। धीरे-धीरे उसकी जाति का अधिकार हो जाएगा। (विराम) शक्तिशाली होने के बाद ये क्षत्रियों से स्पर्धा करेंगे और परिणाम होगा वर्णाश्रम धर्म पर संकट।“ (पृ. ५३)


६) “इतिहास तो फिर भी कल हंसेगा आप पर। जब भी प्रतिभा को जाति और व्यवस्था के नाम पर कुचला जाएगा तो लोग आपको ही याद करेंगे। इतिहास आपको कभी क्षमा नहीं करेगा।“ (पृ. ५४)


७) “उनका कहना है, ऐसे मामलों में लोगों की कल्पना-शक्ति बडी उपजाऊ होती है। बलात्कार की कोशिश बढती-बढ़ती गर्भपात तक जा पहुंचेगी।“ (पृ. ६८) 


८) “अपने क्षुद्र होने का आत्मज्ञान। सडे हुए आटे में विलबिलाने वाला कीडा होने का आत्मज्ञान | प्रेसिडेंट के फोन ने मुझे अपनी तस्वीर दिखा दी | समझौते के फंदे पर अपने-आपको पचीसो बार लटकाने मैं... दूसरों की नकाब उतारने की कोशिश में खुद नंगा हो जाने वाला मैं...मुझ पर थूको |” (पृ. ७४)


९) “मेरी चमडी अब गैंडे की तरह मोटी हो गयी है। मैं जानता हूँ कि सडे-गले मकान का मलवा गिरने वाला है। फिर भी गांखे मूंदकर अपनी रोटी खा रहा हूं।“ (पृ. ७५)


१०) “उस कमीने आदमी ने दुकानों की तरह बीस शिक्षण संस्थाएं खोल रखी हैं। साथ ही लेन-देन का व्यापार करता है।“ (पृ. ७५)


११) “अपना नपुंसक आचरण ढंकने के लिए मुझ पर आरोप लगाते हुए तुम्हें थोडी भी लज्जा नहीं आती ? मैं पूछती हूँ तुम्हारा आचार्यत्व कहाँ मर गया था ? क्या वह केवल एकलव्य का अंगूठा कटवाने या सूतपुत्र कहकर कर्ण की अवहेलना करने तक सीमित था ?” (पृ. ८४)


१२) “उस दिन भूख मेरे सिद्धांत से बड़ी हो गई थी। प्रतिशोध ने विवेक को जीता। उस दिन तुमने मुझे भडकाया। उस दिन तुमने मुझे राजकीय अन्न की दासता में धकेला।“ (पृ. ८६)


१३) मां, उस दिन तुमने आटे के घोल के बदले विष क्यों नहीं पिलाया ? मुझे समझौते की सन्तान क्यों बनाया तुमने ? पिताजी को ऋषि-परम्परा से गिराकर राजपुत्रों की दासता में क्यों धकेला तुमने ?” (पृ. ८६)


१४) “उस दासता ने मुझे सुरक्षा दी। झूठी प्रतिष्ठा दी। सुविधाओं ने मेरी धार भोंथरी कर दी। मेरे भीतर के उस आदमी को जगाया, जो बदला लेता हैं, जो अपने अहंकार को संसार से बडा मानता हैं।“ (पृ. ८७)


१५) “यदि व्यवस्था तुम्हें अपने इसारे पर भौंकने वाला कुत्ता बनाना चाहती हैं तो भोंको, कुत्ते के पिल्लों को जन्म दो। चंदू और युधिष्ठिर मत पैदा करो। राजकुमार और दुर्योधन पैदा करो।“ (पृ. १०७)


१६) “तू द्रोणाचार्य हैं। व्यवस्था और सत्ता के कीडों से पिटा हुआ द्रोणाचार्य-इतिहास की धार में लकडी की ठूंठ की तरह बहता हुआ, वर्तमान के कगार से लगा हुआ, सडा-गला द्रोणाचार्य। व्यवस्था के लाइटहाउस से अपनी दिशा मांगने वाले टूटे जहाज-सा दोणाचार्य।“ (पृ. १०७)

हिन्दी कहावतें तथा लोकोक्तियाँ

कहावत और लोकोक्ति एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। "कहावत अथवा लोकोक्ति पारिभाषिक रूप से ऐसा मुहावरेदार वाक्य होता हैं, जिसे व्यक्ति अपने कथन की पुष्टि में प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत करता है ।" कहावत एक वाक्य है जिसका प्रयोग स्वतंत्र रूप से होता है । इसका प्रयोग किसी घटना विशेष पर किया जाता है । कहावत प्रायः किसी कथा या चिर सत्य पर आधारित होती है । नीचे कुछ कहावतों के अर्थ दिए गये है ।


१. अंधे पीसे कुत्ते खायें - ठीक न्याय न होना | 


२. ऊँची दुकान फीका पकवान - केवल बाहरी आडम्बर होना ।


३. खोदा पहाड़ निकली चुहिया - अधिक परिश्रम करने पर भी लाभ थोड़ा ही मिलना ।


४. चार दिन की चांदनी, फिर अँधेरी रात - थोड़े दिन का सुख  ।


५. जिसकी लाठी उसकी भैंस - बलवान का ही अधिकार होता है ।


६. बगल में लड़का नगर में टेर - नजदीक मिलने वाली वस्तु के लिए व्यर्थ ही दूर तक परेशान होना ।


७. अधजल गगरी छलकत जाय थोड़ा धन या विद्या चाकर घमंड करना ।


८. नाच न आवै आँगन टेढ़ा - अपनी गलती का दोष किसी और पर डालना ।


९. दिया तले अंधेरा - पास रखी वस्तुओं में दोष दिखाई नहीं देते ।


१०. मुँह में राम बगल में छुरी - ऊपर से सीधा सच्चा दिखाई पड़े, किन्तु हृदय में कपट भरा हो ।


११. आप भला तो जग भला - भले के लिए सब भले होते हैं ।


१२. घर का भेदी लंका ढाए - आपस की फूट से दूसरों का भला होता है ।


१३. घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध - घर के बुद्धिमान व्यक्ति का सम्मान न करके दूसरों को सम्मान देना ।

१४. छोटे मुँह बड़ी बात - अपनी योग्यता से बढ़कर बात करना ।


१५. जल में रहकर मगर से बैर - जिसके अधीन रहे, उससे बैर रखना ठीक नहीं |


१६. बद अच्छा बदनाम बुरा - बुरा होना उतना नहीं खटकता, जितना झूठा कलंक या दोष लगना ।


१७. न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी - झगड़े की जड़ को ही नष्ट कर देना ।


१८. धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का - दोनों तरफ की साधने वाले को किसी ओर सफलता नहीं मिलती ।


१९. हंसा थे सो उड़ गये, कागा भये दिवान - किसी अच्छे व्यक्ति के स्थान पर दुर्जन का अधिकार होना |


२०. अन्धों में काना राजा - मूर्खों में थोड़ा पढ़ा-लिखा पूज्य होता है ।


२१. झूठ के पाँव नहीं होते - अपराधी में दृढ़ता नहीं होती ।


२२. दमड़ी की हँडिया गई, कुत्ते की जाति पहिचानी - जब थोड़ी वस्तु के लिए बेईमानी की जाय ।


२३. देशी मुर्गा पंजाबी बोली - मातृभाषा की उपेक्षा कर विदेशी बोली बोलना ।



२४. खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है - संगति का अधिक प्रभाव पड़ता है ।


२५. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता - एक अकेला व्यक्ति कोई बड़ा काम नहीं कर सकता ।


२६. आँखों का अन्धा नाम नैन सुख - नाम और गुण में अन्तर होना ।


२७. आम के आम गुठलियों के दाम - सब प्रकार से लाभ होना ।


३०. अधजल गगरी छलकत जाय - ओछा आदमी दिखावा अधिक करता है ।


३१. दूध का जला छाछ फूंक-फूंक कर पीता है - हानि उठाने के बाद आदमी को समझ आती है।


३२. नाम बड़े दर्शन छोटे - झूठा वश


३३. भागते भूत की लंगोटी भली - जहाँ कुछ न मिलना हो वहाँ थोड़ा लाभ ही बहुत ।


३४. आसमान से गिरा खजूर पर अटका - एक मुसीबत से छूटे तो दूसरी में फँस गये ।


३५. नौ नगद न तेरह उधार - नगद का थोड़ा अच्छा, उधार का अधिक अच्छा नहीं |


३६. सीधी उंगलियों से भी नहीं निकलता - सरलता से काम पूरा नहीं होता ।


३७. मान न मान में तेरा मेहमान - जबरदस्ती किसी से रिश्ता जोड़ना ।


३८. पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होती - सबलोग एक समान नहीं होते। 


३९. साँप मरे न लाठी टूटे - बिना हानि हुए काम हो जाना ।


४०. राम नाम जपना, पराया माल अपना - कपटपूर्ण व्यवहार करना ।


४१. सदा नाव कागज की चलती नहीं - धोखा एक ही बार दिया जा सकता है।


४२. खग जाने खग ही की भाषा - समानधर्मी लोग एक दूसरे की बात जल्दी समझ जाते हैं।


४३. आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास - भले काम के लिए जाकर बुराई में फँस जाना ।


४४. मँगनी के बैल के दाँत नहीं देखे जाते - मुफ्त मिली हुई वस्तु पर टीका टिप्पणी करना व्यर्थ है ।


४५. दूर के ढोल सुहावने - दूर से सभी चीजें अच्छी लगती ।


४६. नौ दिन चले अढ़ाई कोस - काम कम, समय अधिक लगना ।


४७. मानो तो देव नहीं तो पत्थर - विश्वास से ही तो फल मिलता है।


४८. हथेली पर सरसों नहीं जमती - कोई काम तत्काल नहीं होता ।


४९. दापा भला न भैया, सबसे बड़ा रुपैया - संसार में धन ही सबसे बड़ी वस्तु है ।


५०. नीम न मीठी होय भले सींचो गुड़ घी से - दुष्ट स्वभाव नहीं बदलता ।

Friday, 3 May 2024

ठिठुरता हुआ गणतंत्र के गद्यांश

१) "हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडिकेटवाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र के दिवस पर सूर्य को निकाल कर बताएंगे।" (पृ. १-२)


२) "रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा।" (पृ. २)


३) “स्वतंत्रता दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज़ बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र कर के चले गये। उस कपटी प्रेमी की तरह भागो, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाये। वह बेचारी भीगती बस स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है।" (पृ. २)


४) "लो, ये एक और वी. आई. पी. आ रहे हैं। अब इनका इंतज़ाम करो। नाक में दम है।" (पृ. ४)


५) "संस्कृति की हड्डी को अब कुत्ते चबाते घूम रहे है। संस्कृति की हड्डी कुत्ते का जबड़ा फोड़ कर उसके खून को उसी को स्वाद से चटवा रही है। हाँ, हम विश्व बंधुत्व भी मानते हैं, यानी अपने भाई के सिवा बाकी दुनिया भर को भाई मानते हैं।" (पृ. ८)


६) "अहा, जबलपुर पुण्यभूमि है। यहां की मिट्टी में इतिहास बिखरा पड़ा है। यहां की धूल चंदन है। मैं उसे मस्तक से लगाता हूं।" (पृ. ९)


७) "निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचनक्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती है।" (पृ. १०)


८) "अंग्रेजी भाषा का कमाल देखिए। थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज़ को खूबसूरत कह रहे हैं। जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गये। यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है। रुप देख कर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है। ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है। कहा, 'इंडिया इज़ ए ब्यूटिफुल कंट्री।' " (पृ. १२)


९) " 'नुकसान' की ज़िम्मेदार कंपनी की नहीं होगी। मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था।" (पृ. १२)


१०) "ज़्यादा झंझट में मत पड़ो। मामला सरल कर लो। सारी नैतिकता को एक छोटे से दायरे में समेट लो।" (पृ. १३)


११) "बेटा, तंत्र कोई भी हो, अपनी पीठ पर हमेशा वेसलीन चुपड़े रहो। घूंसा तुम्हारी पीठ से फिसल कर किसी सूखी पीठ पर पड़ जाएगा।" (पृ. २०)


१२) "बेटा, बेइज़्ज़ती को खोल दो तो वह इज़्ज़त हो जाती है। जूते पड़ गये हैं, इस बात को छिपाओगे तो बदनामी फैलेगी। खुद ही कहते फिरोगे, तो बदनामी करने वालों की सेवा की ज़रुरत नहीं पड़ेगी और इज़्ज़त रह जाएगी।" (पृ. २१)


१३) "हमने तुम्हें नहीं पुकारा। हमें तुम्हारे द्वारा अपना उद्धार नहीं करवाना। तुम क्यों हमारा भला करने पर उतारु हो?" (पृ. २४)


१४) "भगवान, क्या गोरक्षा आंदोलन का नेतृत्व करने पधारे है ? चुनाव आ रहा है, तो गोरक्षा होगी ही। आप तो गोरक्षा आंदोलन के जरिये पालिटिक्स में घुस ही जाएंगे।" (पृ. २५)


१५) "भगवान, अगर सुदर्शन चक्र का लाइसेंस मिल जाये तो भी किसी को मारने पर दफा ३०२ में फंस जाएंगे।" (पृ. २६)


१६) "धर्म की संस्थापना तो सांप्रदायिक दंगो से हो रही है। आप एक हड्डी का टुकड़ा उठा कर मंदिर में डाल दीजिए और हिंदु धर्म के नाम पर दंगा करवा लीजिए। धर्म का उपयोग तो अब दंगा करने के लिए ही रह गया है।" (पृ. २६)