Tuesday, 12 December 2023

घनानंद कवित की प्रश्नावली

 आलोचनात्मक प्रश्न सूचि:

(१) 

  • कविवर घनानंद के व्यक्तित्व एवं  कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दीजिए। 

  • घनानंद के जीवन और कवन को विस्तार से समझाइए ।

  • कविवर घनानंद का साहित्यिक परिचय लिखिए ।

  • "रीतिकालीन कवि घनानंद का साहित्य चिरस्मरणीय है ।" - इस कथन की चर्चा कीजिए ।

  • घनानंद का जीवन एवम् सर्जन को स्पष्ट कीजिए ।

(२) 

  • "घनानंद की कविता में प्रेम और सौंदर्य का अपूर्व चित्रण है ।" - इस कथन की घनानंद के काव्य के आधार पर समीक्षा कीजिए । 

  • धनानंद के काव्य में वर्णित 'प्रेम व्यंजना' को समझाइए ।

  • धनानंद के काव्य में निरुपित 'सौदर्यबोध' की चर्चा कीजिए ।

  • धनानंद के काव्य में वर्णित स्वच्छंद प्रेमधारा का परिचय दीजिए ।

  • "घनानंद की प्रेम भावना लौकिक प्रेम से शुरू होकर अलौकिक प्रेम की अनुभूति है ।" - इस कथन को समझाइए ।

  • धनानंद की प्रेम साधना का वर्णन कीजिए ।

  • धनानंद की प्रेमानुभूती पर प्रकाश डालिए ।

  • धनानंद के प्रेम चित्रण को विस्तृत रूप से समझाइए ।

  • "धनानंद की कविता का प्रमुख पक्ष प्रेम है ।" - इस कथन की समीक्षा करें ।

(३) 

  • "विरह घनानंद के जीवन और कवन का प्राण है ।"-इस कथन की चर्चा कीजिए ।

  • कविवर घनानंद के कव्य में चित्रित विरह को निरूपित कीजिए ।

  • घनानंद के साहित्य में व्यक्त वियोगवर्णन की आलोचना कीजिए ।

  • "वियोग घनानंद के साहित्य का प्राण है ।"- इनकी कव्य रचना के आधार पर सिद्ध करें ।

  • घनानंद हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ विरही कवि है ।" उनके काव्य सर्जन के आधार पर समीक्षा करें ।

(४) 

  • घनानंद के काव्य में निरुपित भावपक्ष एवं कलापक्ष को विस्तृत रूप से निरुपित कीजिए। 

  • घनानंद के कव्य की प्रमुख विशेषताएं लिखिए ।

  • "घनानंद हिन्दी साहित्य के एक सर्वश्रेष्ठ मुक्तककार है ।" - सपष्ट कीजिए। 

  • घनानंद के कव्य का अनुभूति पक्ष एवम् अभिव्यक्ति पक्ष स्पष्ट कीजिए ।

  • "कविवर घनानंद के साहित्य में कव्य सौंदर्य की  श्रेष्ठ अभिव्यक्ति है ।" - स्पष्ट कीजिए ।

  • "घनानंद के कव्य में भाव और कला का अद्भुत समन्वय है ।" - समीक्षा करें ।

  • घनानंद के काव्य का भावपक्ष तथा कलापक्ष संबंधी विवेचन किजिए । 

  • घनानंद की भाषा और अलंकार योजना पर प्रकाश डालिए । 

  • घनानंद के कव्य-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए ।

(५) 

  • घनानंद के काव्य में निरुपित भक्ति भावना पर प्रकाश डालिए ।

  • "घनानंद एक भक्त कवि है ।"- इस कथन की विस्तार से समीक्षा लिखिए ।

  • घनानंद की भक्त लौकिक जीवन से शुरू होकर अलौकिक सौंदर्य आप्लावित है । - उनके साहित्य के आधार पर समझाइए ।

  • घनानंद की भक्ति भावना पर स्पष्ट कीजिए ।

  • घनानंद की भक्ति साधना पर प्रकाश डालिए ।

  • घनानंद की भगवद्भक्ति को विस्तार से स्पष्ट कीजिए ।

(६) 

  • हिंदी साहित्य में घनानंद का स्थान निर्धारित कीजिए ।

  • हिंदी  काव्य की स्वच्छंद प्रेमधारा में घनानंद का स्थान स्पष्ट करें ।

  • हिंदी के प्रेम कवियों में घनानंद पितामह है । - समीक्षा लिखिए ।


(७) टिप्पणी (लघुउत्तरी प्रश्न सूचि):

  1. घनानंद की प्रेम भावना

  2. घनानंद की प्रेमनुभूति

  3. घनानंद की विरह वेदना

  4. घनानंद के काव्य की विशेषताएं 

  5. घनानंद के काव्य का कलापक्ष 

  6. घनानंद की भाषा 

  7. घनानंद के काव्य में अलंकार-योजना 

  8. घनानंद के काव्य का संयोग-पक्ष 

  9. घनानंद के काव्य में भक्ति भावना 

  10. घनानंद के काव्य में विरह भावना

  11. घनानंद के काव्य में प्रेम का स्वरूप 

  12. घनानंद का जीवन वृत 

  13. घनानंद की रचनाएँ

  14. घनानंद की भगवद्भक्ति 

  15. घनानंद के काव्य में प्रकृति चित्रण

  16. घनानंद का लौकिक प्रेम 

  17. घनानंद काव्य में रस निरूपण 

  18. घनानंद कविता में सौंदर्य चित्रण 

  19. स्वच्छंद प्रेम के कवि

  20. घनानंद का जीवन परिचय

  21. घनानंद का साहित्य

  22. घनानंद का निश्छल प्रेम

  23. घनानंद काव्य की प्रेम जन्य निष्ठुरता

  24. घनानंद का एकांगी प्रेम ( प्रेमगत विषमता)

  25. घनानंद की कविता में संदेश प्रेषणीयता

  26. घानानंद की कविता में सात्विकता और आध्यात्मिकता

Sunday, 8 October 2023

समानार्थी शब्द

 

अर्क - सूर्य, अग्नि, ताँबा, विष्णु, इन्द्र

अंबुज - कमल, बैंत, वज्र, ब्रह्मा, शंख


अंभोज - कमल, सारस, चन्द्रमा, कपूर, शंख 


अक्ष - चौसर, छकड़ा, आँख, साँप, गरुड़ 


अज - अजन्मा, शिव, कामदेव, विष्णु, ब्रह्मा 


अनंत - असीम, अविनाशी, शेषनाग, लक्ष्मण, बलराम 


अनंता - पृथ्वी, पारवती, दूब, पीपर, धरा


अन्न - अनाज, भात, सूर्य, पृथ्वी, प्राण 


अमृत - सुधा, जल, घी, अन्न, धन 


अलि - भौंरा, कोवल, कौआ, कुत्ता, मंदिरा


अहि - साँप, राहु, पृथ्वी सूर्य ख


अर्थ- मतलब, धन, कारण, लाभ, उपयोग 


इन्द्र - श्रेष्ठ, बड़ा, देवताओं का राजा, ऐश्वर्यवान 


इडा- पृथ्वी, गाय, वाणी, स्वर्ग, दुर्गा 


गुरु - बड़ा भारी, आचार्य, शिव, विष्णु


चन्द्र - चन्द्रमा, कपूर, जल, सोना, मोर की पूँछ की चंद्रिका 


चरण - पैर, बड़ों का संग, मूल, आचार, गोत्र 


जलज - कमल, मोती, मछली, चन्द्रमा, सिवार 


ठाकुर - देवता, ईश्वर, सरदार, जमींदार, मालिक 


तम - राहु, सूअर, पाप, क्रोध, अज्ञान 


तात - पिता, भाई, मित्र, गुरु, पुज्य व्यक्ति 


तत्व -  मूल, यथार्थ, सार, ब्रहा, पंचभूत 


तेज - चमक, पराक्रम, तत्व, सोना, गर्मी 


थान - ठिकांना निवासस्थान, किसी देवी देवता का स्थान 


दल - पत्ता, सेना, समूह, मंडली, फूल की पंखुड़ी 


द्विज - चन्द्रमा, दाँत, पक्षी, ब्राह्मण, जिस का जन्म दो बार हुआ हो


नाक - नासिक, रेंट, प्रतिष्ठा, स्वर्ग, शोभा की वस्तु । -


नग - पर्वत, पेड़, सूर्य, सीप, नगीना


नाग - सर्प, हाथी, सीसा, पान, पर्वत 


पति - स्वामी, दूल्हा, ईश्वर, प्रतिष्ठा 


पतंग - पक्षी, पतिगा, सूर्य, नौका, वृक्ष 


पय - दूध, जल, अन्न, अमृत 


फल - लाभ, नतीजा, गुण, अर्थ, मोक्ष 


मधु- शहद, शराब, पानी, शिव, वसंत ऋतु


मुद्रा - मुहर, रुपया, छाप, अंगूठी, आकृति 


मित्र - सूर्य, प्रिय, सहयोग, आयों के एक प्राचीन देवता 


योग - मिलना, उपाय, ध्यान, संगति, प्रेम


रक्त - खून, लाल, केसर, कमल, सिंदूर 


लंगर - लोहे का काँटा, जंजीर, लंगोट, भारी, कच्ची सिलाई 


लाल - बेटा, श्रीकृष्ण, लाड़-प्यार, चाह, रक्तवर्ण 


वर - पति, प्रिय, श्रेष्ठ, किसी पूज्य से माँगा हुआ मनोरथ 


विधि - प्रणाली, व्यवस्था, आचार, व्यवहार, ब्रह्मा 


सार - जल, मलाई, फल, धन, बल, अमृत 


सारंग - कोयल, बाज, सूर्य, सिंह, मोर, तालाब, चन्द्रमा


सोम - एक देवता, चन्द्रमा, सोमवार, यम, वायु 


शिव - मंगल, जल, पारा, मोक्ष, वेद, शंकर 


शूर - वीर, योद्धा, सूर्य सिंह, विष्णु


हंस - सूर्य, विष्णु, घोड़ा, पंक्ति, जीवात्मा 


हरि - हरा, भूरा, इन्द्र, सर्प, वायु, शिव 


हार - पराजय, थकावट, हानि, विरह, माला 

विरुद्धार्थी शब्द

 
अनुरक्ति x विरक्ति

अतिवृष्टि x अनावृष्टि

अभयस्त x अनभ्यस्त

अग्रज x अनुज

आस्तिक x नास्तिक

आयात x निर्यात

आधुनिक x प्राचीन

अवनति x अन्नति

अपेक्षा x उपेक्षा

आवृत x अनावृत

आरोह अवरोह

आग्रह x अनाग्रह

आय x व्यय

इहलोक x परलोक

उत्तीर्ण x अनुत्तीर्ण

उत्थान x पतन

उपयुक्त अनुपयुक्त

उत्तम x अधम

उत्तरायन x दक्षिणायन

ऐक्य x अनैक्य

कनिष्ठ x ज्येष्ठ

कीर्ति x अपकीर्ति

क्रय x विक्रय

खण्डन x मण्डन

गोचर x अगोचर

घात x प्रतिघात

चर x अचर

ज्वार x भाटा

जंगम x स्थावर

तामसी x सात्विकी

तिमिर x प्रकाश

दुराचारी x सदाचारी

नैसर्गिक x कृत्रिम 

निरर्थक x सार्थक 

निरक्षर x साक्षर

पाप x पुण्य

पक्ष x विपक्ष

पाश्चात्य x पौर्वात्य

प्राचीन x अर्वाचीन

परकीय x स्वकीय

परतंत्र x स्वतंत्र

पूर्ववर्ती x परवर्ती

प्रलय x सृष्टि

पुरस्कार x तिरस्कार

मिलन x वियोग 

भौतिक x अभौतिक

योग्य X अयोग्य 

वैतनिक x अवैतनिक

यश x अपयश

लौकिक x अलौकिक


Wednesday, 4 October 2023

शब्द समूह के लिए एक शब्द

  1. जिसका पार न हो-अपार

  2. जो कभी न मरे-अमर

  3. जिसका मूल्यन आँका जा सके-अमूल्य

  4. जो बिना वेतन के कार्य करे-अवैतनिक

  5. पहाड़ के ऊपर की समभूमि-अधित्यका

  6. जिसके आने की तिथि न मालूम हो-अतिथि

  7. जिसका वर्णन न किया जाय-अवर्णनीय

  8. अभिनय करने वाली स्त्री-अभिनेत्री

  9. जिसके पार देखा न जा सके-अपारदर्शी

  10. जो ईश्वर की सत्ता को मानता हो-आस्तिक

  11. जिस जमीन पर कुछ न उगता हो-ऊसर

  12. गुरु के समीप रहने वाला विद्यार्थी-अंतेवासी

  13. बुरी संगत में रहने वाला- कुसंगी

  14. नाव चलाने वाला-केवट, नाविक

  15. वह स्त्री जो कविता लिखती है-कवयित्री

  16. रात और संध्या के बीच का समय- गोधूलि

  17. जिसके हाथों में चक्र है-चक्रपाणि

  18. ऋषियों का निवास स्थान- तपोवन

  19. जिसका अंबर दिशाओं के सिवा कुछ न हो-दिगंबर

  20. स्त्री पुरुष का जोड़ा-दम्पति

  21. वह जो दूर की बात देख और समझ सके-दूरदर्शी

  22. जो नया आया हुआ हो-नवागन्तुक

  23. जिसके हृदय में ममता नहीं है-निर्मम

  24. जिस को भय न हो-निर्भय

  25. जिस स्त्री के पुत्र न पैदा हो- निपूती

  26. जिसके पार देखा जा सके- पारदर्शी

  27. जो आँखों के सामने न हो-परोक्ष

  28. पश्चिम के देशों से सम्बन्धित-पाश्चात्य

  29. किसी लिखे हुए की नकल- प्रतिलिपि

  30. जो पहरा देता है- प्रहरी

  31. नरक की नदी- वैतरणी

  32. जिसने बहुत कुछ देखा हो-बहुदर्शी

  33. मीठी बात कहने वाला- मृदुभाषी

  34. युद्ध करने की इच्छा-युयुत्सा

  35. जो युद्ध में स्थिर रहता है-युधिष्ठिर

  36. जो सारे विश्व में व्याप्त हो- विश्वव्यापी

  37. जिसके मन में विराग उत्पन्न हुआ हो- वैरागी

  38. ऐसा पुरुष जिसका विवाह हो रहा हो-वर

  39. दो बार जन्म लेने वाला- द्विज

  40. जिसने विश्वास रखने पर भी धोखा दिया हो-विश्वासघाती

  41. विष्णु की उपासना करने वाला-वैष्णव

  42. जिस पुरुष की स्त्री मर गई हो-विधुर

  43. जो शत्रु की हत्या करता है- शत्रुघ्न

  44. जो हमेशा रहने वाला है-शाश्वत

  45. वह स्त्री जिसका पति जीवित हो-सौभाग्यवती, सधवा

  46. वह जो किसी प्रकार का संवाद देता हो- संवाददाता

  47. जो आग्रह सत्य हो- सत्याग्रह

  48. जिसकी ग्रीवा सुंदर हो-सुग्रीव

  49. अपना मतलब पूरा करने वाला-मतलबी

  50. सत्य बोलने वाला मतलबी-सत्यवादी

  51. जो पुस्तकों की समीक्षा करता ह- समीक्षक

  52. अपने ही पति में अनुराग रखने वाली स्त्री-स्वकीया

  53. साथ अध्ययन करने वाला-सहपाठी

  54. जो दूसरों की हत्या करता है-हत्यारा

  55. जो क्षण में नष्ट होने वाला है-क्षणभंगुर


Saturday, 23 September 2023

हिन्दी बोलियों के लोकगीत

https://kanubhava.blogspot.com/

वर्तमान समय में मनुष्य दिन-ब-दिन विकास की गाथा सुनाता ही जा रहा है । आज के  समय में यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि मानव विकसित सभ्यता ने आसमानी बुलंदियों को छुआ है । जिसके चलते उनके पास मनोरंजन एवं ज्ञान के अनेक साधन सामने आते-जाते रहते हैं । उनसे मनुष्य अपनी जिज्ञासा तृप्ति करने लगा, फिरभी इन्सानी हृदय और मन को संतृप्त करने वाले साधनों में साहित्य साधन बहुत ही मूल्यवान साधन सिद्ध हुआ है । साहित्य के मूलतः दो रूप पाये जाते हैं-एक है, लोकसाहित्य और दूसरा शिष्ट साहित्य । लोकसाहित्य आज के उत्तर-आधुनिक समय में भी अपना स्थान लोगों के बीच कायम रखता हैं । लोकसाहित्य मानव समाज, सभ्यता एवं संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है । जिसको मानव से कभी अलग नहीं किया जा सकता । लोकसाहित्य की प्रमुख विद्याओं में लोककथा, लोकवार्ता, लोकसंस्कृति, कहावतें, मुहावरें, पहेलियाँ, लोकगीत, लोकनाट्य आदि पाये जाते हैं । उसमें लोकगीत एक महत्त्वपूर्ण विद्या है । लोकगीत में मानव जीवन का साफ-सुथरा और सजीव प्रतिबिंब झलकता है । डॉ. सत्येन्द्र अपनी पुस्तक 'लोकसाहित्य विज्ञान’ में लिखते हैं कि “संभवतः आदिमानव ने वर्ण का प्रथम दर्शन 'गीत' के रूप में ही किया था |”१ भारतीय लोकजीवन लोकगीतों की धून एवं लय से धबकता दृष्टिगत होता है । लोकगीत लोकसंस्कृति का पर्याय और समाज के संस्कारों का दर्पण होते हैं । समाज व संस्कृति विशेष का अभ्यास लोकगीतों के जरिए भी संभव हो सकता है ।

लोकगीत को प्रकृति प्रदत्त विनय स्वर, ताल तथा शब्द का विकास माना जाता है । समसामयिक परिवेश में अंग्रेजी और हिन्दी फिल्मी गीतों की तीखी-त्वरित धून के आशिक ज्यादा मिलते हैं | फिर भी शिष्ट गीतों के सामने लोकगीत की रोशनी धून्धली नहीं पड़ी । वे आज भी लोकमानस एवं लोकहृदय पर राज करते हैं । हिन्दी भाषा की विभिन्न बोलियों के पास जीवन के प्रत्येक अवसर की कलात्मक अभिव्यक्ति की समृद्ध विरासत मिलती हैं । लोकगीत भारत वर्ष के प्रदेश विशेष के लोकजीवन एवं लोकसंस्कृति का हू-ब-हू दर्शन करवाते हैं । इतना ही नहीं, कुछ लोकगीत आधुनिक विज्ञान के प्रमाण को प्रमाणित करते है । यह लोक मानस की दीर्घ दृष्टि का परिणाम कह सकते हैं । हिन्दी की विभिन्न बोलियों के लोकगीत को स्वर, लय, ताल और शब्द को भारतभूमि की विशेष भावभूमि का संगम स्थान कह सकते है ।

आज की हिन्दी खड़ीबोली का ही मानक रूप है । इसकी बोलचाल की भाषा को ‘हिन्दुस्तानी' भी कहा जाता है । इनको 'कौरवी' के रूप में भी पहचाना जाता है । कौरवी में मुख्य रूप से राहुल सांकृत्यायन ने कुरु प्रदेश के लोकगीतों और कहानियों को ‘आदि हिन्दी की कहानियाँ और गीत' नाम से प्रकाशित किया है । यह माना जाता है कि “इस पुस्तक में संग्रहीत गीत और कहानियाँ राहुलजी को मेरठ जिले के किसी बुढ़िया से प्राप्त हुई थी । इस पुस्तक को उन्होंने गीतों का आगार उसी बुढ़िया को समर्पित किया हैं ।“२ खड़ीबोली के लोकगीत मेरठ के आसपास के लोकजीवन को स्पष्ट करते हैं । इनमें प्राचीन काल से गाये जाने वाले 'चांचर' या चर्चा के गीत, पनघट के गीत, खेतों के गीत, संस्कार के गीत आदि बहुत ही प्रचलित है । लोकगीत की भाषा लोक के भावनात्मक आवेग को तीव्रता के साथ प्रस्तुत करने वाली होती है । इनके लोकगीतों को हम कौरवी के लोकजीवन की अनुभूतियों का सामूहिक प्रकटीकरण कह सकते हैं । गीतों में होली, सावन, जन्म आदि का सुंदर वर्णन मिलता है और कन्या जन्म के उत्सव को गीत की निम्न पंक्तियों में स्त्री-पुरुष के परस्पर वार्तालाप के समय समाज में कन्या जन्म की उपेक्षित काली दृष्टि सामने आती है-

“गूंद लारी मलनियाँ हार,

जच्चा मेरी कामनियाँ...

राजा रानी दो जने री आपस में बद रहे होड

जो गोरी तुम घीय जनोगी, महलों से करदूँ बाहर

जच्चा मेरी कामनियाँ.....

जो गोरी तुम पूत जनोगी, सब कुछ ले लो इनाम

जच्चा मेरी कामनियाँ |”३

गीत की पंक्तियों में नायक के द्वारा नायिका को बताया गया है कि तुम बालिका को जन्म प्रदान करोगी तो महलों से बाहर कर दिये जायेगी, किन्तु तुमने पुत्र को जन्म दिया तो मनचाहा इनाम मिलेगा | यहाँ रुढिवादी समाज की पुत्र लालचा दिखाई पड़ती है। इस प्रकार कौरवी लोकगीत कुरु प्रदेश की पहचान करवा के हृदय को भर देता है । जिसमें लोक जीवन के सुख-दुःख की सामूहिक अभिव्यक्ति मिलती है ।

ब्रजबोली का लोक-साहित्य समृद्ध है । इसमें भी लोकगीत विशेष रूप में मिलते हैं । यह कह सकते है कि कृष्णभूमि हो और लोकगीत न हो । ये संभव ही नहीं है, ब्रज गीत में सावन के गीत विशेष लोकप्रिय है । कृष्ण और गोपी से जुड़े गीत ज्यादा सुंदर एवं मनभावन है । ये गीत रीति-रिवाज, विवाह, संस्कार, जन्म, कर्म आदि के माध्यम से ब्रजभूमि के घर-घर तक पहूँचा कर आते हैं । व्रजमंडल के गीत वहाँ के परंपरित जनमानस के इतिहास को प्रतिविम्बित करते हैं । ब्रज के एक बधाई गीत में पुत्र कृष्ण और माँ यशोदा का वर्णन दृष्टव्य है ।

“भए देवकी के लाल जसोदा जच्चा बनी, 

सारे गोकुल में बजन बधाई लगी ।“४

ब्रज को कुमारियों के द्वारा साँझी कला के समय गाये जाने वाले गीत में मधुर स्वर लहरी का आनंद मिलता हैं -

"साँझौ मैना रो का आढ़ेगी, का पहरैगी? 

काई को सीस गुंधावैगी?

मैं तो साल ओढुंगी मिसरु पहिरुँगी,

मोतिन की मांग भराऊंगी...”5

बुन्देली बोली बुन्देला राजपूतों के क्षेत्र बुन्देल खण्ड की बोली है । बुंदेली बोली के लोक गीतों का संग्रह करने का कार्य बहुत सुन्दर ढंग से हुआ । बनारसीदास चतुर्वेदी, मदनमोहन मालवीय एवं पुरुषोत्तमलाल श्रीवास्तव ने बुंदेली लोकगीत तथा लोक-साहित्य को संरक्षित करने की दिशा में उत्साह वर्धक कार्य किया है । बुंदेली के सबसे प्रसिद्ध गीत 'ईसुरी फाग' को माना जाता है । बुंदेली के गीत भाव, विचार और कल्पना के अलावा लोकानुभूति के लोकभाव, लोकविवेक और लोककल्पना का सामजस्य है ।

हरियाणवी को बांगरू और जाट भी कहते है । हरियाणवी विशेषत: फारसी लिपि में लिखी जाती है । हरियाणवी गीत अपनी अनोखी विशेषताओं को लेकर हरियाणा के आसपास एवं भारतवर्ष के कई स्थानों पर लोक मुख पर खेलते रहते है । उसका प्रस्तार एवं विस्तार इतना अधिक है कि जीवन का कोई भाव, व्यापार तथा प्रश्न ऐसा नहीं जो दरियाणवी लोकगीतों के बंधन में न आते हो । हरियाणा में पुत्र की उत्पत्ति पर प्रथम दस-बारह दिन आनंद और उत्साह के दिन होते है. गाना-बजाना और आनंद बधाई होती है । पुत्री जन्म पर एक ठेकरा फोड दिया जाता है। हरियाणा की लड़की ने इसी बात को एक गीत में व्यक्त किया है-

"म्हारे जनम में बाजै ठेकरे भाई के में थाली ।

बुट्ढा की रौवे बुढिया बी रौबै रोए हालो पाली ।“६

कनौजी पश्चिमी हिन्दी परिवार की बोली है । जिसमें जीवन से लेकर मृत्यु पर्यन्त के लोकगीत मिलते है। यह गीत वहाँ के प्रदेश विशेष के जन जीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

राजस्थान प्रांत लोकसाहित्य एवं लोककला के लिए अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। राजस्थानी की जयपुरी, मारवाडी, मालवी आदि बोलियों में लोकगीत के अखुट भंडार भरे पड़े है । राजस्थानी बोलियों में शौर्यपूर्ण लोकगीतों की संख्या महत्तम मिलती है । जिसमें नरोत्तमदास स्वामी के द्वारा संपादित 'राजस्थान रा दूढा के दो भाग, सूर्यकरण पारीक तथा ठाकुर रामसिंह द्वारा 'राजस्थान के लोगगीत' एवम् सूर्यकरण पारीक ने 'राजस्थानी लोकगीत' नामक पुस्तकों में राजस्थानी लोकगीत की विराट विरासत को संचित की गई है । जो सदियों तक लोकगीत के रसिकों के रस को संतृप्त करने में समर्थ है । आल्हा-खण्ड वीर रस का सर्वश्रेष्ठ काव्य कहा जाता है । इनकी प्रत्येक पंक्तियों में वीर रस की शक्ति के फव्वार फूटते हैं-

"दोनों फौजन के उन्तर में रहि गयो तीन पैग मैदान। 

खटखट तेगा बाजन लागो, जुझन लगे अनेकन श्वासा”७

राजस्थानी वर्ग की बोली में मारवाडी बोली के गीतों की सशक्त परपरा पायी जाती है । मारवाडी लोकगीतों की पूजी को पाठक के सामने रखने के लिए खेताराम माली, मदन वैश्य, निहालचन्द्र शर्मा, ताराचन्द ओझा ने क्रमानुसार ‘मारवाडी गीत संग्रह', 'मारवाडी गीत माला', 'मारवाडी गीत' एवम् 'मारवाडी स्त्री गीत संग्रह' को प्रकाशित करने के सफल प्रयास किये है । मारवाडी प्राचीन राजस्थान मारवाड़ प्रान्त की बोली है । भारत किसान प्रधान देश है । भारतीय जीवन के रक्त में किसानी है । इसलिए किसान के जीवन का सीधा-सादा और सरल चित्रण लोकगीतों में मिलता है । मारवाड़ी का यह लोक गीत दृष्टव्य है -

“उठे ही पीरो होय उठे ही सामरो 

अथूर्णो होई न खेत चवे न आसरो । 

नाढा खेत नजीक जडे खोलणा। 

इतना दे करतार फेर नहीं बोलाया।“८...

किसान केवल यह चाहता है कि उसके पिता का घर और उसकी ससुराल एक ही गाँव में हो, खेत पश्चिम में हो, झोपडी वर्षा के दिनों में टपकने वाली न हो । तालाब खेत के पास ही हो, जिससे बैलों को पानी पीने के लिए दूर न जाना पडे। भगवान इतना दे दे तो उससे और कुछ नहीं माँगना ।

मालवी बोली प्राचीन मालव एवं वर्तमान उज्जैन की बोली है । यह बुन्देली और मारवाडी से बहुत प्रभावित है । इस बोली के प्रारंभ में लोकगीतों का संकलन उपलब्ध नहीं था, किन्तु श्याम परमार ने मालवी लोकगीत' एवं 'मालवी लोकगीतों का गवेषणात्मक अध्ययन' तैयार करके मालवी गीतों की अभावभूर्ति कर दी । ऐसा कह सकते है ।

हिन्दी की बिहारी वर्ग की बोलियों में मराठी, मैथिली और भोजपुरी है | भोजपुरी को 'पूरबी' भी कहते हैं । भोजपुर की बोली भोजपुरी कहलाई गयी । भोजपुरी के पास लोक-साहित्य और शिष्ट साहित्य की मूल्यवान विरासत है । भोजपुरी लोकगीत अपनी विशेषताओं के साथ गाये जाते है । इन गीत के पीछे कोई न कोई राम कहानी अवश्य जुडी मिलती है । भोजपुरी लोकगीत की लगभग पंद्रह से अधिक श्रेणी मिलती है । भोजपुरी लोकगीत की सामग्री पीछले कई वर्षों से बिहार से निकलने वाली भोजपुरी' पत्रिका द्वारा प्रकाशित की जाती है । वहाँ के जीवन में जब कोई पुरुष की मृत्यु हो जाती है तब घर की स्त्रीयों में विशेष पुरुष की पत्नी अपने पति के विभिन्न गुणों का उल्लेख करती हुई लय के साथ विलाप करती है ।

"के मोरा नइया के पार लगाइ है ए रामा।

अब करुसे दिनवा काटवि ए रामा ।

आताना आरामवा हमरा के दिहले।

थयजन दुरदमवा होई ए रामा |”९

मगही मगध प्रान्त की बोली है | इनका साहित्य कैथी एवं नागरी लिपि में लिखा जाता है मगही बोली के लोकगीतो पर अनेक विद्वानों ने संकलन तैयार किया परंतु मराठी लोकगीतों का एक संकलन राष्ट्रभाषा परिषद पटना, बिहार से प्रकाशित है। वह प्रमाणभूत सामग्री का दस्तावेज है ।

मैथिली लोकगीतो की कुछ कमी नहीं है । इस बोली के लोकगीत बड़े ही मधुर और सरस होते हैं । मैथली गोतों के संग्रह कर्ता में श्रीराम इकबालसिंह 'राकेश' का 'मैथिली लोकगीत' को समुद्र जल से एक बूंद के बराबर कह सकते है । मैथिली को 'तिरहुतिया' तथा 'देसिल बयना' भी कहते है । मैथिली के एक प्रेम गीत की बात करे तो चैता प्रेम गीत होता है । इस चैता या चैतावर में बसंत की मस्ती एवं रंगीन भावनाओं का अनोखा सौंदर्य वर्णित होता है । मैथिली विरहिणी महिला अपने मूर्ख पति को कहती है कि चैत यानि वसंत बीत जायेगा तब मेरा मूर्ख पति घर आकर क्या करेगा ?.

“चैत बीति जयतइ हो राम ।

तब पिया की करे अयतई ।

आरे अमुआ मोजर गेल

फरि गेल टिकोरवा, 

ढाले पाते भेल मतलबवा हो राम |

चैत बीति जयतइ हो राम ।

तब पिया की कर सयतई।“१०

हिन्दी भाषा की पूर्वी बोलियों में अवधी, बधेली एवं छत्तीसगढ़ी है और पहाड़ी क्षेत्रों की बोली गढ़वाली तथा कुमाऊँनी का लोकगीत साहित्य समृद्ध है । अवधी अवध प्रान्त की बोली है । इसे 'कोसली' या 'बैसवाडी' नाम से भी जाना जाता है । पहले के समय में अवधी के लोकगीत प्रकाश में नहीं आये थे, किन्तु पीछले कई समय से अवधी लोकगीत को प्रकाश में लाने का प्रशंसनीय कार्य हो रहा है । रामनरेश त्रिपाठी ने 'कविता कौमुदी' भाग पाँच में कुछ अवधी लोकगीतों का संग्रह किया है । बाद में त्रिलोकीनारायण दीक्षित ने अवधी के प्राचीन एवं आधुनिक लोक कवियों का संक्षेप परिचय करवाया है । अवधी में पुत्र जन्म के अवसर पर गाये जाने वाले गीत को सोहर या मंगल कहते है | ऐसे अवधी के मंगल गीत से रू-ब-रू होते है

“गावहू ए सखि, गावहु, गाइ के सुनावहु हो। 

सब सखि मिलि जुलि गावहू, आजु मंगल गीत हो।“ ११

लोकगीत लोकसंस्कृति का पर्याय एवं समाज के संस्कारगत जीवन का दर्पण होते है । छत्तीसगढ़ राज्य को बोली छत्तीसगढ़ी है । यह आदिवासी बहुल क्षेत्र है । इसलिए इनके पास लोकसाहित्य व लोकगीत की अत्यंत विपुल मात्रा में मिलाता है । डॉ.श्यामाचरण दुबे ने 'छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का परिचय' पुस्तक में इस क्षेत्र के गीतों का संग्रह तैयार किया है तथा पंडित रामनारायण उपाध्याय ने निमाडी ग्राम-गीत' को संकलित किया है ।

लोकगीत की भाषा प्रदेश विशेष की सहज-सरल जन भाषा होती है । लोकगीत या लोककाव्य की आत्मा उसकी सरलता, सहजता और सरसता में होती है । लोकगीतों में अलंकार का प्रयोग अनायास अवश्य देखने को मिलता है । वे स्वतः आ जाते हैं । उपमा, श्लेष, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का गीत में आधिपत्य रहता है । उपमा का एक उदाहरण दृष्टव्य है | जैसे,

“पहिले बहिर सम

फिर भइले टिकोरा । 

सहयाँती के हाथ लागत,

होई गइले सिन्धोरा ।“ १२


लोकगीतों में रस का वर्णन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, क्योंकि ये गीत जनता के रस रंग में डूबे हुए होते है | रस को गीत की आत्मा मान सकते है । संयोग-वियोग श्रृंगार, वीर, वात्सल्य, शांत, हास्य, करुण आदि रस का परिपाक गीत को सरस बनाते हैं ।

लोकगीत जंगल के फूल की तरह स्वतंत्र वातावरण में उत्पन्न होते है और उसी वातवरण में इनका विकास होता है । लोकगीतों के संबंध में पं.रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है कि “इसमें छन्द नहीं, केवल लय है।"१३ लोकगीत के लिए कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लोकगीतों की साँस अगर किसी को कह सकते है तो वह लय है । लोकगीत प्रायः तुकान्त होते है; फिर भी इनमें तुक का पालन कठोरता से नहीं किया जाता । स्वर, व्यंजन, पद को पंक्ति में सम या विषम रखकर तुक में लोकगीत ढाले जाते है ।

गीतों का वास्तविक आनंद सस्वर लय पूर्वक गाने में होता है । हस्व और दीर्घ स्वर को पारस्परिक अपने लय के अनुसार बदले जाते है । गीत की पंक्तियों में अक्षरों की कमी को नये शब्द को जोड़कर पूरी की जाती है । गीतों का लयपूर्वक गायन गीतों में जान डाल देता है । शुष्क से शुष्क गीत को भी लय सरस, मधुर और रसात्मक बना देता है ।

अतः हिन्दी की विभिन्न बोलियों में लोकगीत की सुन्दर सविस्तृत परंपरा मिलती है। जो जनजीवन और जनसंस्कृति के वाहक मिलते है । यह कह सकते है कि हिन्दी की बोलियों के लोकगीत से भारत वर्ष के लोकदर्शन हो सकते है । 


संदर्भ सूचि :

१. डॉ. सत्येन्द्र, 'लोकसाहित्य विज्ञान', पृ. ३१४

२. डॉ. कृष्णादेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. २२ 

३. डॉ. सत्या गुप्त, ‘खडीबोली का लोकसाहित्य’, पृ. ५३

४. डॉ. जयश्री शुक्ला, 'लोकसाहित्य की प्रासंगिकता', पृ. ३७० 

५. डॉ. रामनिवास शर्मा, 'लोकसाहित्य और संस्कृति,' पृ. ४५

६. दीनदयालु गुप्त, 'हरियाना प्रदेश का लोकसाहित्य, पृ. १२७

७. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. २११

८. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. २४१

९. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, लोकसाहित्य की भूमिका', पू. ६१ 

१०. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, लोकसाहित्य की भूमिका’, पृ. ७०

११. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पू. ४२ 

१२. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. १९४

१३. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. २१३