१. प्रस्तावना :-
वृंदावन लाल वर्मा जी एक ऐतिहासिक उपन्यासकार है । सामाजिक उपन्यास लेखक की अपेक्षा ऐतिहासिक उपन्यासकार को उपन्यास लिखने में अधिक सतर्क रहना पड़ता है । कारण बड़ा ही स्पष्ट है । सामाजिक उपन्यासकार जिस प्रकार से भी चाहे, घटनाओं को तोड़-मरोड़ सकता है; किन्तु ऐतिहासिक उपन्यासकार ऐसा नहीं कर सकता-उसे इतिहास के मूलभूत तथ्यों की रक्षा करनी पड़ती है, वह इतिहास का गला नहीं घोंट सकता । साथ ही उसे उपन्यास के कथानक को कल्पना के इन्द्रधनुषी वर्गों में भी रंगना पड़ता है, अन्यथा कोई भी सहृदय पाठक नीरस इतिहास के साथ माथापच्ची नहीं करना चाहेगा । कहने का तात्पर्य यह कि ऐतिहासिक उपन्यासकार को इतिहास और कल्पना में उचित समन्वय स्थापित करने के लिए अथक परिश्रम करना पड़ता है । इतिहास और कल्पना के उचित समन्वय में ही ऐतिहासिक कोटि का उपन्यास सुपाठ्य बन सकता है; अन्यथा कोई भी पाठक उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखेगा । देखेगा भी तो कुछ देर बाद उठाकर फेंक देगा ।
इतिहास एवं कल्पना की सामंजस्य स्थापन में बाबु वृन्दावनलाल को अत्यंत सफलता मिली है । इस दृष्टि से उनके लगभग सभी उपन्यास सफल हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि वे इतिहास की जिस घटना पर लेखनी उठाते हैं, सर्वप्रथम उसकी पृष्ठभूमि का सम्यक् अवलोकन करते हैं । कवियों जैसी कल्पना उनके पास है ही । अपनी इसी कल्पना के योग से वे इतिहास की नीरस पृष्ठभूमि में रस की सरिता बहाने लगते हैं । उनका 'मृगनयनी' उपन्यास तो इस दिशा में एक अद्वितीय उदाहरण ही प्रस्तुत करता है । कल्पना और इतिहास के सुन्दर समन्वय के कारण ही यह एक सफल ऐतिहामिक रोमांस तो कहलाता ही है, उनकी कीर्ति का अमर मानदण्ड भी माना जाता है ।
२. इतिहास और कल्पना समन्वय :-
(अ) 'मृगनयनी' उपन्यास में इतिहास का चित्रण
'मृगनयनी' में उपस्थित लगभग सभी प्रधान पात्र ऐतिहासिक हैं । वर्मा जी ने मानसिंह, मृगनयनी, निहालसिंह, राजसिंह, अटल, लाखी, गयासुद्दीन, बघर्रा, बोधन विजयजंगम, बैजू, सिकन्दर आादि सभी पात्रों का चयन इतिहास से किया है ।
' मृगनयनी ' की राजनीतिक पृष्ठभूमि का परिचय देते हुए वर्मा जी ने लिखा है- "मानसिंह तोमर १४८६ से १५१६ तक ग्वालियर का राजा रहा ।" फरिस्ता नामक इतिहास लेखक ने मानसिंह को वीर और योग्य शासक बतलाते है । अंग्रेज इतिहास लेखकों ने मानसिंह के राज्यकाल को तोमर- शासन का स्वर्णयुग कहा है । पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त और सोलहवी शताब्दी के प्रारम्भ को राजनैतिक और आर्थिक दृष्टि से भारतीय इतिहास का कराल, कठोर और काला युग कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । उत्तर में सिकन्दर लोदी और उसके सहयोगियों के परस्पर युद्ध तथा दोनों द्वारा घोर जनपीड़न, राजस्थान में राणा कुम्भा का अपने बेटे के ही हाथ से विष द्वारा वध और उसके द्वारा वहाँ की अराजकता, गुजरात में महमूद बघर्रा के अगणित, असन्तुलित एवं जनता को भूखा मारकर केवल अपना भोजन, मात्र उसी की रक्षा की चिन्ता, उस पर वासनात्मकता और रक्तपात, मालवा में गयासुद्दीन खिलजी और उसके उत्तराधिकारी नसीरुद्दीन की प्रत्याचार-प्रियता और अय्याशी, दक्षिण में वहमनी सल्तनत और विजयनगर राज्य के युद्ध और सल्तनत का पाँच सल्तनतों में बिखर जाना, जौनपुर, बिहार और बंगाल में पठान सरदारों की निरन्तर नोच- खसोट और इन सबके लगभग बीच में ग्वालियर । ग्वालियर पर सिकन्दर लोदी के पिता बहलोल ने आक्रमण किये, फिर सिकन्दर ने ग्वालियर का कचूमर निकालने में कसर नही उठा रखी । सिकन्दर ग्वालियर पर पाँच बार वेग के साथ आया । पाँचों बार उसको मानसिंह के सामने से लोट जाना पड़ा । उसके दरबारी इतिहास लेखकों—अखबार नवीसों — ने लिखा है कि मानसिंह ने प्रत्येक बार सोना-चाँदी देने का वादा- सोना चांदी नहीं-देकर टाला । आश्चर्य है सिकन्दर सरीखा कठोर योद्धा मान भी लेता था । अन्त में सिकन्दर को १५०४ में आगरा का निर्माण इसी मानसिंह तोमर को पराजित करने के लिए करना पड़ा, इसके पहले आगरा एक नगण्य–सा स्थान था । तो भी सिकन्दर सफल न हो पाया । ग्वालियर पर घेरा डालकर नरवर पर चढ़ाई कर दी । नरवर ग्वालियर राज्य में था । उस पर दावा राजसिंह कछवाहा का था । राजसिंह ने सिकन्दर का साथ दिया । तो भी नरवर वाले ११ महीने तक लगातार युद्ध में छाती अड़ाए रहे । जब खाने को घास और पेड़ों की छाल तक अलभ्य हो गई, तब उन लोगों ने श्रात्म– समर्पण किया । फिर सिकन्दर ने मन की जलन को नरवर स्थित मन्दिर और मूर्तियों पर निकाला–वह छः महीने इसी उद्देश्य से नरवर में रहा । लेखक के अपने शब्दों में- “ऐसे युग में इतने संकटों में भी मानसिंह हुआ और उसने तथा उसकी रानी मृगनयनी ने जो कुछ किया उसका प्रत्यक्ष प्रमाण आज भी हमारे सामने है । ग्वालियर किले के भीतर मान मन्दिर और गूजरी महल हिन्दू- वास्तुकला के अत्यन्त सुन्दर और मोहक प्रतीक हैं तथा ध्रुवपद और धमार की गायकी और ग्वालियर का विद्यापीठ आज भी भारत भर में प्रसिद्ध हैं l” फारसी की तारीख “मीराते सिकन्दरी” इस बात का प्रमाण है कि गुजरात का महमूद बघरॉ नित्यप्रति बहुत अधिक कलेवा और भोजन करता था । इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि मालवा के सुल्तान नसीरुद्दीन के पन्द्रह हजार बेगमें थीं । अपने बाप को उसने विष देकर मरवा डाला था । राज्य प्राप्ति में उसका एक ही उद्देश्य अन्तनिहित था- वह था केवल काम वासना की तृप्ति । ये सभी विशुद्ध ऐतिहासिक योजनाएँ हैं ।
विजयजंगम लिंगायत था । लिंगायत सम्प्रदाय का वासवपुराण दक्षिण में बारहवीं शताब्दी में लिखा गया था । इस सम्प्रदाय में ववर्–भेद का तिरस्कार किया गया है और कायिक श्रम को विशेष महत्त्व दिया गया है । इस सम्प्रदाय ने अहिंसा, सदाचार और मादक वस्तु–निरोध का प्रबल समर्थन किया है । विजयजंगम मानसिंह का मित्र था । यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है ।
(ब) 'मृगनयनी' उपन्यास में कल्पना का चित्रण
लाखी और अटल ने अन्तर्जातीय विवाह किया था, इतिहास इस बात का साक्ष्य भर रहा है । लाखी और अटल से ही सम्बद्ध नटों की भी कहानी है; किंतु उनके नाम पोटा और पिल्ली रूप में उपन्यासकार द्वारा कल्पित हैं ।
इतिहास इस बात की भी पुष्टि करता है कि विवाह से पूर्व मृगनयनी ने मानसिंह से जो वचन लिये थे, उनमें एक यह भी था कि राई गाँव से ग्वालियर के किले तक सांक नदी की नहर ले जाई जाय । राजा ने इस नहर को बनवाया था और उसके अवशेष अब भी विद्यमान हैं ।
किंवदन्तियाँ हैं कि मृगनयनी के अतिरिक्त राजा मानसिंह के आठ रानियाँ और भी थीं । बड़ी रानी से एक पुत्र था-विक्रमादित्य, जो मानसिंह के बाद राजगद्दी का अधिकारी हुआ और मृगनयनी से दो पुत्र थे-राजे और बाले ।
बोधन पुजारी भी ऐतिहासिक व्यक्ति है । सिकन्दर की छावनी में उसका वध करा दिया गया था, यह भी ऐतिहासिक तथ्य है ।
बैजू एक ऐतिहासिक व्यक्ति है, इसमें तो दो मत नहीं हैं; किन्तु वह मानसिंह के समय था और उसी के दरबार का गायक था, इस विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं । वर्माजी उसे स्पष्ट रूप से ही मानसिंह का दरबारी गवैया मानते हैं । उनका कहना है-"बैजू मानसिंह के दरबार में था । मृगनयनी और मानसिंह के सहयोग से उसने चार प्रकार की टोड़ी रागिनियों का आविष्कार किया जिसमें से एक– 'गूजरी टोड़ी' अब भी अनेक गवैया गाते हैं । ध्रुवपद को धमार परिपाटी में परिवर्तित करने का काम बैजू ने मानसिंह के आग्रह और अपनी रसिकता के कारण किया था ।" वर्माजी ने यह भी खोज की है कि बैजू चंदेरी का ही रहने वाला था । मानसिंह के दरबार में बैजू के अस्तित्व के बारे में मतभेद रहते हुए भी, किसी ने उसके अन्यत्र होने के प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये हैं, अतः वर्माजी का अनुमान और विचार ऐतिहासिक ही कहा जायगा ।
इतिहास के ये ही वे सूत्र हैं जिनसे समग्र 'मृगनयनी' उपन्यास का ताना-बाना बुना गया है । इन सूत्रों को परस्पर सम्बद्ध करने के लिए उपन्यासकार ने कल्पना का प्राश्रय लिया है । कल्पना का दूसरा उद्देश्य उपन्यास में रोचक प्रसंगों का स्थापन करना भी है ।
मृगनयनी पढ़ने पर ऐसा लगता है कि वर्मा जी का मूल उद्देश्य पाठक को पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तथा सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ की समस्त भारत की राजनीतिक स्थिति से अवगत करा देना है । अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे बघर्रा और गयासुद्दीन का स्थान देना अनिवार्य था, किन्तु उसके सामने प्रश्न था कि इन्हें उपन्यास में किस प्रकार लाया जाय । अपनी इसी समस्या को सुलझाने के लिए उसे इन दोनों को मृगनयनी और लाखी की ओर आकृष्ट होना दिखाना पड़ा । गयासुद्दीन कामुक प्रवृत्ति का था ही, अतः इस प्रकार की कल्पना के विषय में किसी प्रकार का संदेह ही नहीं रह जाता । वह एक स्पष्ट इतिहास बन गई हैं और फिर सौन्दर्य किसे अपनी ओर आकृष्ट नहीं करता । मटरू नसीरुद्दीन तक से मृगनयनी और लाखी के सौंदर्य की प्रशंसा करने से नहीं चूकता ।
नटों के विषय में जो किंवदन्ती मिली उसका भी उसने कथा-सूत्रों को मिलाने के लिए दूसरे प्रकार से प्रयोग किया है । पोटा और पिल्ली जैसे पात्र और नाम वर्माजी के अपने मस्तिष्क की उपज हैं ।
मानसिंह और मृगनयनी का जिस प्रकार उपन्यासकार ने मिलन कराया है, वह भी कल्पना-जय ही है । इतिहास यह तो बताता है कि मृगनयनी अत्यधिक निर्धन गूजर कन्या थी तथा मानसिंह के साथ उसका विवाह हुआ था; किन्तु दोनों का प्रथम मिलन किस प्रकार हुआ, इस विषय में इतिहास मौन है । उपन्यासकार ने मानसिंह के धीरोदात्त चरित्र की पूर्ण रक्षा करते हुए उसे राई गाँव बुलवाया है । यद्यपि बोधन उससे पूर्व भी राजा को दो बार राई आकर शिकार खेलने तथा अनिन्ध सुन्दरी मृगनयनी को देखने का निमन्त्रण दे आया है, किंतु राजा का पहला कर्त्तव्य अपनी राज व्यवस्था को ठीक रखना होता है अतः इस प्रकार के व्यर्थ के मनोविनोद के लिए उसके पास स्थान कहाँ ? वह राई गाँव तभी आता है जब मृगनयनी और लाखी द्वारा दो तुर्क मारकर गिरा दिये जाते हैं और परिणामस्वरूप सारे गाँवों में गड़बड़ी मच जाती है । स्पष्ट है, सुवरों के वध की कल्पना करके उपन्यासकार ने मानसिंह के चरित्र में चार चाँद लगा दिए हैं । उसके कार्य व्यापार एवं कृतित्व को पूर्ण ऐतिहासिक भी बना दिया है ।
'मृगनयनी' में उपन्यासकार वर्मा जी ने ऐतिहासिक सूत्रों को मिलाने के लिए जो जो कल्पनाएं की हैं वे सब तो इतिहास ही बन गई हैं । उनसे भी अधिक कल्पनाये उसने उपन्यास में रोचकता का आधान करने के लिए की हैं । यह स्मरणीय है कि 'मृगनयनी' के रूप में वर्माजी एक ऐतिहासिक-रोमांस का सर्जन कर रहे थे । कल्पना रोमांस का प्रमुख वैशिष्ट्य है । एक आधुनिक आलोचक के शब्दों में यदि हम रोमांस की परिभाषा देना चाहें तो कह सकते हैं कि रोमांस शब्द से अभिप्राय साहस, सदाशयता, वीरता, त्याग, कष्ट-सहिष्णुता, पर दुःख-कातरता, कर्तव्यशीलता, प्रेम की शक्ति के वर्णन, प्रकृति एवं मानव प्रकृति के भावनात्मक कल्पनात्मक सौंदर्यबोध श्रादि से है l” इस शब्द के अन्तर्गत उत्साह, स्फूति एवं जागृति है न कि अकर्मण्यता का भाव । जीवन संग्राम में ध्रुव, अटल और अडिग रहकर प्रेम करते रहना और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पड़कर बड़े-से-बड़े कष्टों के सामने सिर न झुकाना, हार न मारना, यही रोमांस है । 'मृगनयनी' उपन्यास में ये सभी प्रकार के गुण कूट-कूट कर भरे गये हैं । मानासिंह, मृगनयनी, लाखी, अटल, राजसिंह आदि प्रधान पात्र इन्हीं सब गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं । अतः निश्चय ही इसे एक ऐतिहासिक रोमांस, वह भी पूर्ण सफल, कहा जा सकता है ।
प्रेम जीवन की मूलभूत वृत्ति है । सर्जनात्मक साहित्य में जितनी रोचकता इस वृत्ति के चित्रण से आती है, उतनी किसी में और किसी से नहीं । वर्माजी ने अपनी कल्पना के माध्यम से 'मृगनयनी' में उदात्त प्रेम का बड़े मनोयोग से चित्रण किया है । मानसिंह और मृगनयनी का जीवन आद्यन्त प्रेममय है । इन दोनों का प्रेम कोई साधारण प्रेम नहीं, वह तो इतना भव्य है कि उनके कारण ऐसी भव्य कलाओं का निर्माण हुआ कि भारत आज भी उन पर गर्व करता है । क्या मानसिंह और मृगनयनी का संगीत तथा वस्तु-कला के लिए वह योगदान विस्मृत कर देने की वस्तु नहीं है जो कि आज भी ग्वालियर के किले में अपने मुँह से बोलकर सबको अपनी कहानी स्वयं कह देता है । वर्मा जी ने उनके इस पावन प्रेम से उपन्यास को रच दिया है । जिन-जिन अध्यायों में उन दोनों की इस वृत्ति का चित्रण है वे पाठक के मन को मोह लेते हैं ।
जंगल में शिकार के अवसर पर जब मानसिंह मृगनयनी से विवाह का प्रस्ताव रखता है तब मृगनयनी के हृदय में जो कोमल वृत्तियाँ चढ़ती उतरती हैं तथा जिस प्रकार वह उन्हें व्यक्त करती है, वह सब कुछ देखते ही बनता है । प्रेम जैसी कोमल वृत्ति के अंकन से ही उपन्यास का यह अध्याय असंदिग्ध रूप से सर्वश्रेष्ठ है । उपन्यास का वह अध्याय भी पाठक को बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है जिसमें मानसिंह मृगनयनी के मुख पर पड़ती हुई संध्या कालीन सूर्य की किरणों को देखकर उससे प्रश्न करता है कि ये किरणें उसकी मुस्कान के साथ क्यों खेला करती हैं ।
अटल और लाखी का प्रेम-दृश्य केवल एक ही और वह भी जंगल में दिखाया गया है, किन्तु फिर भी वह हमारे हृदय पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ जाता है । निहालसिंह का कला के प्रति जिस प्रेम का चित्रण है वह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं, क्योंकि कला उसे भले ही धोखा दे रही हो, परन्तु निहाल सिंह उसे हृदय से प्यार करता है । ग्वालियर जाने से पूर्व कला ने जिन प्रणय भरी दृष्टियों से राजसिंह को देखा था, उपन्यास में उसका भी एक विशेष स्थान है । कहने का तात्पर्य यह है कि उपन्यासकार ने प्रणय के चित्रण में अपनी कल्पना को उन्मुक्त विस्तार प्रदान करते हुए उपन्यास को अत्यधिक रोचक और सफल ऐतिहासिक रोमान्स बना दिया है ।
शौर्य भी एक बड़ी ही उदात्त वृत्ति है । वर्माजी ने 'मृगनयनी' में इसका भी जी भरकर उपयोग तथा उन्मुक्त चित्रण किया है । यद्यपि यह ठीक है कि वह युग ही युद्धों का था और ऐसी स्थिति में उपन्यासकार ने जो शौर्य का चित्रण किया है वह उसकी अपनी कोई मौलिक उद्भावना नही थी; तथापि बात ऐसी नहीं है । वर्मा जी ने इतिहास की नीरस मरुभूमि में कल्पना की सरिता बहाई है । ऐतिहासिक पात्रों को भी उन्होंने अपनी कल्पना से वह स्थान प्रदान करा दिया है जिसे इतिहास भी कभी नहीं दिला सकता । निहाल की वीरता, शौर्य और निर्भीकता भले ही इतिहास सम्मत हों; किन्तु वर्माजी ने जिस प्रकार उसके इन गुणों का चित्रण किया है, उससे उसका महत्त्व इतिहास को अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जाता है । मानसिंह, मृगनयनी, लाखी और अटल सभी इतिहास और कल्पना में शौर्य अपनी पराकाष्ठा को पहुंचा हुआ है । मृगनयनी और लाखी तो स्त्री होकर भी बड़े-बड़े योद्धाओं का सामना करने की हिम्मत रखती हैं । अटल ने जिस प्रकार वीरगति पाई है, वह इतिहास में न सही, उपन्यास में अवश्य अमर रहेगी । मानसिंह जब तक जीवित रहा, सिकन्दर के दाँत खट्ट करता रहा । इन सभी ऐतिहासिक शौर्यो को एक नव्य कलात्मक साँचा प्रदान करके लेखक ने उन्हें शाश्वत श्रायाम दे दिया है । लाखी ने जिस प्रकार नटों का ध्वंस किया वह भी कल्पना प्रसूत है और एक प्रचलित किम्वदन्ती पर आधारित है । उपन्यास में इस प्रकार की कल्पना का उद्देश्य पाठक के हृदय में लाखी के प्रति और अधिक श्रद्धा भावना उत्पन्न करना है । किम्वदन्तियों का उपयोग कितनी सुघड़ता के साथ किया जा सकता है, लेखक ने बड़ी कलात्मकता से स्पष्ट कर दिया है । इसमें तो सन्देह नहीं कि अन्तर्जातीय विवाह करने पर लाखी और अटल को अनेक कष्ट सहने पड़े होंगे; किन्तु उपन्यासकार ने अपनी कल्पना के द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर उनके जिन कष्टों का वर्णन किया है, उनसे निस्संदेह पाठक के हृदय में लाखी और अटल के लिए पूर्ण सहानुभूति उत्पन्न हो जाती है । लाखी और अटल की कष्ट-सहिष्णुता का ही परिणाम है कि कुछ देर के लिए पाठक मूल वृत्त को विस्मृत कर उन दोनों की ही कथा में आनन्द लेने लगता है । ऐसा करके लेखक ने कथा को आधुनिक आयाम भी प्रदान कर दिया है । बोधन के वध से पूर्व वर्माजी ने उसके चरित्र में जिस उदारता का प्राधान किया है, उससे वह पाठक की सहानुभूति का पूर्ण पात्र बन जाता है । जबकि इससे पूर्व पाठक उसकी धर्मान्धता के कारण उसे अवज्ञा की दृष्टि से देखता है । मृगनयनी और लाखी के लड़ने-झगड़ने और फिर तुरंत ही नितान्त स्नेहिल व्यवहार के जो दृश्य प्रति किए हैं, वे पूर्णतः कल्पनाजन्य हैं
३. निष्कर्षत :-
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि इतिहास और कल्पना का अद्भुत समन्वय ही 'मृगनयनी' उपन्यास की अपूर्व लोकप्रियता का जनक है । उपन्यासकार ने इतिहास के तथ्यों को लेकर उन्हें अपनी कल्पना से ऐसा मोहक रूप प्रदान किया है कि पाठक लालायित नेत्रों ने उन्हें हृदयंगम करते नहीं अघाता ।