Tuesday, 6 July 2021

कोणार्क नाटक की समीक्षा

(1) प्रस्तावना:-

               जगदीशचंद्र माथुर हिन्दी के श्रेष्ठ नाट्य-लेखक और प्रसिद्ध एकांकीकार है । माथुर जी साहित्य लेखन की शुरूआत ‘भोर का तारा’ एकांकी लिखकर करते है । इनके साहित्य में भारतीय सांस्कृतिक विरसत, ऐतिहासिक मूल्य, सामाजिक पृष्ठभूमि और पाश्चात्य नाट्य-शिल्प का अंकन मिलता हैं। अपनी सभी रचनाओं में हमें उपदेश देना नहीं भूलते । जो हिन्दी साहित्य में जगदीशचंद् माथुर के साहित्यिक रचनाओं की मूल्यवान देन हैं । माथुर की सभी रचनाओं में सामाजिक समस्या, मध्यमवर्गीय समस्याओं और पौराणिक तत्वों को भी अपनी रचना में उतारा है । विषय की दृष्टि से उनकी सभी रचना आकर्षक  एवं रोचक हैं । प्रवर्तमान समाज  को अपनी   रचना में खड़ा करते हैं । ‘कोणार्क’ नाटक में कथानक आकर्षक, रोचक और उपदेशात्मक हैं । नाटककार ने उसमें पात्रसृषटि रचना भी बहुत ही अच्छी की हैं । सभी पात्रों की भूमिका से हमें एक सीख मीलती हैं । ‘कोणार्क’ जगदीशचंद्र माथुर द्वारा रचित श्रेष्ठ नाटक  हैं, कयोंकि इसमें  नाट्यकला के सभी तत्वों का सफ़ल निर्वाह हुआ हैं  । ऐतिहासिकता की दृष्टि से भी बहुत मूल्यवान नाटक हैं, जिसकी    आधुनिक हिन्दी नाट्य साहित्य में अपना एक अलग स्थान सुनिश्चित हैं ।


 (2) कथानक :-

              जगदीशचंद्र माथुर ने ‘कोणार्क’ नाटक का कथानक मुख्य रूप से तीन अंकों  में  विभाजित  किया हैं । 

              नाटक के पहले अंक में सूत्रधार और दोनों वाचिकाएँ पात्रों का परिचय देती हैं । बाद  में  मंच पर एक ज्योति फैलती हैं, तब हम एक चौकी पर बैठे व्यक्ति को देखते हैं । जो नाटक का मुख्य शिल्प और नाटक का नायक विशु हैं । उसका कमरा आयॅ अंधकार विहीन हैं । बाद में  कक्ष और  मंदिर का वर्णन किया है । विशु चिंतित मुद्रा दिखाई देता हैं । तब वहाँ मुख्य पाषाण रजीव  आता है । फिर विशु और राजीव के संवाद द्वारा से ये जान पड़ता हैं कि कोणार्क मंदिर संपूर्ण हो चुका है सिर्फ समय के ऊपर त्रिपदघर का स्थापित करना बाकी है । उसी समय सौम्यश्री का प्रवेश होता हैं  । वह मंदिर का नाट्याचार्य हैं । वह विशु को अपनी वेष-भूषा दिखता हैं । राजीव विशु को ज्ञात करता हैं कि कोणार्क उत्कल राज्य के राज ज्योतिषी कहता है कि कोणाक  देवालय ज्यो ही पुरा होगा त्यों हीं इसके पत्थरों में पंख लग जायेंगे और सारा मंदिर आकाश में उड़ लगेंगा…… । विशु भी यह बात का परिहास की बात नहीं समझता । सौम्यश्री विशु से पूछता हैं कि तुम उत्कल नरेश के क्रोध को कैसे शांत करोगें ? यह सवाल पूछता है, तब उत्कल नरेश नरसिंहदेव वंग प्रदेश  में यवनों के साथ युद्ध करने गये थे । पर विशु का राजा नरसिंहदेव पर पुरा विश्वास था । मगर सौम्यश्री उसे कहता है कि आजकल राज-राज चालुक्य जो राज्य का महामात्य हैं वहीं सब नरेश के अधिकार जमा बैठा हैं । तब विशु कहता है, हमे कैसे भी करके कोणार्क को पूरा करना है । फिर राजीव के जरिये विशु को धर्मपद से मिलवाता है । पहले राजीव उसका परिचय देता है कि विचित्र जीव है; कभी तो मौन हैं, मंदिर के कलश की ओर निर्निमेष भाव से देखता है और उसकी आयु भी कम हैं । सोलह वर्ष की आयु हैं  । बहुत ही कम समय में चमत्कार पूर्ण मूर्तियाँ तैयार कर देता हैं  । तब विशु को आश्चर्य होता हैं । विशु और सौम्यश्री  के संवाद होते हैं  । तब विशु सत्रहवें वर्ष पहले की अपनी प्रेम कहानी  का जिक्र करता हैं  । वह शबर जाति की सारीका से प्यार करता था  । जब उसे पता चला की  सारिका उसकी माँ बनने वाली है, तब वह समाज  के डर से भाग कर  भूवनेश्वर चला गया  । यह कहानी सूयॅमूतिॅ  के जिक्र से विशु बताता है । एक ओर रहस्य भी बताता है कि ठीक बीच में जो चुंम्बक है उसे हटाते ही मूतिॅ बडे वेग से गिर पडेगी और भूकंप की भाँति ही मंदिर की शिलाएँ और स्तंभ गिरने लगेंगे । तभी राजीव और धर्मपद आता हैं  । विशु कला का महत्त्व देता है । तो धमॅपद पुरुषार्थ का महत्त्व देता है  । धर्मपद कोणार्क  के बारहसों शिल्पीयों का दर्द  बताता है  । विशु तो पहले तो धर्मपद की बात मानता नहीं है पर जब महामात्य चालुक्य खुद आकर विशु और सब शिल्पीयों को धमकी दे जाते हैं कि यदि सप्ताह में मंदिर पुरा नहीं हुआ तो तुम सबके हाथ कांट लिए जायेंगे । यही उत्कल नरेश की आज्ञा हैं  । पर विशु का नरसिंह देव पर भरोसा था और यह भरोसा टूटता भी नहीं हैं  । जब धर्मपद विशु का  अम्ल पर त्रिपदघर को रखने की युक्ति बताता है तब वह बहुत आनंदित हो उठता है  । पर धर्मपद उसके बदले में मूर्ति प्रतिष्ठापन के दिन एक ही दिन के लिए विशु के सारे अधिकार माँगता है और विशु उसको हा कहता है । 

                  जब नरसिंहदेव धर्मपद का धन्यवाद करते हैं तब धर्मपद चालुक्य का षड्यंत्र कहता है; कयोंकि वह एक दिन के लिए महाशिल्पी हैं । जब नरसिंहदेव का पता चला तब तक देर हो चुकी थी । चालुक्य ने एक षडयंत्र रचा था  । सारे सैन्य को लेकर मंदिर को घेर लिया और शैवालिक दूत को भेजा तब धर्मपद बहुत अच्छा उत्तर देकर उससे युद्ध करने की हा कहता है । वह सारा कार्य  संभल लेता है । बारहसों शिल्पी और दूसरे  मजदूरों सैनिक बनते हैं और चालुक्य के सामने युद्ध करते हैं । पर चालुक्य रात्रि का नियम तोड़ कर मंदिर के अंदर घुस जाता हैं, उस समय विशु को पता चलता हैं कि धर्मपद हीं उसका बेटा है । पिता-पुत्र का मिलन होता है पर धर्मपद शिल्पीओं को न्याय देने के लिए फिर से युद्ध के लिए जाता हैं  । चालुक्य के सैनिक उसको मार देते हैं । तब विशु सूर्यमूर्ति के कक्ष में जाकर चुम्बक पर प्रहार करता है तब वहाँ चालुक्य और उसके सैनिक और सौम्यश्री पहोच जाते हैं पर विशु नहीं रुकता आखिर में कोणार्क मंदिर टूट जाता हैं । चालुक्य और उसके सैनिक मारे जाते है तथा विशु भी उसमें मृत्यु के घाट उतर जाता हैं । सौम्यश्री बच जाता है  । यहाँ इस नाटक का करुणता के साथ अंत होता हैं । 

 3. पात्रसृष्टि:-

             साहित्य की प्रत्येक  रचनाओ में पात्र होना अनिवार्य है । पात्र रचना का प्राण है  । उनके ही आधार से रचना का कथ्य आगे बढ़ता है । पात्र ही रचना का मूल उद्देश्य दृश्यपट पर प्रकट  करता हैं । कोणार्क नाटक में भी जगदीशचंद्र  माथुर ने उच्चकोटि की पात्रसृष्टि का सृजन  किया । कोणार्क नाटक में मुख्य पात्र के रूप में महाशिल्पी विशु हैं । जिसनें कोणार्क मंदिर का निर्माण किया है । मगर हमे धर्मपद भी मुख्य पात्र के समान ही लगता हैं । माथुर जी ने पिता के गुण को पुत्र में बहुत ही आकर्षक ढंग से  रखे हैं । प्रतिनायक की भूमिका महामात्य चालुक्य अदा करता हैं । जिसके कारण पूरे नाटक में कितनी ही समस्याएँ पैदा होती हैं और उन सभी समस्याओं को हल करने में सौम्यश्री, नरसिंहदेव, राजीव, महेन्द्र वर्मन और अन्य शिल्पी गण सहाय करते हैं । बीच में विशु की प्रेमिका तथा सूर्य कुंति का वर्णन भी ध्यान आता है । वैसे तो जगदीशचंद्र माथुर ने नाटक में गौण पात्रों को भी एक अनोखे ही तरीके से प्रेक्षकों के सामने प्रस्तुत किया हैं । येसे हम कोणार्क नाटक की पित्रा-सृष्टि के माध्यम से सफल कह सकते हैं । नाटक की कथा, ऐतिहासिक वातावरण और उद्देश्य को सफलता प्रदान करने पात्र काफी रोचक एवम् जीवंत लगते हैं ।

    

(4) संवाद-योजना :-

              संवाद के बीना नाटक संभव ही नहीं, नाट्य रचना में संवाद का होना आवश्यक एवं अनिवार्य है । संवाद के बिना रचना संभव ही नहीं है । संवाद सरल, सचोट, आकर्षक एवं छोटे होने चाहिए । लंबे-छोड़े  संवाद रचना की सफ़लता के बाधक हैं । नाटक को प्रभाव हीन बना देते हैं । संवाद के माध्यम से ही रचना का कथानक आगे बढ़ता है और दर्शक एवं पाठक कथानक को स्पष्ट समज सकते हैं । कोणार्क नाटक में संवाद योजना लेखक ने बहुत अच्छे तरीके से निर्मित की है । सभी यात्रों की मनोदशा तथा आंतरिक-बाह्य व्यक्तित्व की समझ देती हैं ।  उदाहरण दृष्टव्य हैं, 

           विशु :- “आज इस युवक ने ठंडी होती हुई राख को फूंक मारकर प्रज्वलित कर दिया हैं ।“ 

            यह संवाद हमें धर्मपद के अनोखे व्यक्तित्व की समझ  देता हैं  ।

           धर्मपद :- “बहुत हुआ, बहुत हुआ, दूत । क्या हम भेड़-बकरियाँ हैं, जो चाहे जिसके हवाले कर दिये जाये ।“

            चालुक्य :- “ सुन लो और कान खोल कर सुन लो । आज से एक सप्ताह के अंदर यदि कोणार्क  देवालय पूरा नहीं हुआ तो, तुम लोगों के हाथ काट लिए जाएंगे । “

           इन सभी चोटदार संवादों के कारण नाटक की घटनाएँ ही बदल जाती हैं । अतः नाटक के संवाद कथा, पात्र, परिवेश, देश्-काल, उद्देश्य और आंतरिक तथा बाह्य संघर्ष के अनुकूल हैं । पाठक और दर्शक के मन-मस्तिष्क में चीरकाल तक जिन्दा रहने वाले हैं।  जो एक मंझे हुए लेखक की पहचान हैं ।  


  (5) भाषा-शैली :-

        साहित्य में अभिव्यक्ति का माध्यम ही भाषा होती हैं।  साहित्य की सभी रचनाओ में भाषा शैली का अलग ही महत्त्व है । कहा जाता हैं कि “जैसा शील वैसी शैली ।“ यहाँ पर लेखक का जैसा शीलवान वैसी ही उनकी रचनाओं की शैली । कोणार्क नाटक में भी जगदीशचंद्र माथुर ने उत्तम कोटी की भाषा शैली का प्रयोग करके अपने नाटक को सफलता प्रदान की है । कोणार्क नाटक में भाषा शैली का प्रयोग बहुत ही सरल और भावमय प्रवाह से हुआ है । पिता-पुत्र के मीलन के वक़्त तथा विशु-सौम्यश्री को जब अपने प्यारी प्रेमिका सारिका की बात बताता है, तब माथुर ने भावमय शब्दों का प्रयोजन किया हैं । शुद्ध हिन्दी नाटक की भाषा हैं  । कथ्य पौराणिक होने के कारण कहीं-कही प्राचीन संस्कृत शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । कहीं भी कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं हैं । परंतु ऐतिहासिक शब्दों का प्रयोग हुआ है, फिर भी कोणार्क नाटक की भाषा-शैली सरल है । चित्रात्मक शैली का प्रयोग तथा प्रतिदीप्ति शैली का भी प्रयोग हुआ है  और इन सबके कारण भाषा-शैली के माध्यम से नाटक सरल-सफल कहा जा सकता हैं ।


(6) देशकाल और वातावरण :-

            साहित्यिक रचना में देशकाल और वातावरण का प्रयोग  बहुत ही मायने रखता हैं । जो पाठक को रचना का समय, स्थान और परिवेश का ज्ञान हो जाये तो उसके लिए रचना को समझना और भी आसान हो जाता है । इसीलिए किसी भी रचना में देशकाल और वातावरण का प्रयोग अनिवार्य बन जाता हैं । जगदीशचंद्र माथुर अपने कोणार्क नाटक की कथा के पात्र के माध्यम से देशकाल और वातावरण निर्मित किया हैं ।

                    जगदीशचंद्र माथुर ने नाटक का समय सन् 1960 के करीब का दर्शाया है । अतः पूरा नाटक ऐतिहासिक हैं । इसके कारण देशकाल और वातावरण भी ऐतिहासिक हैं । समय तो दर्शाया गया हैं और स्थान भी कोणार्क मंदिर तथा प्रधान शिल्पी विशु के कक्ष में ही पुरे नाटक की घटनाएँ इन दोनो स्थान पर ही घटित होती हैं । अद्भुत मूर्तियाँ तथा निराधार सूर्यमूर्ति का भी वर्णन आता हैं । मंदिर के बाहर सैनिक घोड़े, हाथी तथा ऐसी आवाज़े का वर्णन भी मिलता हैं । पुरा वातावरण ही ऐतिहासिक हैं, कहीं भी आधुनिकता के दर्शन नहीं होता । सब शिल्पियों के कार्य का वर्णन हूबूहू अंकित हैं और वातावरण भी कुछ ऐसा ही हैं । पत्थरों के टूटने की आवाज़ और नयी-नयी मूर्तियों का निर्माण भी माहोल को अलग बनाता है । जब महामात्य चालुक्य और नरसिंहदेव तथा विशु और अन्य शिल्पीयों के बीच युद्ध होता हैं तब वातावरण वीर रस से पूर्ण और गंभीर बन जाता है । जब विशु को पता चलता हैं कि धर्मपद ही उसका बेटा है और उन दोनों का मिलन होता हैं, उस दौरान वातावरण अचानक करुणा तथा आनंद में बदल जाता हैं । इस तरह जगदीशचंद्र माथुर अपने नाटक में वातावरण के जरिये पाठकों एवं दर्शकों को कभी करुणा तो कभी आनंद में लहराते हैं । नाटक में देशकाल और वातावरण की वज़ह से नाटक प्रसिद्ध  और लोकप्रिय बना हैं  । 

(7)  शीर्षक :-

               शीर्षक किसी भी रचना का प्रवेशद्वार होता हैं । शीर्षक कथा के अनुकूल, पात्र के नाम तथा प्रसंग एवं स्थान के माध्यम से रखा जाता हैं  । शीर्षक छोटा, सचोट और सारगर्भित होना चाहिए । कथा के अनुकूल होना चाहिए । रचना किसी भी चीज तथा पात्र का बार-बार जिक्र आता है तो वहीं रचना का शीर्षक रख दीया दिया जाता हैं । कभी कोई लेखक घटना के माध्यम से भी रचना का शीर्षक रख देते हैं । अतः शीर्षक रचना का मस्तक हैं ।

             कोणार्क  नाटक का शीर्षक छोटा एवं सरस है । जगदीशचंद्र माथुर कथा के अनुकूल शीर्षक रखा है । अपने नाटक की पुरी घटनाएँ कोणार्क सूर्यमन्दिर में घटित हुई हैं । इसलिए लेखक अपने इस नाटक का शीर्षक कोणार्क रखा है । जो यथार्थ और सार्थक भी है । कोणार्क मंदिर के कारण ही कथा इतनी रोचक बनपायी हैं । इसलिए शीर्षक भी तो ‘कोणार्क’ ही उचित होगा ? शीर्षक के माध्यम से पूरा नाटक और भी सफल हुआ हैं । पूरी कथा ऐतिहासिक हैं; इसलिए शीर्षक भी उनके अनुकूल ही होना चाहिए ।  जगदीशचंद्र माथुर ने इन सभी बातों को ध्यान में रखकर नाटक का शीर्षक ‘कोणार्क’ रखा है।  जो आज भी पाठकों और दर्शकों के दिलों में राज करता है ।

(8)  उद्देश्य :-

             संसार का कोई भी कार्य उद्देश्य बगैरह नहीं होता । तो फिर नाट्य रचना उद्देश्य बीना कैसे हो सकती हैं ? किसी भी रचना में उद्देश्य  छुपा ही होता हैं । फिर चाहे हास्य की रस से हो या फिर हास्य-व्यंग्य और कटाक्ष करके उद्देश्य को जाहिर कर ही देता हैं ।  जगदीशचंद्र माथुर कोणार्क में ईन्सान कोई भी काम करने का ठान ले तो उसे पूरा करके ही दम लेता है । यह उद्देश्य नाटक में प्रधान हैं । जगदीचंद्र माथुर अपनी सभी रचनाओं में समस्याएँ तथा उद्देश्य को ज्यादा प्रधानता देते हैं । उसके कारण ही कथा वास्तविक तथा रोचक बन जाती हैं । कोणार्क नाटक में अपने अधिकार के लिए जान से भी खेल ने वाले धर्मपद तथा अन्य शिल्पीयों के माध्यम से अन्याय का सामना करना यही उद्देश्य देते हैं । विशु समाज के डर से अपने सच्चे प्यार को छोड़ कर भाग जाता हैं । इसी प्रकार लेखक समाज की कुरीतियों को दर्शाकर उसका सामना डटकर करना चाहिए यही उद्देश्य देता हैं । फिर सौम्यश्री जैसे मित्र अपनी मित्रता कैसे निभाता हैं ।  नरसिंहदेव के माध्यम से प्रजावात्सल तथा वफादार राजा के दर्शन करवाया है ।  राजा या साशक हो तो नरसिंहदेव जैसे होना चाहिए । लेखक यह भी स्पष्ट करते हैं कि किसी भी मानवी को छोटा नहीं समझना चाहिए । इस बात को शिल्पियों के आधार पर बताया हैं और बूरे कर्म करने वालों के साथ हंमेशा ही बूरा ही होता हैं । इस कुदरती सत्य को भी स्पष्ट किया हैं । यह बात चालुक्य तथा उसके सैनिकों  के माध्यम से दिखाया हैं और यहाँ पर पुरुषार्थ का भी उद्देश्य दिया गया है । विशु की साधना के कारण ही कोणार्क जैसा भव्य मंदिर बन सका । वैसे तो सभी पात्रों तथा सभी घटनाओं में उद्देश्य छीपा हुआ  है । इन सभी बातों को ध्यान में रखकर हम कोणार्क नाटक को उद्देश्य की दृष्टि से कफी सफल कह सकते हैं ।


(9) रंगसंकेत :-

            हिन्दी साहित्य की अन्य गद्य विद्याओं से हटकर एकांकी और नाटक में रंगसंकेतों तथा रंगमंचीयता का समावेश होता हैं । नाटक में  रचनाकार पात्र की क्रिया, उनका वर्णन, किसी भी घटना का वर्णन आदि सूचना को रंगसंकेतों के माध्यम से प्रस्तुत करता हैं । जगदीचंद्र माथुर कोणार्क नाटक में  रंगसंकेतों का प्रयोजन बहुत ही अच्छे से किया हैं । सभी बातों का ध्यान में रखकर किया हैं । रंगसंकेतों को सूत्रधार एवम् वाचिकाएँ वाचक बताता है । वातावरण को भी रंगसंकेतों के आधार पर दर्शाकर कथा को लंबी नहीं बनने देते  और मंच पर भी उसका दृश्य बताना नहीं पड़ता । वैसे तो जगदीशचंद्र माथुर ने भी अपने नाटक में  रंगसंकेतों का संकेत अच्छे से बताया हैं । 


(10) रंगमंचीयता :-

                  नाटक और एकांकीयों में  रंगमंचीयता का निरूपण किया जाता हैं।  रंगमंचीयता नाटक एवम् एकांकी का महत्त्वपूर्ण अंग हैं । जो नाटक तथा एकांकीयों और भी ज्यादा रोचक बना देता हैं । कोणार्क नाटक में लेखक रंगमंचीयता आकलन बहुत ही अच्छा किया हैं । रंगमंच पर केवल गिने-चुने ही पात्रों का प्रवेश किया जाता हैं । ज्यादा पात्र अगर मंच पर आ जाये तो वह मंच पर भीड हो जाती हैं । नाटक का संघर्ष भी रंगमंच पर प्रस्तुत करके नाटककार रंगमंचीयता को सँवारते हैं । युद्ध के वातावरण को प्राकृतिक वातावरण के साथ जोड़कर नाटक की शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन यह संभव हो तब ही हो पाता हैं, जब लेखक रंगमंचीयताता ज्ञाता हो । यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रंगमंच की दृष्टि से भी कोणार्क नाटक हिन्दी पाठकों और दर्शकों के पसंदीदा नाटक में से एक नाटक हैं ।