Tuesday, 6 July 2021

कोणार्क नाटक की समीक्षा

(1) प्रस्तावना:-

               जगदीशचंद्र माथुर हिन्दी के श्रेष्ठ नाट्य-लेखक और प्रसिद्ध एकांकीकार है । माथुर जी साहित्य लेखन की शुरूआत ‘भोर का तारा’ एकांकी लिखकर करते है । इनके साहित्य में भारतीय सांस्कृतिक विरसत, ऐतिहासिक मूल्य, सामाजिक पृष्ठभूमि और पाश्चात्य नाट्य-शिल्प का अंकन मिलता हैं। अपनी सभी रचनाओं में हमें उपदेश देना नहीं भूलते । जो हिन्दी साहित्य में जगदीशचंद् माथुर के साहित्यिक रचनाओं की मूल्यवान देन हैं । माथुर की सभी रचनाओं में सामाजिक समस्या, मध्यमवर्गीय समस्याओं और पौराणिक तत्वों को भी अपनी रचना में उतारा है । विषय की दृष्टि से उनकी सभी रचना आकर्षक  एवं रोचक हैं । प्रवर्तमान समाज  को अपनी   रचना में खड़ा करते हैं । ‘कोणार्क’ नाटक में कथानक आकर्षक, रोचक और उपदेशात्मक हैं । नाटककार ने उसमें पात्रसृषटि रचना भी बहुत ही अच्छी की हैं । सभी पात्रों की भूमिका से हमें एक सीख मीलती हैं । ‘कोणार्क’ जगदीशचंद्र माथुर द्वारा रचित श्रेष्ठ नाटक  हैं, कयोंकि इसमें  नाट्यकला के सभी तत्वों का सफ़ल निर्वाह हुआ हैं  । ऐतिहासिकता की दृष्टि से भी बहुत मूल्यवान नाटक हैं, जिसकी    आधुनिक हिन्दी नाट्य साहित्य में अपना एक अलग स्थान सुनिश्चित हैं ।


 (2) कथानक :-

              जगदीशचंद्र माथुर ने ‘कोणार्क’ नाटक का कथानक मुख्य रूप से तीन अंकों  में  विभाजित  किया हैं । 

              नाटक के पहले अंक में सूत्रधार और दोनों वाचिकाएँ पात्रों का परिचय देती हैं । बाद  में  मंच पर एक ज्योति फैलती हैं, तब हम एक चौकी पर बैठे व्यक्ति को देखते हैं । जो नाटक का मुख्य शिल्प और नाटक का नायक विशु हैं । उसका कमरा आयॅ अंधकार विहीन हैं । बाद में  कक्ष और  मंदिर का वर्णन किया है । विशु चिंतित मुद्रा दिखाई देता हैं । तब वहाँ मुख्य पाषाण रजीव  आता है । फिर विशु और राजीव के संवाद द्वारा से ये जान पड़ता हैं कि कोणार्क मंदिर संपूर्ण हो चुका है सिर्फ समय के ऊपर त्रिपदघर का स्थापित करना बाकी है । उसी समय सौम्यश्री का प्रवेश होता हैं  । वह मंदिर का नाट्याचार्य हैं । वह विशु को अपनी वेष-भूषा दिखता हैं । राजीव विशु को ज्ञात करता हैं कि कोणार्क उत्कल राज्य के राज ज्योतिषी कहता है कि कोणाक  देवालय ज्यो ही पुरा होगा त्यों हीं इसके पत्थरों में पंख लग जायेंगे और सारा मंदिर आकाश में उड़ लगेंगा…… । विशु भी यह बात का परिहास की बात नहीं समझता । सौम्यश्री विशु से पूछता हैं कि तुम उत्कल नरेश के क्रोध को कैसे शांत करोगें ? यह सवाल पूछता है, तब उत्कल नरेश नरसिंहदेव वंग प्रदेश  में यवनों के साथ युद्ध करने गये थे । पर विशु का राजा नरसिंहदेव पर पुरा विश्वास था । मगर सौम्यश्री उसे कहता है कि आजकल राज-राज चालुक्य जो राज्य का महामात्य हैं वहीं सब नरेश के अधिकार जमा बैठा हैं । तब विशु कहता है, हमे कैसे भी करके कोणार्क को पूरा करना है । फिर राजीव के जरिये विशु को धर्मपद से मिलवाता है । पहले राजीव उसका परिचय देता है कि विचित्र जीव है; कभी तो मौन हैं, मंदिर के कलश की ओर निर्निमेष भाव से देखता है और उसकी आयु भी कम हैं । सोलह वर्ष की आयु हैं  । बहुत ही कम समय में चमत्कार पूर्ण मूर्तियाँ तैयार कर देता हैं  । तब विशु को आश्चर्य होता हैं । विशु और सौम्यश्री  के संवाद होते हैं  । तब विशु सत्रहवें वर्ष पहले की अपनी प्रेम कहानी  का जिक्र करता हैं  । वह शबर जाति की सारीका से प्यार करता था  । जब उसे पता चला की  सारिका उसकी माँ बनने वाली है, तब वह समाज  के डर से भाग कर  भूवनेश्वर चला गया  । यह कहानी सूयॅमूतिॅ  के जिक्र से विशु बताता है । एक ओर रहस्य भी बताता है कि ठीक बीच में जो चुंम्बक है उसे हटाते ही मूतिॅ बडे वेग से गिर पडेगी और भूकंप की भाँति ही मंदिर की शिलाएँ और स्तंभ गिरने लगेंगे । तभी राजीव और धर्मपद आता हैं  । विशु कला का महत्त्व देता है । तो धमॅपद पुरुषार्थ का महत्त्व देता है  । धर्मपद कोणार्क  के बारहसों शिल्पीयों का दर्द  बताता है  । विशु तो पहले तो धर्मपद की बात मानता नहीं है पर जब महामात्य चालुक्य खुद आकर विशु और सब शिल्पीयों को धमकी दे जाते हैं कि यदि सप्ताह में मंदिर पुरा नहीं हुआ तो तुम सबके हाथ कांट लिए जायेंगे । यही उत्कल नरेश की आज्ञा हैं  । पर विशु का नरसिंह देव पर भरोसा था और यह भरोसा टूटता भी नहीं हैं  । जब धर्मपद विशु का  अम्ल पर त्रिपदघर को रखने की युक्ति बताता है तब वह बहुत आनंदित हो उठता है  । पर धर्मपद उसके बदले में मूर्ति प्रतिष्ठापन के दिन एक ही दिन के लिए विशु के सारे अधिकार माँगता है और विशु उसको हा कहता है । 

                  जब नरसिंहदेव धर्मपद का धन्यवाद करते हैं तब धर्मपद चालुक्य का षड्यंत्र कहता है; कयोंकि वह एक दिन के लिए महाशिल्पी हैं । जब नरसिंहदेव का पता चला तब तक देर हो चुकी थी । चालुक्य ने एक षडयंत्र रचा था  । सारे सैन्य को लेकर मंदिर को घेर लिया और शैवालिक दूत को भेजा तब धर्मपद बहुत अच्छा उत्तर देकर उससे युद्ध करने की हा कहता है । वह सारा कार्य  संभल लेता है । बारहसों शिल्पी और दूसरे  मजदूरों सैनिक बनते हैं और चालुक्य के सामने युद्ध करते हैं । पर चालुक्य रात्रि का नियम तोड़ कर मंदिर के अंदर घुस जाता हैं, उस समय विशु को पता चलता हैं कि धर्मपद हीं उसका बेटा है । पिता-पुत्र का मिलन होता है पर धर्मपद शिल्पीओं को न्याय देने के लिए फिर से युद्ध के लिए जाता हैं  । चालुक्य के सैनिक उसको मार देते हैं । तब विशु सूर्यमूर्ति के कक्ष में जाकर चुम्बक पर प्रहार करता है तब वहाँ चालुक्य और उसके सैनिक और सौम्यश्री पहोच जाते हैं पर विशु नहीं रुकता आखिर में कोणार्क मंदिर टूट जाता हैं । चालुक्य और उसके सैनिक मारे जाते है तथा विशु भी उसमें मृत्यु के घाट उतर जाता हैं । सौम्यश्री बच जाता है  । यहाँ इस नाटक का करुणता के साथ अंत होता हैं । 

 3. पात्रसृष्टि:-

             साहित्य की प्रत्येक  रचनाओ में पात्र होना अनिवार्य है । पात्र रचना का प्राण है  । उनके ही आधार से रचना का कथ्य आगे बढ़ता है । पात्र ही रचना का मूल उद्देश्य दृश्यपट पर प्रकट  करता हैं । कोणार्क नाटक में भी जगदीशचंद्र  माथुर ने उच्चकोटि की पात्रसृष्टि का सृजन  किया । कोणार्क नाटक में मुख्य पात्र के रूप में महाशिल्पी विशु हैं । जिसनें कोणार्क मंदिर का निर्माण किया है । मगर हमे धर्मपद भी मुख्य पात्र के समान ही लगता हैं । माथुर जी ने पिता के गुण को पुत्र में बहुत ही आकर्षक ढंग से  रखे हैं । प्रतिनायक की भूमिका महामात्य चालुक्य अदा करता हैं । जिसके कारण पूरे नाटक में कितनी ही समस्याएँ पैदा होती हैं और उन सभी समस्याओं को हल करने में सौम्यश्री, नरसिंहदेव, राजीव, महेन्द्र वर्मन और अन्य शिल्पी गण सहाय करते हैं । बीच में विशु की प्रेमिका तथा सूर्य कुंति का वर्णन भी ध्यान आता है । वैसे तो जगदीशचंद्र माथुर ने नाटक में गौण पात्रों को भी एक अनोखे ही तरीके से प्रेक्षकों के सामने प्रस्तुत किया हैं । येसे हम कोणार्क नाटक की पित्रा-सृष्टि के माध्यम से सफल कह सकते हैं । नाटक की कथा, ऐतिहासिक वातावरण और उद्देश्य को सफलता प्रदान करने पात्र काफी रोचक एवम् जीवंत लगते हैं ।

    

(4) संवाद-योजना :-

              संवाद के बीना नाटक संभव ही नहीं, नाट्य रचना में संवाद का होना आवश्यक एवं अनिवार्य है । संवाद के बिना रचना संभव ही नहीं है । संवाद सरल, सचोट, आकर्षक एवं छोटे होने चाहिए । लंबे-छोड़े  संवाद रचना की सफ़लता के बाधक हैं । नाटक को प्रभाव हीन बना देते हैं । संवाद के माध्यम से ही रचना का कथानक आगे बढ़ता है और दर्शक एवं पाठक कथानक को स्पष्ट समज सकते हैं । कोणार्क नाटक में संवाद योजना लेखक ने बहुत अच्छे तरीके से निर्मित की है । सभी यात्रों की मनोदशा तथा आंतरिक-बाह्य व्यक्तित्व की समझ देती हैं ।  उदाहरण दृष्टव्य हैं, 

           विशु :- “आज इस युवक ने ठंडी होती हुई राख को फूंक मारकर प्रज्वलित कर दिया हैं ।“ 

            यह संवाद हमें धर्मपद के अनोखे व्यक्तित्व की समझ  देता हैं  ।

           धर्मपद :- “बहुत हुआ, बहुत हुआ, दूत । क्या हम भेड़-बकरियाँ हैं, जो चाहे जिसके हवाले कर दिये जाये ।“

            चालुक्य :- “ सुन लो और कान खोल कर सुन लो । आज से एक सप्ताह के अंदर यदि कोणार्क  देवालय पूरा नहीं हुआ तो, तुम लोगों के हाथ काट लिए जाएंगे । “

           इन सभी चोटदार संवादों के कारण नाटक की घटनाएँ ही बदल जाती हैं । अतः नाटक के संवाद कथा, पात्र, परिवेश, देश्-काल, उद्देश्य और आंतरिक तथा बाह्य संघर्ष के अनुकूल हैं । पाठक और दर्शक के मन-मस्तिष्क में चीरकाल तक जिन्दा रहने वाले हैं।  जो एक मंझे हुए लेखक की पहचान हैं ।  


  (5) भाषा-शैली :-

        साहित्य में अभिव्यक्ति का माध्यम ही भाषा होती हैं।  साहित्य की सभी रचनाओ में भाषा शैली का अलग ही महत्त्व है । कहा जाता हैं कि “जैसा शील वैसी शैली ।“ यहाँ पर लेखक का जैसा शीलवान वैसी ही उनकी रचनाओं की शैली । कोणार्क नाटक में भी जगदीशचंद्र माथुर ने उत्तम कोटी की भाषा शैली का प्रयोग करके अपने नाटक को सफलता प्रदान की है । कोणार्क नाटक में भाषा शैली का प्रयोग बहुत ही सरल और भावमय प्रवाह से हुआ है । पिता-पुत्र के मीलन के वक़्त तथा विशु-सौम्यश्री को जब अपने प्यारी प्रेमिका सारिका की बात बताता है, तब माथुर ने भावमय शब्दों का प्रयोजन किया हैं । शुद्ध हिन्दी नाटक की भाषा हैं  । कथ्य पौराणिक होने के कारण कहीं-कही प्राचीन संस्कृत शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । कहीं भी कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं हैं । परंतु ऐतिहासिक शब्दों का प्रयोग हुआ है, फिर भी कोणार्क नाटक की भाषा-शैली सरल है । चित्रात्मक शैली का प्रयोग तथा प्रतिदीप्ति शैली का भी प्रयोग हुआ है  और इन सबके कारण भाषा-शैली के माध्यम से नाटक सरल-सफल कहा जा सकता हैं ।


(6) देशकाल और वातावरण :-

            साहित्यिक रचना में देशकाल और वातावरण का प्रयोग  बहुत ही मायने रखता हैं । जो पाठक को रचना का समय, स्थान और परिवेश का ज्ञान हो जाये तो उसके लिए रचना को समझना और भी आसान हो जाता है । इसीलिए किसी भी रचना में देशकाल और वातावरण का प्रयोग अनिवार्य बन जाता हैं । जगदीशचंद्र माथुर अपने कोणार्क नाटक की कथा के पात्र के माध्यम से देशकाल और वातावरण निर्मित किया हैं ।

                    जगदीशचंद्र माथुर ने नाटक का समय सन् 1960 के करीब का दर्शाया है । अतः पूरा नाटक ऐतिहासिक हैं । इसके कारण देशकाल और वातावरण भी ऐतिहासिक हैं । समय तो दर्शाया गया हैं और स्थान भी कोणार्क मंदिर तथा प्रधान शिल्पी विशु के कक्ष में ही पुरे नाटक की घटनाएँ इन दोनो स्थान पर ही घटित होती हैं । अद्भुत मूर्तियाँ तथा निराधार सूर्यमूर्ति का भी वर्णन आता हैं । मंदिर के बाहर सैनिक घोड़े, हाथी तथा ऐसी आवाज़े का वर्णन भी मिलता हैं । पुरा वातावरण ही ऐतिहासिक हैं, कहीं भी आधुनिकता के दर्शन नहीं होता । सब शिल्पियों के कार्य का वर्णन हूबूहू अंकित हैं और वातावरण भी कुछ ऐसा ही हैं । पत्थरों के टूटने की आवाज़ और नयी-नयी मूर्तियों का निर्माण भी माहोल को अलग बनाता है । जब महामात्य चालुक्य और नरसिंहदेव तथा विशु और अन्य शिल्पीयों के बीच युद्ध होता हैं तब वातावरण वीर रस से पूर्ण और गंभीर बन जाता है । जब विशु को पता चलता हैं कि धर्मपद ही उसका बेटा है और उन दोनों का मिलन होता हैं, उस दौरान वातावरण अचानक करुणा तथा आनंद में बदल जाता हैं । इस तरह जगदीशचंद्र माथुर अपने नाटक में वातावरण के जरिये पाठकों एवं दर्शकों को कभी करुणा तो कभी आनंद में लहराते हैं । नाटक में देशकाल और वातावरण की वज़ह से नाटक प्रसिद्ध  और लोकप्रिय बना हैं  । 

(7)  शीर्षक :-

               शीर्षक किसी भी रचना का प्रवेशद्वार होता हैं । शीर्षक कथा के अनुकूल, पात्र के नाम तथा प्रसंग एवं स्थान के माध्यम से रखा जाता हैं  । शीर्षक छोटा, सचोट और सारगर्भित होना चाहिए । कथा के अनुकूल होना चाहिए । रचना किसी भी चीज तथा पात्र का बार-बार जिक्र आता है तो वहीं रचना का शीर्षक रख दीया दिया जाता हैं । कभी कोई लेखक घटना के माध्यम से भी रचना का शीर्षक रख देते हैं । अतः शीर्षक रचना का मस्तक हैं ।

             कोणार्क  नाटक का शीर्षक छोटा एवं सरस है । जगदीशचंद्र माथुर कथा के अनुकूल शीर्षक रखा है । अपने नाटक की पुरी घटनाएँ कोणार्क सूर्यमन्दिर में घटित हुई हैं । इसलिए लेखक अपने इस नाटक का शीर्षक कोणार्क रखा है । जो यथार्थ और सार्थक भी है । कोणार्क मंदिर के कारण ही कथा इतनी रोचक बनपायी हैं । इसलिए शीर्षक भी तो ‘कोणार्क’ ही उचित होगा ? शीर्षक के माध्यम से पूरा नाटक और भी सफल हुआ हैं । पूरी कथा ऐतिहासिक हैं; इसलिए शीर्षक भी उनके अनुकूल ही होना चाहिए ।  जगदीशचंद्र माथुर ने इन सभी बातों को ध्यान में रखकर नाटक का शीर्षक ‘कोणार्क’ रखा है।  जो आज भी पाठकों और दर्शकों के दिलों में राज करता है ।

(8)  उद्देश्य :-

             संसार का कोई भी कार्य उद्देश्य बगैरह नहीं होता । तो फिर नाट्य रचना उद्देश्य बीना कैसे हो सकती हैं ? किसी भी रचना में उद्देश्य  छुपा ही होता हैं । फिर चाहे हास्य की रस से हो या फिर हास्य-व्यंग्य और कटाक्ष करके उद्देश्य को जाहिर कर ही देता हैं ।  जगदीशचंद्र माथुर कोणार्क में ईन्सान कोई भी काम करने का ठान ले तो उसे पूरा करके ही दम लेता है । यह उद्देश्य नाटक में प्रधान हैं । जगदीचंद्र माथुर अपनी सभी रचनाओं में समस्याएँ तथा उद्देश्य को ज्यादा प्रधानता देते हैं । उसके कारण ही कथा वास्तविक तथा रोचक बन जाती हैं । कोणार्क नाटक में अपने अधिकार के लिए जान से भी खेल ने वाले धर्मपद तथा अन्य शिल्पीयों के माध्यम से अन्याय का सामना करना यही उद्देश्य देते हैं । विशु समाज के डर से अपने सच्चे प्यार को छोड़ कर भाग जाता हैं । इसी प्रकार लेखक समाज की कुरीतियों को दर्शाकर उसका सामना डटकर करना चाहिए यही उद्देश्य देता हैं । फिर सौम्यश्री जैसे मित्र अपनी मित्रता कैसे निभाता हैं ।  नरसिंहदेव के माध्यम से प्रजावात्सल तथा वफादार राजा के दर्शन करवाया है ।  राजा या साशक हो तो नरसिंहदेव जैसे होना चाहिए । लेखक यह भी स्पष्ट करते हैं कि किसी भी मानवी को छोटा नहीं समझना चाहिए । इस बात को शिल्पियों के आधार पर बताया हैं और बूरे कर्म करने वालों के साथ हंमेशा ही बूरा ही होता हैं । इस कुदरती सत्य को भी स्पष्ट किया हैं । यह बात चालुक्य तथा उसके सैनिकों  के माध्यम से दिखाया हैं और यहाँ पर पुरुषार्थ का भी उद्देश्य दिया गया है । विशु की साधना के कारण ही कोणार्क जैसा भव्य मंदिर बन सका । वैसे तो सभी पात्रों तथा सभी घटनाओं में उद्देश्य छीपा हुआ  है । इन सभी बातों को ध्यान में रखकर हम कोणार्क नाटक को उद्देश्य की दृष्टि से कफी सफल कह सकते हैं ।


(9) रंगसंकेत :-

            हिन्दी साहित्य की अन्य गद्य विद्याओं से हटकर एकांकी और नाटक में रंगसंकेतों तथा रंगमंचीयता का समावेश होता हैं । नाटक में  रचनाकार पात्र की क्रिया, उनका वर्णन, किसी भी घटना का वर्णन आदि सूचना को रंगसंकेतों के माध्यम से प्रस्तुत करता हैं । जगदीचंद्र माथुर कोणार्क नाटक में  रंगसंकेतों का प्रयोजन बहुत ही अच्छे से किया हैं । सभी बातों का ध्यान में रखकर किया हैं । रंगसंकेतों को सूत्रधार एवम् वाचिकाएँ वाचक बताता है । वातावरण को भी रंगसंकेतों के आधार पर दर्शाकर कथा को लंबी नहीं बनने देते  और मंच पर भी उसका दृश्य बताना नहीं पड़ता । वैसे तो जगदीशचंद्र माथुर ने भी अपने नाटक में  रंगसंकेतों का संकेत अच्छे से बताया हैं । 


(10) रंगमंचीयता :-

                  नाटक और एकांकीयों में  रंगमंचीयता का निरूपण किया जाता हैं।  रंगमंचीयता नाटक एवम् एकांकी का महत्त्वपूर्ण अंग हैं । जो नाटक तथा एकांकीयों और भी ज्यादा रोचक बना देता हैं । कोणार्क नाटक में लेखक रंगमंचीयता आकलन बहुत ही अच्छा किया हैं । रंगमंच पर केवल गिने-चुने ही पात्रों का प्रवेश किया जाता हैं । ज्यादा पात्र अगर मंच पर आ जाये तो वह मंच पर भीड हो जाती हैं । नाटक का संघर्ष भी रंगमंच पर प्रस्तुत करके नाटककार रंगमंचीयता को सँवारते हैं । युद्ध के वातावरण को प्राकृतिक वातावरण के साथ जोड़कर नाटक की शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन यह संभव हो तब ही हो पाता हैं, जब लेखक रंगमंचीयताता ज्ञाता हो । यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रंगमंच की दृष्टि से भी कोणार्क नाटक हिन्दी पाठकों और दर्शकों के पसंदीदा नाटक में से एक नाटक हैं ।

Thursday, 1 July 2021

पंचवटी के राम का चरित्र-चित्रण

(१) प्रस्तावना :-

               मैथिलीशरण गुप्त राम के अनन्य भक्त थे । पंचवटी खंडकाव्य के अतिरिक्त अन्य कृतियों में भी राम का यशोगान किया हैं । गुप्त जी 'साकेत' में राम के प्रति अपनी अनन्य श्रद्धा प्रकट करते हुए कहते हैं कि "राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है ।"(साकेत-मैशिलीशरण गुप्त) इस प्रकार कवि ने प्रस्तुत काव्य में राम का दर्शन काव्यारंभ और काव्यान्त में करवायें हैं । राम का संबंध केवल उस घटनाओं से है कि जिसमें उषा-बेला के समय सीता अपने देवर लक्ष्मण को शूर्पणखा के साथ बाते करते हुये देखकर स्वयं राम को कुटिया से बाहर नया दृश्य देखने बुलाती है । तब से लेकर पंचवटी में राम, लक्ष्मण और सीता के सामने आई विघ्नों-बाधाओं से मुक्त होकर सामान्य मनुष्य की तरह अपना जीवनयापन करने लगते हैं । कवि पंचवटी खंडकाव्य में राम के जीवन की बहुत सीमित रेखाएँ अंकित करते हैं, लेकिन इसके द्वारा राम के जीवन की महत्वपूर्ण विशेषताओं को स्पष्ट कर दिया हैं । 


(२) आदर्श प्रजा पालक :-

           भारतीय संस्कृति में कहा जाता है कि राज्य कैसा होना चाहिए ? यही उत्तर मिलता है, राम राज्य । किसी भी राज्य के राजा का पहला दायित्व होता हैं कि वे अपनी प्रजा कल्याण करें । कवि ने इस कविता में राम के चरित्र को प्रजापालक और वात्सल्य मूर्ति के रूप में चित्रित किया हैं । राम का व्यवहार पशु-पक्षी तथा सामान्य से सामान्य मनुष्य के प्रति समभावपूर्ण रहा है । राम का जीवन शबरी और निषाद के लिए भी ममत्वपूर्ण रहा हैं । राजा केवल राज महेल तक मर्यादित नहीं रहते ! वे जहाँ रहेंगे वहीं राज्य करेंग और उनके राज्य में सब मुक्त होकर अपना जीवन-यापन करते हैं । राम के ह्दय में सर्व-कल्याण की भावना ही विद्यमान रहती हैं । 


"जो हो, आर्य रहते हैं, 

                      वहीं राज्य वे करते हैं,

उनके शासन में वनचारी 

          सब स्वछन्द विहरते हैं ।"

                                      (पंचवटी-पृ.10)

      

                 प्रस्तुत पंक्तियों में राम के द्वारा संचालित भय मुक्त और एक आदर्श राज्य व्यवस्था की उदाहरण स्थापित किया हैं । रामराज्य में शेर व बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं । राम अपने राज्य के अंतिम से अंतिम मानवी का दुःख-दर्द समझते हैं -


"गुह निषाद शबरों तक का मन

                   रखते हैं प्रभु कानन में ।"

                                     (पंचवटी, पृ.19)


(३) सहनशीलता का पर्याय :-

              'रामायण' और 'रामचरितमानस' के अन्तर्गत राम के पात्र में सहशीलता कूट-कूट कर भरी पडी हैं । उसी तरह गुप्त जी ने 'पंचवटी' खंड-काव्य में भी राम चरित्र के आदर्श गुणों खरोंच तक आने नहीं दी । राम को सहनशील और संतुलित राजा के रूप में चित्रित किया हैं । प्रतिकूल परिस्थितियों में भी राम अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने में समर्थ है । उषा के आलोक में लक्ष्मण और शूर्पणखा का संवाद जब विषादयुक्त बन जाते हैं । उस समय सीता राम को परिस्थिति को संभाल ने को आमंत्रित करती हैं, परंतु जैसे ही शूर्पणखा राम को देखती है तो राम के प्रति लालाईत एवं आकृष्ट हो जाती हैं । कान्त तुम्हीं मेरी जयमाला सी वरमाला स्वीकार करों । शूर्पणखा का यह मत प्रत्यक्ष रूप से आपत्तिजनक था, ब्लकि राम मानसिक संतुलन के साथ संयमित होकर उत्तर देते है । तुम्हें कहने की आवश्यकता नहीं हैं । तुम्हारी वाणी और आकृति ही तुम्हारें मनोभावों को प्रकट करती हैं ।


"राघवेन्द्र रमणी से बोले-

                      बिना कहें भी यह वाणी,

आकृति से ही तुम्हारी

                      प्रकटित है हे कल्याणी 

निश्चय अद्भुत गुण हैं तुममें,

                      फिर भी मैं यह कहता हूँ-

गृहत्याग करके भी वन में

                       सपत्नीक मैं  रहता हूँ  ।"

                                     (पंचवटी-पृ. 44)


              राम शूर्पणखा को बहुत संयत ढंग से समझातें हैं कि तुम सर्वगुण संपन्न हो, किन्तु मैं  वन में अपनी पत्नी के साथ ही रहता हूँ । यहाँ राम चरित में अन्तर्गतभूल मर्यादा और सहनशीलता प्रकट होती हैं । जो राम के चरित्र को और भी ऊँचाई प्रदान करते हैं ।


(४) राम का ममत्वभाव :- 

              कवि ने पंचवटी खंडकाव्य में राम के चरित्र को संवेदनशील और ममत्वपूर्ण चित्रित किया हैं । राम का ह्दय ममता का अगाध समुद्र हैं । जिससे काव्य के प्रत्येक पात्र तृप्त होते हैं । ममता का यह निर्बाध प्रवाह तीन रूप से प्रवाहित हैं । एक अपने परिवार के प्रति, दो अपने भक्तों एवं प्रजा के लिए तथा तीसरा पशु-पक्षी व समग्र प्रकृति के प्रति दिखाई पडता हैं । सीता के कहने पर लक्ष्मण ने घड़ा उठा लिया तब राम के अंदर की ममता प्रकट होती हैं-


"तनिक देर ठहरो, मैं देखूँ

                        तुम देवर-भाभी की ओर,

शीतल करुँ ह्दय यह अपना

                         पाकर दुर्लभ हर्ष-हिलोर ।"

                                     (पंचवटी-पृ.56)


(५) दूरदर्शी व्यक्तित्व :-

           पंचवटी खंडकाव्य में राम के चरित्र की एक विशेषता यह भी हैं कि वे दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी हैं । जहाँ लक्ष्मण कभी-कभी अपने जीवन में उग्रता से पेश आते हैं । वहाँ राम का व्यवहार बिलकूल सहज, स्वाभाविक और दूरदर्शी होता है । जब शूर्पणखा ने लक्ष्मण के सामने वरमाला ग्रहण करने का प्रस्ताव रखती हैं । उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप लक्ष्मण शूर्पणखा को मानवी, दानवी, वनदेवी एवं अंततः चण्डी का संबोधन कर देते हैं । पर राम इसके विपरीत सारी परिस्थिति में अत्यन्त सहजता से प्रस्तुत होते हैं ।  वे न आवेश में आते है और न अपना मानसिक संतुलन बिगडने देते हैं । राम यह जानते है कि शूर्पणखा जैसे-तैसे करके लक्ष्मण को प्राप्त करने के लिए दृढ संकल्प हैं, फ़िर भी राम जानते हैं कि सच्चा प्रेम स्वयं उत्पन्न होता न कि भय या स्वार्थ से । राम अपने भाव को इस प्रकार व्यक्त करत हैं-


"बोले तब रघुराज-तुम्हारा

                        ऐसा ही क्यों न हो प्रताप ।

किन्तु प्राणियों के स्वभाव की

                          होती है ऐसी ही रीति,

पर-वशता हो सकती है पर

                         होती नहीं भीति में प्रीति ।"

                                      (पंचवटी-पृ. 46)

           

              राम ने शूर्पणखा के जीवन व्यवहार को पशु जैसा व्यवहार कहा है । मनुष्य विवश हो सकता हैं, लेकिन भय से कभी प्रेम को पाया नहीं जाता हैं ।


(६) मानव सहज विनोदमय :-

          कवि ने राम के चरित्र में मानव सहज विनोवृत्ति का गान किया हैं । जिससे पात्र सहज, सजीव और स्वाभाविक लगते हैं । राम के विनोद में मानव गरिमा एवं मर्यादा की निर्वाह बराबर होता रहा है । कहीं पर भी राम के आदर्श गरिमापूर्ण जीवन को दाग नहीं लगा । कवि ने काव्य में राम के विनोद को दो जगह पर प्रस्तुत किया हैं । एक-जब शूर्पणखा राम के प्रति आसक्त होती है तो राम रहज यह कहकर लक्ष्मण ओर भेज देते हैं कि इस वन में सपत्नीक रहता हूँ तथा तुम पहले तो मेरे अनुज लक्ष्मण के प्रति आसक्त थी । इसीलिए तुम मेरी अनुजा हुई । अब उन्हें तुम अपने वश में करलो तो परम धन्य होगी ।


"किन्तु विवाहित होकर भी यह

                         मेरा अनुज अकेला है,

मेरे लिये सभी स्वजनों की

                         कर आया अवहेला है ।"

                                      (पंचवटी-पृ. 44)


"इसके इसी प्रेम को यदि तुम

                        अपने वश में कर लोगी,

तो मैं हँसी नहीं करता हूँ,

                        तुम भी परम धन्य होगी। "

                                     (पंचवटी-पृ. 45)


           काव्य के अंत में शूर्पणखा को विकलांगीनी कर के छोड दिया जाता है  तथा सीता और लक्ष्मण को गृह काम में एक साथ देखकर अपने मधुर भाव व्यक्त करते हैं । इस प्रकार कवि ने राम के चरित्र में मर्यादा पालन एवं आदर्श गुण के साथ मानवीय सहज गुणों का चित्रण किया है ।


(७) निष्कर्ष  :-

             मैथिलीशरण गुप्त ने 'पंचवटी' खंड-काव्य में प्रमुखतः राम, सीता, लक्ष्मण और शूर्पणखा के पात्रों द्वारा सजृत किया है । कवि ने सभी पात्रों की सांस्कृतिक गरिमा अक्षुण्ण रखकर काव्य को उद्देश्य तक पहुँचया हैं । यह एक महान कवि की  पहचान होती हैं । पंचवटी के राम आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, पत्नी के लिए आदर्श पति और प्रजा के लिए आदर्श व वात्सल्यमय राजा है । फिर भी राम के पात्र को मानवीय सहज विशेषताओं से गूम्फित किया है । राम के लिए राज वैभव की तरह वन वैभव भी सुख व संतोष पूर्ण है । राजा-प्रजा भी एक समान हैं ।

                              ***********@*********

शबरी खण्ड-काव्य

शबरी(खण्ड-काव्य) : नरेश मेहता
शबरी - नरेश मेहता
1) श्री नरेश मेहता का जन्म कब हुआ था  ?

- 15 फरवरी 1922

- 15 अगस्त 1922

- 14 मई 1980

- 1 अप्रैल 2020


2) श्री नरेश मेहता का जन्म कहाँ हुआ था ?

- मध्यप्रदेश-मालव क्षेत्र-शाजापुर कस्बा

- गुजरात का सौराष्ट्र  

- न्यू दिल्ली 

- पंजाब 


3) श्री नरेश मेहता का जन्म किस परिवार में हुआ था  ?

- सुंघनीशाहू 

- कृष्ण गोखले 

- वैष्णव परिवार 

- मेडता शाखा


4) श्री नरेश मेहता के पिता का नाम-

- रामचरण राय

- रामचंद्र शुक्ल 

- वासुदेव शरण

- पं. बिहारीलाल


5) श्री नरेश मेहता की  माता नाम-

- भानुमति 

- शैलजा कुमारी

- शांतिबाई

- सुन्दर बाई


6) श्री नरेश मेहता के पिता कितनी बार शादी करते हैं ?

- एक

- दो

- तीन

- चार


7) श्री नरेश मेहता के पिता पं. बिहारीलाल की पत्नी का नाम बताईए ।

- एक भी नहीं 

- निम्न दोनों

- सुन्दर बाई 

- शांति


8) श्री नरेश मेहता कितने साल के थे वब माता का देहान्त हो जाता हैं ?

- एक साल

- दो सल

- ढाई साल

- चार साल


9) श्री नरेश मेहता का पारिवारिक नाम-

- जुगल किशोर

- मणीशंकर

- जटाशंकर 

- पूर्ण शंकर शुक्ल 


10) नरेश मेहता को माता की मृत्यु के बाद कौन पालता-पोषता हैं  ?

- शंकर बिहारी मिश्र 

- चाचा शंकरलाल जी शुक्ल मेहता

- राम नरेश

- जिग्नेश जोशी


11) श्री नरेश मेहता को ‘नरेश’ नाम किसने दिया है ?

- महाराजा जयसिंह 

- कृष्णकुमारसिंह जी

- नरसिंहगढ की राजमाता

- कृष्ण भक्त कवि


12) नरेश मेहता ने दसवीं तक की शिक्षा कहाँ से प्राप्त की ?

- रायगढ

- नरसिंहपुर 

- राजापुर 

- नरसिंह गढ


13) नरेश मेहता कब तक आकाशवाणी की नौकरी से जुड़े रहे थे ?

- सन् 1948 से 1953

- सन् 1924 से 1980

- सन् 1950 से 1953

- सन् 1890 से 1900


14) “नया तो मेरा युग है, मेरी प्रकृति है तथा सबसे बड़ा मैं हूँ ।”- येसा अनने किस वक्तव्य में कहते है ?

- तार सप्तक के वक्तव्य 

- दूसरे तार सप्तक के वक्तव्य 

- तीसरा तार सप्तक के वक्तव्य 

- चौथा तार सप्तक के वक्तव्य 


15) नरेश मेहता के नाम के पीछे ‘मेहता’ क्यो लगता है  ?

- पारिवारिक नाम 

- कुल नाम 

- दिया गया नाम

- उपनाम


16) नरेश मेहता ने निर्मल वर्मा के साथ मिलकर कौन सी पत्रिका निकाली थी ?

- साहित्य सेतु 

- साहित्यकार (दूसरे अंक तक बंद)

- आलोचना 

- नवनीत समर्पण 


17) नरेश मेहता उज्जैन में किस पीठ के आचार्य रहे थे ?

- शारदा पीठ

- विद्या पीठ

- प्रेमचंद पीठ

- नागरी सभा 


18) नरेश मेहता ने इन्दौर से निकलने वाले किस दैनिक के संपादक रहे हैं ?

- इन्डियन टूडे

- दैनिक जागरण 

- Times of India 

- चौथा संसार 


19) ‘भारतीय श्रमिक’ और ‘कृति’ पत्र संपादक नरेश मेहता के सहयोगी संपादक कौन थे ?

- श्रीकांत वर्मा 

- निर्मल वर्मा 

- धर्मवीर भारती 

- प्रेमचंद 


20) “कहीं कुछ भी नहीं बदलता, यह हमारा बहुत बड़ा भ्रम है कि हम क्रान्ति से स्थिति बदल देंगे ।”- यह किसका विधान है ?

- यशपाल 

- अज्ञेय 

- प्रेमचंद 

- नरेश मेहता 


21) नरेश मेहता को भारतीय साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ कब मिलाता हैं  ?

- सन् 1940

- सन् 1990

- सन् 2018

- सन् 1992


22) नरेश मेहता को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार किस रचना पर दिया गया हैं  ?

- वनपाखी सुनो 

- तुम मेरा कौन हो

- समग्र साहित्य के लिए 

- तथापि और शबरी 


23) नरेश मेहता को हिन्दी में प्रेमचंद के ‘गोदान’ उपन्यास से कहीं अधिक प्रभावकारी रचना कौन सी प्रतीत होती है ?

- त्यागपत्र 

- निर्मला

- छप्पर 

- परीक्षा गुरु 


24) कवि को ‘अरण्या’ के लिए कौन सा पुरस्कार दिया गया है  ?

- भारतीय ज्ञानपीठ 

- साहित्य अकादमी 

- भारत-भारती

- कबीर सम्मान


25) नरेश मेहता का काव्य के संबंध में क्या मत रहा है ?

- निम्नलिखित हैं-

“जांगलिकता से सांस्कृतिकता की ओर, देह से मन की ओर, जडत्व से चेतनत्व की ओर मानवीय यात्रा सम्पन्न हुई, इसका एकमात्र प्रमाण-काव्य है ।”


26) “अपने में से फूल को जन्म देना, कितना उदात्त होता है 

यह केवल वृक्ष जानता है 

और फल

वहतो जन्म-जन्मान्तरों के पुण्यों का फल है ।”- कवि की इन पंक्तियों में निहित भाव क्या है ?

- ऋजुता से आत्मविस्तार 

- प्रकृति के माध्यम द्वारा 

- एक भी नहीं 

- प्रथम और द्वितीय 


27) “अविश्वास मत करना

प्रत्येक पगडण्डी से मानुष-गंध आती है 

किसी भी मन्त्र को सूँघो

किसी भी स्त्रोत्र को छुओ

मानुष गध और जयकार दिखाई देगी ।”- ये किस कवि की पंक्ति है ?

- हरिवंशराय बच्चन 

- रामधारीसिंह दिनकर

- श्री नरेश मेहता 

- सूरदास 


28) श्री नरेश मेहता के काव्य संग्रह ‘वनपाखी सुनो’ का रचना काल क्या है  ?

- सन् 1957

- सन् 1990

- सन् 1810

- सन् 1967


29) बनपाखी सुनो में कितनी कविताएँ हैं  ?

- 17

- 27

- 97

- 89


30) ‘बोलने दो चीड़ को’ 1962 किस प्रकार का संकलन है ? 

- नाट्य संकलन

- निबंध संग्रह 

- कहानी संग्रह 

- कविता संग्रह 


31) ‘मेरा समर्पित एकांत’ रचना समय-

- सन् 1780

- सन् 1962

- सन् 1990

- सन् 1923


32) ‘समय देवता’ किस प्रकार की कविता है  ?

- खंडकाव्य 

- महाकाव्य 

- लंबी कविता 

- हाईकु 


33) ‘समय देवता’ किस संकलन में संकलित है ?

- मेरा समर्पित एकांत भाग-1

- मेरा समर्पित एकांत भाग-2

- उत्सवा

- तुम मेरा कौन हो 


34) नरेश मेहता का काव्य संग्रह ‘उत्सवा’ (1971) किस पृष्ठभूमि पर संरचित है  ?

- प्रकृति चित्रण और उपनिषद चिंतन 

- वैष्णव संस्कार 

- अद्वैत भाव 

- उक्त तीनों 


35) कवि के किस काव्य संग्रह की कविताओं को ‘वैयक्तिक वैष्णव की कविताएँ’ की संज्ञा से अभिहित किया है ?

- तुम मेरा कौन हो-1982

- आखिर समुद्र से तात्पर्य-1988

- पिछले दिनों नंगे पैरों-1989

- देखना, एक दिन-1990


36) पिछल दिनों नंगे पैरों (1989) निम्नलिखित चार खंडों में विभाजित हैं-

-निम्न चारों 

- रागमन ले

- खून टपकाते

- इतिहास से निरपेक्ष 

- काव्य की 


37) नरेश मेहता के दस काव्य संग्रहों  में से चयनित काव्यों के संकलन नाम क्या है ?

- समिधा-दो खंड-2000

- चैत्या-1993

- देखना एक दिन-1990

- अरण्या-1985


38) नरेश मेहता ने कुल मिलाकर कितने खंडकाव्य काव्य लिखें हैं ?

- पाँच

- एक

- तीन

- सौ


39) नरेश मेहता का खंडकाव्य  ‘संशय की एक रात’(1967) किस छंद में लिखा गया है ?

- मुक्त छंद 

- दोहा

- सोरठा

- हरिगीतिका 


40) संशय की एक रात खंडकाव्य का कथाधार क्या है ?

- कृष्णकथा

- प्रेमकथा

- सतिकथा 

- रामकथा 


41) नरेश मेहता ने महाभारत के महाप्रस्थानिक पर्व पर आधारित कौन से खंडकाव्य की रचना की ।

- संशय की एक रात-1967

- महाप्रस्थान-1975

- शबरी-1979

- प्रवाद-पर्व


42) ‘महाप्रस्थान’ खंडकाव्य कितने और कौन-कौन खंडों में विभक्त हैं ?

- अयात्रा पर्व

- स्वाहा पर्व

- स्वर्ग पर्व

- तीन और उक्त तीनों


43) कवि ने ‘प्रवाद पर्व’ में किन समस्याओं का वर्णन किया हैं ?

- राजनैतिक शक्ति 

- प्रशासन या लोकतंत्र 

- राजनीतिक 

- उपरोक्त तीनों 


44) प्रार्थना पुरूष(1985) खंडकाव्य काव्य की विशेषता-

- गाँधी गाथा

- इतिवृत्तात्मक लघुकृति 

- काव्य का नया रुप

- उपरोक्त तीनों 


45) नरेश मेहता के निम्न उपन्यासों को कालक्रमानुर चयन करें। 

- डूबते मस्तुल

- यह पथ बंधु था

- धूमकेतु एक श्रृति

- दो एकांत 

उत्तर : (अ) 1-3-4-2 (ब) 4-3-2-1 (क) 2-3-4-1 (ड) 1-2-3-4


46) निम्न लिखित रचना के प्रकाशन वर्ष अनुसार कौन सा युग्म सही नहीं हैं ?

- डूबते मस्तुल-1954

- यह पथ बंधु था-1962

- धूमकेतु एक श्रृति-1963

- दो एकांत-2000

उत्तर (अ) 1 (ब) 2 (क) 3 (ड) 4


47) नरेक मेहता ने कालावधि के आधार पर कौन सा उपन्यास लिखा है  ?

- डूबते मस्तुल

- यह पथ बंधु था

- धूमकेतु एक श्रृति

- दो एकांत 


48) डूबते मस्तुल उपन्यास का  कथारंभ और अंत कहाँ होता हैं  ?

- शाम और सुबह 

- दिन के साढ़े बारा बजे

- दूसरे दिन की प्रत्युष बेला

- दूसरा और तीसरा


49) नरेश मेहता रचित उपन्यासों में कोसा नहीं हैं  ?

- नदी यशस्वी है-1971

- उत्तर कथा प्रथम खण्ड-1979

- उत्तर कथा द्वितीय खण्ड-1983

- उत्सवा-1971


50) नदी यशस्वी है-1971 किस उपन्यास का दूसरा खंड हैं  ?

- डूबते मस्तुल

- यह पथ बंधु था

- धूमकेतु एक श्रृति

- दो एकांत 


51) नरेश मेहता की दो नाट्य रचना-

- सुबह के घण्टे-1955

- खण्डित यात्राएँ-1962

- उक्त दोनों

- एक भी नहीं 


52) नरेश मेहता के नाटक और एकांकी संग्रह का नाम बताईए। 

- पिछली रात की बरफ-1962


53) नरेश मेहता के छः एकांकीयों का संकलन-

- सनोवर के फूल-1962


54) सनोवर के फूल किसके जीवन पर आधारित है  ?

- कृष्ण 

- राधा

- गौतम बुद्ध 

- कबीर 


55) नरेश मेहता के कहानी संग्रह-

- तथापि-1962

- एक समर्पित महिला-1968

- उक्त एक

- उक्त दोनों 


56) ‘राम पलाश के फूल सिया कचनार कली’-1991 यात्रा-वृत्तांत  किस साप्ताहिक में प्रकाशित हुआ था ?

- साप्ताहिक हिन्दुस्तान 

- जनता की आवाज़ 

- जनकल्याण 

- केसरी


57) ‘साधु न चले जमात’-1991 का साहित्य प्रकार पहचाने-

- कहानी

- जीवनी

- यात्रा-वृत्तांत 

- आत्माकथा


58) नरेश मेहता ने ‘वाग्देवी प्रतिनिधि संकलन’-1972 कितने और कौन-कौन से भाग में विभाजित हैं  ?

- निम्न चार

- परा

- पश्यन्ती

- मध्यमा

- वैखरी


59) नरेश मेहता के प्रमुख विचारात्मक लेख-

- मुक्तिबोध: एक अवधूत कविता 

- शब्द पुरूष-अज्ञेय 

- हिन्दी कविता का वैयक्तिक परिप्रेक्ष्य 

- उपरोक्त तीनों 


60) नरेश मेहता का निधन कब हुआ था ?

- 22 नवम्बर, 2000

- 23 जनवरी, 2000

- 24 फरवरी 1990

- 5 मई 1999

----------------------------------------------------------------------

61) ‘शबरी’ खंडकाव्य किसकी रचना है?

- जगदीचंद्र माथुर 

- जयशंकर प्रसाद 

- श्री नरेश मेहता 

- राजेन्द्र यादव


62) ‘शबरी’ खंडकाव्य में किस युग की कथा वर्णित है ?

- महाभारत काल 

- आधुनिक युग 

- त्रेता युग 

- भक्ति काल 


63) ‘शबरी’ खंडकाव्य का प्रथम प्रकरण कौन सा हैं ?

- परीक्षा

- तपस्या 

- त्रेता 

- दर्शन 


64) शबरी की ‘झोपड़ी’ किस सरोवर के किनारे बनी हुई थी ?

- नारायण सरोवर

- गोमती घाट 

- पम्पासर 

- मानसरोवर 


65) ‘शबरी’ का मूल नाम क्या हैं?

- सरस्वती 

- सोमवती 

- श्रमणा

- भक्तिन


66) ‘शबरी’ ज्ञान प्राप्त हेतु किसके आश्रम में  जाती हैं  ?

- चाणक्य 

- गौतम बुद्ध  

- मतंगऋषि

- भ्रृगुऋषि 


67) ‘शबरी’ के आराध्य कौन है ?

- कृष्ण 

- शंकराचार्य 

- राम

- गौतम बुद्ध 


68) ‘शबरी’ किस समय अपना घर छोड़ती हैं ?

- सूर्योदय के समय 

- शाम के समय 

- अर्धरात्रि समय

- प्रभात के समय


69) खंडकाव्य काव्य एक लक्षण हैं ।

- समग्र जीवन का चित्रण 

- ऐतिहासिक घटना का वर्णन

- जीवन का किसी एक अंश या भाग का चित्रण 

- सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन 


70) ‘शबरी’ खंडकाव्य का अंतिम प्रकरण कौन सा है ?

- तपस्या 

- पम्पासर 

- दर्शन 

- समाज


71) ‘शबरी’ खंडकाव्य कितने खंडों में विभाजित हैं  ?

- चार

- पाँच 

- सात

- तीन 


72) ‘शबरी’ खंड-काव्य कब लिखा है  ?

- सन् -1999

- सन् -2003

- सन् -1979

- सन् -1989 


73) ‘शबरी’ की कथा किस कथा से जुड कर पावन हो गई हैं  ?

- वन-कथा

- श्रवण-कथा

- राम-कथा

- कृष्ण-कथा


74) ‘त्रेता युग’ में किस सभ्यता का विकस हो रहा था ?

- पाश्चात्य 

- भक्तिमय 

- आदिवासी 

- कस्बे और नगर 


75) त्रेता युग में यात्राएँ कैसी थी ?

- सरल

- कठिन

- सुगम

- आसान


76) त्रेता युग में व्यापारी अपना माल किस पर लाद कर व्यापार के लिए जाते थे ?

- खच्चर

- हाथी

- नौका

- पैदल


77) त्रेता युग में वन्य जातियाँ किस पर अपना जीवन-यापन करती थी ?

- पशु

- पक्षी 

- मछली

- उपरोक्त तीनों 


78) ‘शबर’ क्या हैं ?

- नाम

- स्थान

- जाति

- व्यक्ति 


79) ‘शबरी’ का मूल नाम क्या है ?

- शबर

- श्रमणा

- भक्ति 

- एक भी नहीं 


80) ‘शबरी’ को अपने परिवार के लोग कैसे लगते हैं  ?

- विद्वान

- ममत्वपूर्ण 

- वीभत्स और हत्यारे

- वंदनीय


81) शबरी सब बंधनों में श्रेष्ठ बंधन को कमिसको मानती है ?

- परिवार 

- समाज 

- प्रभु

- राजनीति 


82) ‘शबरी’ किस पक्ष में अपना घर छोडती है ?

- कृष्ण पक्ष 

- शुक्ल पक्ष 

- उक्त दोनों 

- एक भी नहीं 


83) शबरी घर छोडकर कहाँ जाती है  ?

- जलसरोवर

- पम्पासर किनारे ऋषि-आश्रम

- राम मंदिर 

- शहर 

84) शबरी मतंगऋषि के आश्रम में कौन सी पिपासा लेकर जाती है  ?

- अध्यात्म 

- राजनीति 

- सांसारिक

- शारीरिक 


85) मतंग ऋषि आश्रम का कौन सा कार्य सौंपते हैं 

- गौशाला पालन

- आश्रम जीवन

- एक भी नहीं 

- उपरोक्त दोनों 


86) ‘शबरी’ सपने में क्या दिखाई देता है ?

- सखियों का कच्चें खाना

- पशुओं का काँपना

- उपरोक्त दोनों 

- उपरोक्त पहला


87) शबरी प्रकृति से भी निर्मम किसको कहती है ?

- दानव सा मानव

- शिकारी प्राणी

- पक्षी 


88) ‘मर्मर’ शब्द का अर्थ-

- पत्तों से हिलने से होने वाली ध्वनी

- धीमे से होने वाली सरसराहट

- मंद या खडखड ध्वनि 

- उपरोक्त तीनों


89) शबरी के लिए जीवन का प्रथम पाठ क्या था ?

- आश्रम जीवन पालन

- गायों को पालना

- गुरु की आज्ञा पिलन

- अपने पर अंकुश रखना


90) अपनी कुटिया में ‘शबरी’ रात्रि कैसे बीतती हैं  ?

- सोते रहकर

- रात जागकर

- पूजा-अर्चन

- जानवरों से बचने  


91) ईश्वर की विशाल रचना में ‘शबरी’ अपने आपको किसके समान मानती है  ?

- गरुड़ या हंसी

- घास-पात 

- महाबली

- दुःखी नारी


92) “अपमान और बदनामी, तो मामूली बातें हैं, पीड़ा, दु:ख देना, ये तो लोगों की प्रिय घातें हैं ।“ – उक्त पंक्तियाँ ‘शबरी’ खंड-काव्य  के किस खंड से ली गई है ?

- पम्पासर 

- दर्शन 

- परीक्षा 

- समाज 


93) मतंग-ऋषि कथा प्रवचन में किन-किन सतियों के साथ शबरी का दृष्टांत सुनाते थे ? 

- सावित्री 

- अनसूया 

- सीता

- मात्र प्रथम दो 


94) आश्रमवासी क्यों येसा मानते थे कि पम्पासर का पानी दूषित हो गया हैं ?

- पशु मर गया

- बारिश हुई नहीं 

- सब स्नान करने जाते

- शूद्रा के छूने से


95) शबरी को रात्रिकालीन दुर्घटना से कौन बचाता है ?

- राम-लक्ष्मण 

- शबरी का पति

- मतंग-ऋषि 

- आश्रमवासी 


96) राम-लक्ष्मण किसके चरणों में वंदन करते हैं  ?

- शबरी

- आश्रमवासी 

- मतंग-ऋषि 

- किसी के भी नहीं 


97) ‘राम’ वन में कौन सा प्रयोजन लेकर आये थे ?

- निम्न सभी 

- मिथ्या प्रवाद को मिटाने 

- शबरी और मतंगऋषि को निष्कलंक करने

- शबरी को दर्शन देने


98) “शबरी तो जगज्जननि है । मैं हुआ आज ही पावन ।“-यह पंक्ति किसकी है ?

- आश्रमवासी 

- राम

- लक्ष्मण 

- मतंगऋषि 


99) “मैं तो आया हूँ केवल । करने जयकार सति का । मैं हूँ कृतार्थ पाकर यह । स्वागत-सत्कार सती का ।“- कवि इन पंक्तियों में किस सती की बात की है ?

- मन्दोदरी

- सती-सावित्री 

- सती-अनसूया 

- शबरी


100) “शूद्रा से शक्ति बनी वह । सम्भव सब कुछ जीवन में ।“- प्रस्तुत पंक्तियाँ किस काव्य से ली गई है ?

- उर्वशी 

- उर्मिला 

- शबरी

- गौतमी

--------------------------------------------------

उत्तर :- 

1) 15 फरवरी 1922

2) मध्यप्रदेश-मालव क्षेत्र-शाजापुर कस्बा

3) वैष्णव परिवार

4) पं. बिहारीलाल

5) सुन्दर बाई

6) तीन

7) निम्न दोनों

8) ढाई साल

9) पूर्ण शंकर 

10) चाचा शंकरलाल जी शुक्ला 

11) नरसिंहगढ की राज माता 

12) नरसिंहगढ 

13) सन् 1948 से 1953

14) दूसरे सप्तक के वक्तव्य

15) उपनाम

16) साहित्यकार (दूसरे अंक तक)

17) प्रेमचंद पीठ 

18) चौथा संसार 

19) श्रीकांत वर्मा

20) नरेश मेहता 

21) सन् 1992

22) समग्र साहित्य पर

23) त्यागपत्र 

24) साहित्य अकादमी 

25) निम्न 

26) प्रथम और द्वितीय 

27) नरेश मेहता 

28) सन् 1957

29) 27

30) कविता संग्रह 

31) सन् 1962

32) लंबी कविता 

33) मेरा समर्पित एकांत भाग-2

34) उक्त तीनों 

35) तुम मेरा कौन हो-1982

36) निम्न चारों

37) चैत्या-1993

38) पाँच 

39) मुक्त छंद 

40) रामकथा

41) महाप्रस्थान-1975

42) तीन और उक्त तीनों 

43) उक्त तीनों 

44) उक्त तीनों 

45) (ड)

46) (ड)

47) डूबते मस्तुल 

48) दूसरा और तीसरा 

49) उत्सवा-1972

50) धूमकेतु एक श्रुति 

51) उक्त तीनों 

52) पिछली रात की बरफ1962

53) सनोवर के फूल-1962

54) गौतम बुद्ध 

55) उक्त तीनों 

56) साप्ताहिक हिन्दुस्तान 

57) यात्रा वृतांत 

58) निम्न चार

59) उपरोक्त तीनों 

60) 22 जनवरी, 2000

61) श्री नरेश मेहता 

62) त्रेता युग 

63) त्रेता 

64) पम्पासर 

65) श्रमणा 

66) मतंगऋषि 

67) राम

68) अर्धरात्रि समय

69) जीवन का किसी एक भाग या अंश

70) दर्शन 

71) पाँच

72) सन् 1979

73) रामकथा 

74) कस्बे और नगर 

75) कठिन 

76) नौका

77) उपरोक्त तीनों 

78) जाति

79) श्रमणा 

80) वीभत्स और हत्यारें

81) प्रभु

82) कृष्ण पक्ष 

83) पम्पासर किनारे ऋषि आश्रम 

84) अध्यात्म 

85) उपरोक्त दोनों 

86) उपरोक्त दोनों 

87) दानव सा मानव

88) उपरोक्त तीनों 

89) अपने पर अंकुश रखना

90) पूजा-अर्चन

91) घास-पात

92) परीक्षा 

93) मात्र प्रथम दो

94) शूद्रा के छूने से 

95) मतंगऋषि 

96) मतंगऋषि 

97) निम्न सभी प्रयोजन 

98) राम

99) शबरी

100) शबरी

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