Monday, 1 November 2021

हिंदी साहित्य वस्तुनिष्ठ

1) डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी की प्राणधारा किसे मानी है ? - अपभ्रंश

2) 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के रचनाकार कौन है ? - नाभादास

3) 'आल्हा-खंड' किस रासो ग्रंथ का मूल रूप है ? - परमाल रासो

4) पश्चिमी हिंदी किस अपभ्रंश से विकसित है ? - शौरसेनी

5) हिंदी साहित्य के भक्तिकाल पर बौद्ध धर्म का प्रभाव किसने माना है ? - राहुल सांकृत्यायन

6) ‘प्रबंध चिंतामणि’ के रचनाकार कौन है ? -मेरुतुंग

7) ‘अरे यायावर रहेगा याद’ यात्रा साहित्य के लेखक कौन है ? - अज्ञेय

8) “प्रज्ञा नावनवोन्मेषशालिनी प्रतिभामता” उक्ति किसकी है ? - भट्ट तौन

9) किस नाटककार को रंगमंच का कवि माना जाता है ? - जयशंकर प्रसाद

10) ‘पीली आंधी’ के लेखिका कौन है ? - प्रभा खेतान

11) ‘सुदामा चरित’ किसकी रचना है ? - नरोत्तमदास

12) ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास के लेखक कौन है ? - कमलेश्वर

13) “हमारो उत्तम भारत देश” - किस कवि की काव्य पंक्ति है ? - राधा कृष्ण गोस्वामी

14) प्रथम हिंदी पत्र का नाम क्या है ? - भारत मित्र

15) ‘भाषा योग वशिष्ठ’ लेखक कौन है ? - रामप्रसाद निरंजनी

16) रीतिकालीन वीर काव्य के रचनाकार है ? - सूदन

17) रस की अभिव्यक्तिवाद की व्याख्या किसने की है ? - अभिनव गुप्त

18) ‘विवाह योग’ किसका निबंध है ? - कुबेर नाथ राय

19) ‘रचनात्मक बोध के विविध रूप’ निबंध के लेखक कौन है ? - आचार्य रामचंद्र शुक्ल

20) ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ निबंध के रचयिता कौन है ? - विद्यानिवास मिश्रा

21) ‘पगडंडियों का जमाना’ निबंध के लेखक - गुलाब राय

22) ‘यात्री’ किसका उपनाम है ? - नागार्जुन

23) गुरु भक्त सिंह का अपना क्या है ? - भक्त

24) ‘हितैषी’ किसका उपनाम है ? - जगदंबा प्रसाद

25) ‘मिलिंद’ किसका उपनाम है ? - जगन्नाथ

26) ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ इतिहास ग्रंथ के लेखक कौन है ? - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

27) ‘भक्तमाल’ के रचयिता कौन है ? - नाभादास

28) ‘हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष’ किस का इतिहास ग्रंथ है ? - शिवदान सिंह चौहान

29) रामकुमार वर्मा के इतिहास ग्रंथ का नाम क्या है ? - हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास

30) ‘माधुरी’ पत्रिका के संपादक - मुंशी प्रेमचंद

31) ‘हंस’ पत्रिका के संपादक - मुंशी प्रेमचंद

32) ‘कवि वचन सुधा’ के संपादक कौन है ? - भारतेंदु हरिश्चंद्र

33) ‘वागर्थ’ पत्रिका के संपादक - विनोद व्यास

34) ‘विशाल-भारत’ पत्रिका के संपादक - बनारसी दास चतुर्वेदी

35) “भारत माता ग्रामवासिनी” किसकी पंक्ति है ? - सुमित्रानंदन पंत

36) “सखा प्यारे कृष्णा के गुलाम राधा रानी के” किसकी पंक्ति है ? - भारतेंदु हरिश्चंद्र

37) “ये उपमान मैले हो गये हैं” किसने कहा - अज्ञेय

38) ‘कृष्ण गीतावली’ किसकी रचना है ? - गोस्वामी तुलसीदास

39) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को नवीन धारा के कवि किसने माना ? - जयशंकर प्रसाद

40) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के यथार्थवादी गीतों का आधार क्या है ? - प्रतीकात्मक

41) जयशंकर प्रसाद के अनुसार निराला ने हिंदी साहित्य को कौन सा सुंदर उपहार दिया ? - गीतिका

42) निराला का दार्शनिक पक्ष कैसा है ? - गंभीर

43) ‘छत्तीसगढ़ी’ किस उपभाषा की बोली है ? - पूर्वी हिंदी

44) आदिकाल को ‘बीजवपन’ काल किसने कहा ? - मिश्रा बंधु 

45) ‘तमस’ किसका उपन्यास है ? - भीष्म साहनी

46) “साहित्य जनता के चित्तवृतियों का संचित प्रतिबिंब है” - ऐसा किसने  ? - महावीर प्रसाद द्विवेदी

47) “साहित्य ज्ञान राशि का संचित कोष है” - यह किसकी उक्ति है ? - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

48) नंदादास, मीरां और रसखान किसके भक्त है ? - कृष्ण

49) ‘बकरी’ किसकी प्रसिद्ध रचना है ? - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

50)  ‘वाच्यार्थ’ और ‘व्यंग्यार्थ’ को अभिव्यंजना कौन मानता है ? - क्रोचे

51) ‘प्रियप्रवास’, ‘रस कलस’, ‘वैदेही वनवास’ और ‘बोलचाल’ किसकी किसकी रचनाएं हैं ? - अयोध्यासिंह  उपाध्याय ‘हरिऔध’

52) ‘रस कलस’ किस भाषा में रचित है ? - ब्रजभाषा

53) ‘प्रियप्रवास’ का साहित्य स्वरूप बताइए । - महाकाव्य

54) ‘प्रियप्रवास’ किस बोली का प्रथम महाकाव्य है ? - खड़ी बोली

55) ‘प्रियप्रवास’ का रचना काल क्या है ? - ई. सन १९१४

56) ‘एक कंठ विषपायी’ का काव्य स्वरूप क्या है ? - गीतिनाट्य

57) अज्ञेय ने ‘तार सप्तक’ कब निकाला था ? – ईस्वीसन 1943

58) बालमुकुंद गुप्त, प्रताप नारायण मिश्रा एवं राधाचरण गोस्वामी किस मंडल के कवि हैं ? -  भारतेंदु हरिश्चंद्र

59) संविधान के किस अनुच्छेद में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया है ? - अनुच्छेद 343

60) हिंदी की किस बोली में ने परसर्ग लगाया जाता है ? - खड़ीबोली

61) ‘वैशाली की नगरवधू’ उपन्यास के लेखक कौन है ? - चतुरसेन शास्त्री

62) ‘मर्यादा’ किस काल की पत्रिका है ? - महावीर प्रसाद द्विवेदी युग

63) ‘मेरा नाटक काल’ के लेखक कौन है ? - भारतेंदु हरिश्चंद्र

64) ‘त्रिलोचन’ का मूल नाम क्या है ? - वासुदेव सिंह

65) ‘नागार्जुन’ का असली नाम क्या है ? - वैद्यनाथ मिश्रा

66) ‘राहुल संस्कृत्यायन’ का मूल नाम क्या है ? - केदार पांडे

67) ‘रास पंचाध्यायी' के कवि - नंददास

68) ‘सूर सारावली’ के रचयिता कौन है ? - सूरदास

69) ‘आत्मनेपद’ किसका निबंध संग्रह है ? - अज्ञेय

70) ‘छत्रसाल दशक’ किसकी रचना है ? भूषण

71) ‘रामचंद्रिका’ के कवि - केशवदास

72) ‘नूतन ब्रह्मचारी’ किसका उपन्यास है ? -  बालकृष्ण भट्ट

73) ‘गोदान’ का रचना काल - ईस्वीसन 1936

74) ‘ब्रह्म संप्रदाय’ बाद में कौन से संप्रदाय के रूप में प्रचलित हुआ ? - दादू पंथ

75) ‘सखी संप्रदाय’ के प्रवर्तक - हरिदास

76) ‘गरीबा पंथ’ के प्रवर्तक - संत गरीबदास

77) ‘राधा वल्लभ’  संप्रदाय  - गोसाई हित हरिवंश

78) ‘बावरी पंथ’ - बावरी साहिबा

79) ‘औघड़ पंत’ का संबंध किससे रहा है ? - गोरखनाथ

80) ‘विशिष्टा अद्वैत’ वाद की स्थापना किसने की ? - रामानुजाचार्य

81) हिंदी का पहला साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ कहां से प्रकाशित हुआ था ? - कोलकाता

82) ‘वीरगाथा काल’ को किसने ‘आदिकाल’ का नाम दिया ? - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

83) आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काल विभाजन और नामकरण का प्रमुख आधार क्या है ? - काव्य प्रवृत्तियों की विशिष्टता

84) हिंदी की पहली कहानी लेखिका कौन है ? - बंग महिला

85) प्रयोगवाद के प्रवर्तक कौन माने जाते हैं ? - अज्ञेय

86) “दुख ही जीवन की कथा रही क्या कहूं आज जो नहीं कहीं” - किस कवि की पंक्ति है ? - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

87) “हाय रुक गया यही संसार बना सिंदूर अनल अंगार” पंक्ति में कौन सा रस है ? - करुण रस

88) डॉ. नगेंद्र मूलत: किस कोटि के आलोचक है ? - रसवादी

89) आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना पत्रिका का  प्रमुख तत्व कौन सा है ? - लोक मंगल की दृष्टि

90) ‘यथार्थवाद’ के उदय का प्रमुख कारण क्या है ? - अति कल्पना का विरोध

91) “बिद्धशाल भंजिका” ग्रंथ के लेखक कौन हैं ? - राजशेखर

92) नरेश मेहता, नेमी चंद्र जैन और हरिनारायण व्यास किस परंपरा के कवि है ? - तार सप्तक

93) ‘ध’ - किस प्रकार की ध्वनि है ? सघोष महाप्राण

94) ‘अंधायुग’ किसकी रचना है ? - धर्मवीर भारती

95) काव्य में उदात तत्व को सर्वाधिक महत्व किसने दिया ? - लोंजाइनस

96)  ‘भाग्यश्री’ के लेखक कौन है ? - श्रद्धा राम फुल्लौरी

97) ‘आ’ - कैसा स्वर है ? - पश्च स्वर

98) ‘कुटज’ के लेखक कौन है ? - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

99) ‘पहल’ पत्रिका के संपादक कौन है ? -  ज्ञानरंजन

100) ‘जिंदगी और जोंक’ किसकी रचना है ? -  अमरकांत

101) भारतीय संविधान में किन अनुच्छेदों में राजभाषा संबंधी उल्लेख है ? - अनुच्छेद 343 से 351 तक

102) ‘हिंदी शब्द सागर की भूमिका’ का उपयोग हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में किसने किया था ? - आचार्य रामचंद्र शुक्ला

103) ‘आनंद कादंबिनी’ पत्रिका के संपादक कौन है ? - बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन

104) ‘ध्वन्यालोक’ किसकी कृति है ? - आनंदवर्धन

105) दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का मुख्यालय कहां स्थित है ? - चेन्नई 

106) हिंदी भाषा के विकास का सही अनुक्रम क्या है ? - पाली – प्राकृत - अपभ्रंश और हिंदी.

107) हिंदी में किस लेखक ने साहित्य का इतिहास सबसे पहले लिखा ? - शिवसिंहजी सेंगर

108) ‘अभिव्यंजनावाद’ के प्रवर्तक कौन है ? - क्रोचे

109) ‘हिंदी व्याकरण’ किसका ग्रंथ है ?-  कामता प्रसाद गुरु

110) किशोरी दास वाजपेई ने हिंदी भाषा से संबंधित कौन सा ग्रंथ लिखा है ? – हिंदी शब्दानुसाशन 

111) ‘हिंदी भाषा का उद्भव और विकास’ किसका ग्रंथ है ? - उदय नारायण तिवारी

112) ‘भाषा और समाज’ किसका ग्रंथ है ? -  रामविलास शर्मा

113) ‘आत्मजयी’ किसकी रचना है ? - कुंवर नारायण

114) “धरती के कवि” कौन हैं ? - त्रिलोचन

115) ‘आंगन के पार द्वार’  किसकी रचना है ? - अज्ञेय

116) ‘धूप के धान’ किसकी कविता है ? - गिरिजाकुमार माथुर

117) ‘शुद्ध कविता की खोज’ किसने लिखा ? - रामधारी सिंह दिनकर

118)   ‘एक साहित्यिक की डायरी’ किसकी रचना है ? - मुक्तिबोध

119) ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ किसका ग्रंथ है ? - हजारी प्रसाद द्विवेदी

120) “भक्तिहीं ज्ञानहीं नहीं कछु भेदा” किसने कहा है ? गोस्वामी तुलसीदास

121) “हम राज्य लिए मरते हैं” किसकी पंक्ति है - मैथिलीशरण गुप्त

122) “बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाई” के कवि कौन है ? - बिहारी

123) “बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है” - किसने कहा ? - आचार्य रामचंद्र शुक्ला

124) “अधिकार सुख कितना मादक और सार हिन है” - किसका गद्यांश है ? - जयशंकर प्रसाद

125) “निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल” - किसका गद्यांश है ? - भारतेंदु हरिश्चंद्र

126) “मर्द साठे पर पाठे होते हैं” किस लेखक का है ? - मुंशी प्रेमचंद

127) ‘करुण’ रस का स्थाई भाव क्या है ? - शोक

128) “साधारणीकरण आलंबन धर्म का होता है” ऐसा किसने कहा ? - आचार्य रामचंद्र शुक्ल

129) “रस गगन गुफा मैं अजर झरे” किसकी बनती है ? - कबीर

130) “परहीत सरिस धर्म नहिं भाई । पर पीड़ा सम नहिं आधमाई ।।“ पंक्ति के रचयिता कौन है ?- गोस्वामी तुलसीदास

131) “केसव कहि न जाय का कहिए” - पंक्ति किस कवि की है ? - गोस्वामी तुलसीदास

132) ‘रस-प्रबोध’ पुस्तक के रचनाकार कौन है ? - रसलीन

133) ‘नई कविता’ पत्रिका का प्रकाशन किस शहर से होता है ? - प्रयाग

134) “अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा हीन । अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत प्रवीन ।“ -  देव

135) ‘विनय पत्रिका’ के रचनाकार कौन है ? -  गोस्वामी तुलसीदास

136) ‘साकेत’ किसका महाकाव्य है ? - मैथिलीशरण गुप्त

137) ‘हिंदी महाभारत’ किसकी रचना है ? - महावीर प्रसाद द्विवेदी

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Sunday, 10 October 2021

शोध-प्रबंध का प्रारूप

Ph.D. format
Dissertation format

 महाराजा कृष्णकुमारसिंहजी भावनगर विश्वविद्यालय, भावनगर की कला संकाय के हिन्दी विषय में विद्यावाचस्पति (पीएच.डी.) की पदवी हेतु प्रस्तुत शोध-प्रबंध की रूपरेखा




दलित सर्जकों के हिन्दी उपन्यासों में अंकित समस्याएँ : एक अध्ययन




शोध-छात्र

भवा कनुभाई करशनभाई

हिन्दी भवन

महाराजा कृष्णकुमारसिंहजी भावनगर विश्वविद्यालय, भावनगर





शोध-निदेशक

प्रो.(डॉ.)एच.एन.वाघेला

हिन्दी भवन

महाराजा कृष्णकुमारसिंहजी भावनगर विश्वविद्यालय, भावनगर






       जनवरी-२०१४           


       

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प्रस्तावना :- 

              साहित्य और समाज का सम्बन्ध अनादिकाल से जुडा हुआ है | साहित्य में समाज का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से झलकता है | साहित्य समाज द्वारा ही निर्मित होता है | साहित्य का आधार समाज रहा हैं और समाज का आधार भी मनुष्य रहा हैं | जो समाज से आता है यानी दोनों एक दुसरे के पूरक रहे है | मनुष्य सामाजिक प्राणी है |  समाज में रह कर वह अपना सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, तथा सांस्कृतिक विकास करता है | विकास यानी परिवर्तन और परिवर्तन के साथ नई समस्याएँ भी पैदा होने लगती है | इन समस्याओं को प्राचीन समय से लेकर आज तक के साहित्यकारों ने साहित्य में चित्रित करने का प्रयास किया हैं और साहित्य के जरिए मिटाने का प्रयास भी किया गया है | समसामयिक हिन्दी दलित साहित्यकारों ने भी आलोच्य उपन्यासों में दलित समाज की समस्याओं को विस्तृत फलक पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है | दलित समाज में पायी जाने वाली परम्परित और नयी समस्याओं का कथा, पात्र, परिवेश एवं विमर्श के माध्यम से पाठकों के सामने रखने का सफल प्रयास किया है | मैंने प्रस्तुत शोध-प्रबंध में  समस्याओं के साथ सर्जक का व्यक्तित्व, सर्जकत्व तथा आलोच्य उपन्यासों को  उत्तर आधुनिकता विमर्श के संदर्भ में भी समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है | मेरे शोध विषय का शीर्षक "दलित सर्जकों के हिन्दी उपन्यासों में अंकित समस्याएँ : एक अध्ययन " है |


परम श्रध्देय गुरुवर्य प्रो.एच.एन.वाघेलजी (हिन्दी भवन, महाराजा कृष्णकुमारसिंहजी भावनगर विश्वविद्यालय, भावनगर) के निर्देशन में प्रस्तुत शोध-प्रबंध संपन्न हुआ है | जिसका विषय चयन से लेकर शोध-प्रबंध की पूर्णता तक मुझे सम्यक मार्गदर्शन मिलता रहा है |  हिंदीत्तर प्रदेश में मेरे इस कार्य को पूर्ण करने में अनेक ग्रंथालयों और व्यक्तियों का सहयोग मिला हैं | जिसका आभार व्यक्त करता हूँ | हिन्दी दलित साहित्य की उपन्यास विधा पर शोध-कार्य करने के लिए अनुमति प्रदान कर पूर्ण करने वाले मेरे गुरु प्रो.एच.एन.वाघेला जी का ह्दय से आभार व्यक्त करता हूँ, जिनकी कृपा की यह फलश्रुति है |



भावनगर,

दिनांक : १७/०१/२०१४    

                                                 विनीत                                            

                                     भवा कनुभाई करशनभाई


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 अनुक्रम



प्रस्तावना


(१) दलित साहित्य की अवधारणा


(२) दलित साहित्य की विकास यात्रा


(३) प्रमुख दलित उपन्यासकारों का व्यक्तित्व व कृतित्व


(४) समस्या का अर्थ, संकल्पना, स्वरूप व प्रकार


(५) दलित सर्जकों के उपन्यासों में अंकित समस्याएँ


(६) उत्तर-आधुनिकता विमर्श और दलित उपन्यास


निष्कर्ष 


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प्रथम अध्याय 'दलित साहित्य की अवधारण' शीर्षक से लिखने का प्रयास किया गया है | इसमें दलित शब्द का शब्दकोशीय अर्थ, दलित शब्द की परिभाषा, दलित साहित्य की परिभाषा तथा दलित साहित्य के स्वरूप को विद्वानों के मतानुसार स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है | 'दलित' शब्द को हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, मराठी, अंग्रेजी भाषा के शब्दकोशों में प्राप्त अर्थ को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है | जिसमें अधिकत्तर विचारक दलित शब्द को व्यापक धरातल पर प्रस्तुत करते है | भारत में वैदिक काल से लेकर आज तक  दलित शब्द को लेकर विभिन्न भाषा के अनेकविध विद्वानों ने अपने विचार रखे हैं | जिसमे मैंने दलित साहित्यकार और दलितेत्तर साहित्यकार द्वारा प्रदत्त परिभाषाओं को रखने का प्रयास किया हैं | प्रमुख रुप में मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम, ओमप्रकाश वाल्मीकि, कुसुम मेघवाल, शरणकुमार लिम्बाले, कँवल भारती आदि हैं | 'दलित साहित्य' की सर्व सामान्य परिभाषा एक भी नहीं है, लेकिन दलित साहित्य को अवधारणात्मक दायरे में बांधने का सफल प्रयास कई साहित्यकार विद्वानों ने किया हैं | उनमें दलित साहित्यकार के साथ सवर्ण साहित्यकारों का योगदान भी रहा हैं | दलित साहित्यकार अपने विचारों कुछ हद तक सीमित दायरे में रख कर व्यक्त करते तो सवर्ण साहित्यकार अपने विचारों विस्तृत ढंग से अभिव्यक्त करते हैं | मराठी साहित्य के प्रभाव स्वरूप विश्व की अन्य भाषाओँ की भांति हिन्दी भाषा में दलित साहित्य लेखन शुरू हुआ और आज इन्हों ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना लिया हैं | दलित साहित्य की परिभाषा में दो मत प्रचलित है, एक दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य एवं दलितेत्तर साहित्यकारों का दलित साहित्य | दलित साहित्य मानवता का पक्षधर है | अमानवता, शोषण, अत्याचार, अन्याय, अधर्म, अंधविश्वास, अशिक्षा का विरोध करके समता, समानता, एकता से युक्त सामाजिक संरचना का आह्वान करता हैं | इन विचार-विमर्श को ससंदर्भ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है | हिन्दी दलित साहित्य ने हिन्दुस्तानी साहित्य जगत में अपनी जगह बना ली हैं | दलित साहित्य ने अपना  स्वरूप और सौन्दर्य शास्त्र भी निर्मित कर लिया हैं | दलित साहित्य भारतीय समाज जीवन में स्थित मानवीय मूल्यों के प्रति सजग होकर सामजिक परिवर्तन को दिशा निर्देश करता हुआ नवीन, सुगम, सुन्दर समाज निर्माण की कामना करता हैं |  दलित साहित्य दलित समाज के मन का दर्पण, मन का आलेख, दस्तावेज, अस्त्र और संघर्ष का प्रतीक है | निषेध, विद्रोह, नकार और संघर्ष दलित साहित्य के मूल हैं | अत: संक्षेप में दलित साहित्य के स्वरूप को प्रस्तुत करेने की कोशिश की हैं |


दूसरा अध्याय 'दलित साहित्य की विकास यात्रा' शीर्षक के अंतर्गत निरुपित करने का प्रयास किया है | हिन्दी दलित साहित्य आधुनिक है, लेकिन दलित साहित्य के विकास की प्राचीन परम्परा भी रही है | जिसको ससंदर्भ विकासात्मक ढंग से रखने का प्रयास किया है | आधुनिक  हिन्दी दलित साहित्य ने आन्दोलन का रूप सन १९८० के बाद धारण किया | जो मराठी साहित्य के प्रभाव स्वरूप अस्तित्व में आया था |  पूर्व वैदिक काल के साहित्य में दलित साहित्य या दलित इतिहास जैसा लिखित ग्रन्थ उपलब्ध नहीं | कवष, एलूष, महिदास, ऐतरेय, काक्षीवान, सत्यकाम आदि वैदकालीन साहित्यकार रहे हैं | जिन्होंने कलात्मक प्रतीकों के द्वारा अपने विचारों को प्रस्तुत किया हैं | इन साहित्यिक बातों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है | उत्तर वैदिककाल में ब्राह्मणों के आधिपत्य के कारण अत्याचार चरमसीमा पर पहुँच गया तो महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी का विरोध सामने आया | बौद्ध धर्म की महायान शाखा ने जाति व्यवस्था पर कठोरता पूर्वक चौट की | दलित और छोटी जातियों को अभिव्यक्ति करने का पहली बार अवसर मिला था | इस परम्परा को सिद्धों और नाथों ने आदिकाल में आगे बढायी | इन सम्प्रदायों में ब्रह्मणों से लेकर शूद्र तक दीक्षित थे | आदिकालीन सिद्ध साहित्य युगीन वैमनस्य के प्रति विद्रोह व्यक्त करता है | जिसमें दलितों को समता, प्रतिष्ठा और न्याय प्रदान करने का दृष्टिकोण रहा है | भक्तिकाल में साहित्य के इतिहास के अंतर्गत निर्गुण भक्ति के माध्यम से सामाजिक असमानता, जात-पात, ऊँच-नीच, कर्मकांड, भेदभाव, ब्राह्मणवाद आदि पर सीधी चौट करते हुए समानता, सदभाव और भाईचारे पर जोर दिया है | नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास, चोखामेला, कबीर, रविदास, नानक, दादू दयाल, मलूकदास, सुन्दरदास आदि संतों ने सरल हिन्दी भाषा में अपने विचारो की अभिव्यक्ति की है | हिन्दी साहित्य का रीतिकाल सभी दृष्टियों से अनुर्वर और पतन का काल रहा है, लेकिन देव, पद्माकर जैसे कवियों ने अशिक्षित जनता को शिक्षित करके समाज सुधार किया था | रीतिकाल में दलित साहित्य की खास कोई परंपरा नहीं मिलती | आधुनिक काल में हिन्दी दलित साहित्य नये कलेवर में सामने आता है | शिक्षित और जागृत साहित्यकारों ने अपने विचारों को व्यक्त किया | जिन्होंने हिन्दी साहित्य जगत में अलग पहचान बनाई हैं |  स्वातन्त्रोत्तर हिन्दी दलित साहित्य ही दलित साहित्य की वास्तविक शुरुआत है | गद्द और पद्द दोनों विधाओं दलितों की व्यथा-कथा को विस्तृत धरातल पर वाणी मिली | जिसमें आदर्शवाद कम और यथार्थवाद अधिक नजर आता है | समकालीन हिन्दी साहित्य में विपुल मात्रा में दलित साहित्य की रचना हो रही है | दलित साहित्य के प्रचार क्षेत्र और लोकप्रियता की बाढ़ सी आई है | इन विचारों को हिन्दी दलित साहित्य के संदर्भ में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है |


तृतीय अध्याय 'प्रमुख दलित उपन्यासकारों का व्यक्तिव व कृतित्व' शीर्षक में विभक्त करने का प्रयास किया है | जिसमें जयप्रकाश कर्दम, रूपनारायण सोनकर, मोहनदास नैमिशराय, सत्यप्रकाश और प्रेम कपाडिया के व्यकतित्व-कृतित्व संबंधित विचारों को व्यक्त करने की कोशिश की है  | साहित्य का जितना महत्त्व होता है, उतना ही साहित्यकार के व्यक्तित्व का महत्त्व पाया जाता है | आलोच्य सभी उपन्यासकार साहित्यकार के आलावा एक अच्छे व्यक्तित्व के धनी है | प्रमुख उपन्यासकारों के व्यक्तित्व के अंतर्गत जन्म, जन्म स्थान, परिवार, बचपन, शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-व्यवसाय, लग्न, अभिरुचि के क्षेत्र, लेखन के प्रेरणा स्रोत, प्रिय साहित्यकार  आदि पहलूओं पर दृष्टिपात करने का प्रयास किया गया है |  साहित्यकार के व्यक्तित्व के साथ साहित्यिक सर्जन को भी रेखांकित करना अनिवार्य होता है | उपन्यास, कहानी, नाटक, गीत, ग़ज़ल, आत्मकथा, बालसाहित्य, कविता, आलोचना, शोध आलेख, अनुवाद साहित्य, संपादन आदि विधाओं में उनके साहित्यिक सर्जन को प्रस्तुत किया है | इन सभी साहित्यकारों ने हिन्दी दलित साहित्य के ज्ञान भंडार को समृद्ध किया है | अपनी साहित्यिक रचनाओं में सभी साहित्यकारों ने मानव को मानव बनाने वाले विचारों को ही अभिव्यक्ति दी है | भाषिक संरचना भी कथ्य, घटना, चरित्र और परिवेश के अनुकूल प्रयोजित है | हिन्दी दलित साहित्यकारों को विशिष्ट साहित्यिक योगदान के लिए काफी सम्मान और पुरस्कार प्राप्त है | इस प्रकार साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है|

      चतुर्थ अध्याय-'समस्या का अर्थ, संकल्पना, स्वरूप व प्रकार' शीर्षक से लिखने का प्रयास किया है | समस्या का सम्बन्ध व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक रहता है | भारतीय समाज में अनेक समस्याएँ ऐसी है, जिसका समूचित हल नहीं | सामाजिक समस्या का अभिप्राय ऐसी समस्या से है, जिसमें समाज के अधिकांश लोग प्रभावित हो और इसे दूर करने के लिए जागृत होकर उसको मिटाने का प्रयास करें | सामाजिक समस्याओं का अर्थ, परिभाषा, स्वरूप और प्रकार के संदर्भ में विद्वानों के विचारों को चित्रित करने का प्रयास है | समस्या की सामान्य परिभाषा के अलावा रिचर्ड वास्किन, डब्ल्यू वेलेस वीवर, क्लेरेंस, मार्शकेस, फुल्लर, तथा रिचार्ड मायर्स, पोल लेन्दिस, मार्टिन एवं न्यूमेर, राब तथा सेल्जनिक, हार्टन तथा लेस्ली, मैरिल तथा एल्ड्रिज, रेनहार्ट, कर, वाल्स एवं फर्फे, मर्टन एवं निस्बर्ट, हर्बर्ट ब्युमर, हैरी ब्रेडीमिअर और जैक्सन टोबी, अर्नाल्ड एम. रोज, शेपर्ड व बोस, वेनबर्ग, लुंडबर्ग, बारबरा वूटन आदि विद्वानों ने सामाजिक समस्या को अपने-अपने ढंग से व्याख्यित किया है | इन विचारों को ससंदर्भ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है | सामजिक समस्या को कठिनाई या अड़चन के रूप में स्वीकार कर परम्परागत सामाजिक संबंधों में विघटन उत्पन्न करने वाला तत्व माना है | सामाजिक समस्या समाज के अधिकांश लोगों को प्रभावित करती है | इसका अंत कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता बल्कि सब मिलकर ही लड़ सकते है | सामाजिक समस्या की विशेषता, तत्व, स्वरूप तथा प्रकारगत विभाजन में भी भिन्नता पाई जाती है | भ्रष्टाचार, अशिक्षा, दहेज़, बलात्कार, आत्महत्या, नगरीकरण, अस्पृश्यता, साम्प्रदायिकता, शोषण, जातिवाद, वैश्यावृति, बेरोजगारी, पर्यावरण प्रदुषण, मद्धपान आदि के स्वरूप और प्रकार को विवेचित करने का प्रयास किया गया है | समसामयिक सामाजिक समस्याओं का समय-समय पर हल किया गया | सामाजिक समस्या के उपचार तथा अध्ययन से होने वाले लाभों की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत करने की कोशिश की है |

 

पाँचवां अध्याय 'दलित सर्जकों के उपन्यासों में अंकित समस्याएँ' के रूप में विभक्त करने की कोशिश की है | मैंने प्रस्तुत अध्याय में दलित उपन्यासकारों के आलोच्य उपन्यासों में दृष्टिगत होने वाली विभिन्न समस्याओं को ससंदर्भ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है | शोध-प्रबंध के इस मुख्य अध्याय में जयप्रकाश कर्दम के 'छप्पर', 'करुणा', मोहनदास नैमिशराय के 'मुक्ति पर्व', 'जख्म हमारे' 'आज बाजार बंद है', रूपनारायण सोनकर के 'डंक', 'सूअरदान', प्रेम कपाडिया के 'मिटटी की सौगंध' तथा सत्यप्रकाश के 'जस तस भई सवेर' उपन्यासों को आधार बनाया गया है | पस्तुत उपन्यासों में पाई जाने वाली प्रमुख समस्याओं में आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, पर्यावरण प्रदुषण आदि समस्याओं को आलोचित करने का प्रयास किया है |  सामजिक समस्याओं में जाती-पाती, व्यसन, दहेज़, अशिक्षा, साम्प्रदायिक, भ्रष्टाचार, गुलामी, स्त्रीभ्रूण, वृद्ध जन की समस्या आदि को रेखांकित करने का प्रयास किया है |  दलित समाज में प्राचीन समय से लेकर आज तक धर्मान्धता फली-फूली है | शिक्षित और सुसंस्कृत लोग भी इनके जाल में फसे हुए है | सांस्कृतिक परिवर्तन के साथ-साथ पारस्परिक सांस्कृतिक टकराव भी होता है | जहाँ उचित-अनुचित के लिए विद्रोह तथा नकार पैदा होता है | जो आलोच्य उपन्यासों में बखूबी चित्रित मिलता है | राजनीतिक पिछड़ापन दलितों में पाया जाता है | केवल वॉटो की राजनीति बनाकर दलितों को शोषित किया जाता है | वैश्विक चिन्ता के रूप पर्यावरण प्रदुषण की समस्या को भी प्रस्तुत किया है | जो मानव अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है | दलित समाज के लिए आर्थिक समस्या सभी समस्याओं की जननी के रूप में दिखाई पड़ती है तथा पात्र के मनोगत विचार और भावना को व्यक्त करने वाली मनोवैज्ञानिक समस्या को भी चित्रित करने का प्रयास किया है | इस तरह समग्र अध्याय में प्राचीन एवं नवीन समस्याओं को ससंदर्भ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है | 


षष्टम् अध्याय 'उत्तर-आधुनिकता विमर्श और दलित उपन्यास' शीर्षक के अंतर्गत रखने का प्रयास किया है | इस अध्याय में उत्तर-आधुनिकता का अर्थ, उत्तर-आधुनिकता की परिभाषा, उत्तर-आधुनिकता के लक्षण, उत्तर-आधुनिकता के आधार तत्व और उत्तर-आधुनिकता और उपन्यास साहित्य तथा उत्तर-आधुनिकता विमर्श और दलित उपन्यास को केंद्र में रख कर लिखने का प्रयास किया है | उत्तर-आधुनिकता के वैश्विक परिवेश से साहित्य भी मुक्त नहीं है | हिन्दी दलित साहित्य ने उत्तर-आधुनिकता के प्रभाव स्वरूप क्रन्तिकारी विचारों को अभिव्यक्ति दी है | साहित्य को यथार्थवादी पृष्टभूमि प्रदान की है | उत्तर-आधुनिकता के अर्थ को भी व्याख्यायित करने का प्रयास किया है | उत्तर-आधुनिकता का सामान्य अर्थ 'उत्तर+आधुनिक' है यानी आधुनिकता का विकसित व विरोधी रूप | उत्तर-आधुनिकता की सर्व सम्मत परिभाषा को प्रस्तुत करना टेढ़ी खीर है, लेकिन जिम मेक्गूगन, रिचार्ड गोत, जार्ज रिटजर, दरीदा, जिन फ्रेंन्कोज, बोडीलार्ड, माइकल फुगो एवं फ्रेडरीक जेमसन जैसे पाश्चात्य विचारकों ने उत्तर-आधुनिक विमर्श से संबंधित विचारों को प्रस्तुत करने का प्रयास है | उत्तर-आधुनिकता के लक्षण आधुनिक समाज की बदलती तस्वीर को पेश करते है | नई संस्कृति का अवतार उत्तर-आधुनिकता  के रूप में हो रहा है | यह संस्कृति लोकप्रिय, शुद्ध, रोमांचक, व्यंग्यात्मक एवं ग्रहणशील की विशेषताओं से युक्त है | उत्तर-आधुनिकता में परिवर्तनशीलता, केंद्र से परिधि की ओर स्थानीयता, यथार्थता, संधर्ष गामी, अंत: बन्धनों का नकार, अस्मिता की रक्षा, संवेदना के स्थान पर बौद्धिकता की प्रधानता आदि लाक्षणिक विशेषताएँ उत्तरवर्ती साहित्य में दिखाय पड़ती है | इन विशेषताओं के आधार पर दलित उपन्यासों को व्याख्यायि करने का प्रयास किया गया है |

 

निष्कर्ष :-

        निष्कर्ष के रूप शोध-प्रबंध के नवनीत को प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है | विभिन्न भाषा के कोशकर्ता ने 'दलित' शब्द के संकुचित एवं विस्तृत अर्थ को व्यक्त किया है | दलित साहित्य के संदर्भ में दो मत प्रवर्तमान समय में प्रचलित है - दलितों द्वारा लिखित साहित्य और दलितेत्तर लेखकों का साहित्य | प्राचीन समय में दलित साहित्य कम मात्रा में लिखित मिलता है | सन १९८० बाद समसायिक हिन्दी दलित साहित्य का सूत्रपात होता है | प्रमुख हिन्दी दलित साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व के विभिन्न पहलूओं को चित्रित करने का प्रयास किया है | समस्या की परिभाषा के साथ अनेक प्रकार की समस्याओं के स्वरूप को प्रस्तुत किया है |  शोध-प्रबंध के मुख्य अध्याय में आलोच्य उपन्यासों से ससंदर्भ विवेचन करने का प्रयास किया है | उत्तर आधुनिक साहित्य की साहित्यिक विशेषताओं के आधार पर भी इन उपन्यासों को परखने का प्रयास किया है | 


संदर्भ ग्रन्थ :- 


आधार ग्रन्थ  :-

१.- छप्पर - जयप्रकाश कर्दम, राहुल प्रकाशन- दिल्ली-३२, प्रथम संस्करण - २०१० 

२.- करुणा - जयप्रकाश कर्दम, कंचन प्रकाशन-दिल्ली-३२, प्रथम संस्करण -२००९ 

३.- मुक्ति पर्व - मोहनदास नैमिशराय, अनुराग प्रकाशन-नयी दिल्ली, संस्करण -२०११

४.- जख्म हमारे - मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण -२०११

५. आज बाजार बंद है-मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण -२००४, आवृति-२००९ 

६.- डंक - रूपनारायण सोनकर , अनिरुद्ध बुक्स-दिल्ली, संस्करण - २०११ 

७.- सूअरदान - रूपनारायण सोनकर , सम्यक प्रकाशन-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण -२०१० 

८.- जस तस भई सवेर - सत्य प्रकाश, कामना प्रकाशन- दिल्ली, प्रथम संस्करण -२००० 

९- मिट्टी की सौगंघ - प्रेम कपाडिया, भारतीय सामाजिक संस्थान प्रकाशन - नयी दिल्ली, संस्करण - १९९५ 


संदर्भ ग्रन्थ :-

(१) हिन्दी मराठी का दलित साहित्य : एक मूल्यांकन (आत्मकथाओं के विशेष संदर्भ में) - डॉ.सुनीता साखरे, अमन प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२००८

(२) हिन्दी दलित साहित्य आन्दोलन-डॉ.सरोज पगारे, विकाश प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२०१२

(३) समकालीन हिन्दी कविता में दलित-चेतना-डॉ.सुमनसिंह, विकाश प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२०१२

(४) दलित विमर्श-डॉ.नरसिंहदास वणकर,चिंतन प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२००७ 

(५) सामाजिक प्रतिबद्धता और साहित्य-डॉ.जगन्नाथ पंडित, नमन प्रकाशन-नयी दिल्ली, पहला संस्करण-२००९

(६) दलित हस्तक्षेप-रमणिका गुप्ता, संपादक-ओमप्रकाश वाल्मीकि, अक्षर प्रकाशन-दिल्ली,संस्करण-२०१२ 

(७) दलित चिंतन-डॉ.प्रकाश कुमार आनंद, ज्ञान प्रकाशन-राँची, विश्वभारती प्रकाशन-नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०११ 

(८) दलित साहित्य : अनुसन्धान के आयाम - डॉ. भरत सगरे, दिव्य डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण २०११ 

(९) भारतीय साहित्य एवं दलित चेतना-संपादक-डॉ.धनंजय चौहाण,ज्ञान प्रकाशन-कानपुर,प्रथम संस्करण-२०१० 

(१०) हिन्दी दलित साहित्य आन्दोलन(रमणिका गुप्ता के विशेष संदर्भ में)-डॉ.सरोज पगारे, विकास प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण- २०१२

(११) दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र - ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड-नयी दिल्ली, चौथी आवृति-२०११ 

(१२) दलित साहित्य का समाजशास्त्र-डॉ.हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन-नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण-२०१० 

(१३) दलित साहित्य विधा शास्त्र और इतिहास-डॉ.बापूराव देसाई-विकास प्रकाशन-कानपुर,प्रथम संस्करण-२०१२ 

(१४) दलित चेतना केन्द्रित हिन्दी-गुजराती उपन्यास(स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी और गुजराती उपन्यास साहित्य में दलित-चेतना : एक अध्ययन)  डॉ.गिरीशकुमार एन.रोहित, गुजरात दलित साहित्य अकादमी - अहमदाबाद, प्रथम संस्करण-२००४ 

(१५) साहित्य और परिवेश- वेदप्रकाश 'अमिताभ', जवाहर पुस्तकालय हिन्दी पुस्तक प्रकाशन-मथुरा(यु.पी.), संस्करण-२००९ 

(१६) दलित-साहित्य का सौंदर्यशास्त्र - डॉ. शरणकुमार लिम्बाले, अनुवाद  - रमणिका गुप्ता, वाणी प्रकाशन-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२००० 

(१७) मराठी दलित कविता और साठोत्तरी हिन्दी कविता में सामाजिक-राष्ट्रिय चेतना-डॉ.विमल थोरात, हिन्दी बुक सेंटर-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-१९९६ 

(१८) गुजराती दलित वार्ता-मोहन परमार, रंगद्वार प्रकाशन-अहमदाबाद, संस्करण-१९८७ 

(१९) गुजराती में दलित कदम- डॉ.रमणिका गुप्ता, रमणिका फाउन्डेशन-ज़ारखंड, संस्करण-२००१ 

(२०) कथा साहित्य- डॉ.डी.एम.भद्रेसरिया, पाश्व पब्लिकेशन-अहमदाबाद, संस्करण-२०११ 

(२१) समकालीन हिन्दी दलित साहित्य : एक अध्ययन - डॉ. जितूभाई मकवाणा, दर्पण प्रकाशन-नडियाद, प्रथम संस्करण-२००४ 

(२२) समकालीन हिन्दी कहानी और आम्बेडकरवादी आन्दोलन-डॉ.दिनेशराय, अकादमिक एक्सलेंस प्रकाशन-दिल्ली, संस्करण-२००४ 

(२३) बुद्धत्व के अग्रदूत : डॉ.बी.आर. आम्बेडकर- डॉ.सी.डी.नाईक, कल्याण पब्लिकेशन-दिल्ली, संस्करण-२००७ 

(२४) स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में चित्रित दलित-जीवन-डॉ.शम्भूनाथ रामचरण द्विवेदी, पूजा पब्लिकेशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२०१२ 

(२५)   भारतीय साहित्य में दलित एवं स्त्री-संपादक-प्रो.चमनलाला, सारम्भ प्रकाशन-दिल्ली, प्रथम  संस्करण- २००१ 

(२७) दलित साहित्य ब्राह्मणवाद के खिलाफ खुला विद्रोह-संपादक-डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर, भारतीय दलित साहित्य अकादमी-दिल्ली, प्रथम संस्करण-१९९७ 

(२८) हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा-डॉ.माताप्रसाद, विश्वविद्यालय प्रकाशन-वाराणसी, प्रथम संस्करण-१९९३  

(२९) भारतीय दलित साहित्य:परिप्रेक्ष - सम्पादन- पुन्नी सिंह, वाणी प्रकाशन- दिल्ली, प्रथम संस्करण-२००३

(३०) चिंतन की परम्परा और दलित-साहित्य-डॉ.श्यौराजसिंह 'बैचेन', कुमार पब्लिकेशन हाऊस- दिल्ली,संस्करण-२००० 

(३१) आम्बेडकरवादी सौंदर्यशास्त्र और दलित आदिवासी जनजातीय विमर्श- डॉ. विनय कुमार पाठक, नीरज बुक सेन्टर प्रकाशन- दिल्ली, संस्करण-२००६ 

(३२) दलित साहित्य आन्दोलन - डॉ.चन्द्रकुमार बरठे, रचना प्रकाशन-जयपुर, संस्करण-१९९७ 

(३३) हिन्दी साहित्य में दलित अस्मिता-डॉ.कालीचरण 'स्नेही', आराधना ब्रदर्स-कानपुर, संस्करण-२००३ 

(३४)  हिन्दी उपन्यासों में दलित-वर्ग - कुसुम मेघवाल, संधी प्रकाशन-जयपुर, संस्करण-१९८९ 

(३५) दलित साहित्य की भूमिका- हरपालसिंह 'अरुष', जवाहर पुस्तकालय-मथुरा(यु.पी.), संस्करण-२००५ 

(३६) समकालीन हिन्दी साहित्य : विविध विमर्श- संपादक - भगवान गव्हाड़े, साहित्य सागर प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२०११ 

(३७) गाँधी, आंबेडकर और दलित -डॉ. महेश्वर दत्त, राधा पब्लिकेशन्स- दिल्ली, संस्करण-२००५ 

(३८) अस्पृश्यता और दलित-चेतना-डॉ.पूरणमल- पोइंटर पब्लिकेशर्स-जयपुर, संस्करण-१९९९ 

(३९) डॉ.आम्बेडकर जीवन दर्शन- विजयकुमार पुजारी, गौतम बुक सेंटर-दिल्ली, संस्करण-२००५ 

(४०) जाति-विहीन समाज का सपना-देवेन्द्र स्वरूप, ग्रन्थ अकादमी प्रकाशन-नयी दिल्ली, संस्करण-२००६ 

(४१) भारत में जाति एवं वर्ण-व्यवस्था कब, क्यों और कैसे ? -एस.एल.शाह, सरिता बुक हाऊस-दिल्ली, संस्करण-२००६ 

(४२) मानव मूल्य परक शब्दावली का विश्वकोश-डॉ. धर्मपाल मैनी, सरूप एंड सन्स-नयी दिल्ली,संस्करण-२००५ 

(४३) अछूत कौन और कैसे ? - डॉ. बी.आर. आम्बेडकर, बुद्धभूमि प्रकाशन-नागपुर, संस्करण-१९९५ 

(४४) सम्मुख - नामवरसिंह - संपादक - आशीष त्रिपाठी,राजकमल प्रकाशन-नयी दिल्ली, पहला संस्करण-२०१२ 

(४५) आधुनिक भारत का दलित आन्दोलन-आर.चन्द्रा, युनिवर्सिटी पब्लिकेशन-नयी दिल्ली,प्रथम संस्करण-२००३ 

(४६) हिन्दी साहित्य में युगीन बोध- संपादक-डॉ.शैलजा भारद्वाज,चिंतन प्रकाशन-कानपुर,प्रथम संस्करण-२०११ 

(४७) भारत में दलित आन्दोलन एक मूल्यांकन-भाग-१ (ज्योतिबा फुले से डॉ.अम्बेडकर तक)-सृष्टि बुक डिस्ट्रीब्युटर्स-दिल्ली, प्रथम प्रथम संस्करण-२००६ 

(४८) प्रेमचन्द साहित्य में दलित चेतना-डॉ.बलवंत साधू जाधव, अलका प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-१९९२ 

(४९) डॉ.भिमराव अम्बेडकर व्यक्तित्व के कुछ पहलू-मोहन सिंह, लोकभारती प्रकाशन-इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-२००६ 

(५०) डॉ.बाबा साहेब आम्बेडकर- धनंजय कीर, पोप्युलर प्रकाशन-मुंबई, चतुर्थ संस्करण-१९९२ 

(५१) भारतीय साहित्य में दलित एवं स्त्री-संपादक-प्रो.चमनलाल,सारंभ प्रकाशन-दिल्ली, प्रथम संस्करण-२००१ 

(५२) दलित साहित्य सृजन के संदर्भ-डॉ.पुरुषोतम सत्यप्रेमी, कुमार पब्लिकेशन हाऊस-दिल्ली, संस्करण-२००५ 

(५३) दलित देवो भाव: भाग-१ - डॉ.किशोर कुणाल, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रचारण मंत्रालय-नयी दिल्ली, संस्करण-२००५ 

(५४) इक्कीसवीं सदी में आम्बेडकरवाद-डॉ.रधुवीरसिंह 'दिनकर'-लोकभारती प्रकाशन-इलाहाबाद, संस्करण-२००३   

(५५) समकालीन हिन्दी कविता एक सर्वेक्षण- डॉ. तिर्थेश्वरसिंह, मानसी पब्लिकेशन-दिल्ली, संस्करण-२००६ 

(५६) बौद्ध धर्म के विकास में ब्राह्मणों का योगदान- डॉ.विश्वजीत कुमार, इंप्रेशन पब्लिकेशन-पटना (बिहार), संस्करण-२००६ 

(५७)हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास-डॉ.रामकुमार वर्मा,लोकभारती प्रकाशन-इलाहाबाद, संस्करण-२००७ 

(५८) हिन्दी साहित्य का इतिहास-डॉ.नगेन्द्र, मयूर पेपर बेक्स - दिल्ली, संस्करण-१९७३ 

(५९) हिन्दी और मराठी का निर्गुण संत काव्य-डॉ.प्रभाकर माचवे,चौखम्भा विद्याभवन-वारणसी,संस्करण-१९६२ 

(६०) हिन्दी कविता में प्रगतिशील भूमिका- प्रभाकर श्रोत्रिय, दी मेकमिलन कंपनी ऑफ़ इण्डिया लिमिटेड-नयी दिल्ली, संस्करण-१९७८ 

(६१) हिन्दी साहित्य का विकास - डॉ. बहादूरसिंह, विवेक पब्लिकेशिंग-जयपुर, संस्करण-२००७ 

(६२) हिन्दी संत-साहित्य के प्रेरणा स्रोत- डॉ. विनीता कुमारी, संजय प्रकाशन-नयी दिल्ली-संस्करण-२००४ 

(६३) गौरखनाथ और उनका युग- डॉ.रांगेय राघव, आत्माराम एंड सन्स-दिल्ली-६, संस्करण-१९६३-२००७ 

(६४) दलित साहित्य एक मूल्यांकन-प्रो.चमनलाल, राजपाल एंड सन्स- दिल्ली, प्रथम संस्करण -२००८ / २०१२ 

(६५) हिन्दी साहित्य का इतिहास - अनुवादक- सदानंद शाही, लोकायतन प्रकाशन-गोरखपुर, संस्करण-१९९८ 

(६६) मुक्तिबोध की रचनावली भाग-५-संपादक-नेमिचन्द्र जैन, राजकमल प्रकाशन प्रा.लि-नयी दिल्ली, संस्करण-१९८६ 

(६७) दलित विमर्श की भूमिका - डॉ. कँवल भारती, इतिहास बोध प्रकाशन-इलाहाबाद, संस्करण-२००४ 

(६८) दक्षिण भारत की संत परम्परा-डॉ.राधाकृष्णमूर्ति, कर्नाटका महिला हिन्दी सेवा समिति-बंगलोर, संस्करण-१९९७ 

(६९) संत काव्य के विकास में वर्ण, जाति और वर्ग की भूमिका-डॉ.कृष्णकुमारसिंह, साहित्य भंडार - इलाहाबाद, संस्करण-१९८९ 

(७०) कबीर की चिन्ता - बलदेव वंशी, वाणी प्रकाशन-नयी दिल्ली, संस्करण-१९८५ 

(७१) सबद विवेकी कबीर- डॉ.तेजसिंह, भावना प्रकाशन-दिल्ली, संस्करण-२००४ 

(७२) आधुनिकता और आलोचना-डॉ.अम्बादत पाण्डेय, प्रेम प्रकाशन मंदिर - दिल्ली, संस्करण-१९८५    

(७३) गुरु रविदास - पृथ्वीसिंह आजाद, नेशनल बुक ट्रस्ट इण्डिया-नयी दिल्ली, संस्करण-१९७५ 

(७४) हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास - डॉ.बच्चनसिंह, राधा कृष्ण प्रकाशन प्रा.लि.दिल्ली, संस्करण-२००६ 

(७५) सूरसागर भाग-१ -नंददुलारे बाजपेयी, नागरी प्रचारिणी सभा-वारणसी, वि.संवत्-२०३५

(७६) दलित साहित्य रचना और विचार - संपादक - डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, अतीश प्रकाशन-दिल्ली, प्रथम संस्करण-१९९७ 

(७७) आधुनिक सामाजिक आन्दोलन और आधुनिक हिन्दी साहित्य - डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र, बुक डिपो-नयी दिल्ली, संस्करण-१९७२ 

(७८) रीति साहित्य विविध संदर्भ - डॉ. हरमहेंद्र सिंह बेदी, बुक डिपो-नयी दिल्ली, संस्करण-१९७२

(७९) अभिनव साहित्यिक निबंध-डॉ.राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी, विनोद पुस्तक मंदिर-आगरा, संस्करण-१९८३ 

(८०) छायावादी युगीन काव्य - डॉ. अविनाश भारद्वाज, तक्षशिला प्रकाशन-नयी दिल्ली, संस्करण-१९८४ 

(८१) प्रगतिवादी काव्य साहित्य- डॉ.कृष्णलाल 'हंस',मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी-भोपाल, संस्करण-१९७१ 

(८२) हिन्दी उपन्यास का इतिहास- गोपालराय राय, राजकमल प्रकाशन -नयी दिल्ली, संस्करण-२००५ 

(८३) दलित साहित्य का सौन्दर्य बोध - डॉ. रामअवतार यादव, अमन प्रकाशन-नयी दिल्ली,संस्करण-२०११ 

(८४) दलित-चेतना की कहानियाँ बदलती परिभाषाएँ- राजमणि शर्मा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२००८ 

(८५) आज का दलित साहित्य - डॉ. तेजसिंह, मन भावन प्रकाशन -दिल्ली, प्रथम संस्करण-२००४ 

(८६) आज का दलित साहित्य - डॉ. तेजसिंह, कुमार पब्लिकेशन हाऊस-दिल्ली - द्वितीय संस्करण-२००८

(८७) समकालीन भारतीय दलित समाज बदलता स्वरूप और संधर्ष - डॉ. कृष्णकुमार रत्तू, बुक एनक्लेव-जयपुर, प्रथम संस्करण-२००३ 

(८८) इक्कीसवीं सदी में दलित आन्दोलन-डॉ. जयप्रकाश कर्दम, पंकज पुस्तक मंदिर-दिल्ली, संस्करण-२००७ 

(८९) चिंतन की परंपरा और दलित साहित्य-श्यौराजसिंह'बैचेन', नवलेखन प्रकाशन-बिहार,संस्करण-२०००-२००१ 

(९०) दलित विमर्श - डॉ.धीरजभाई वणकर, ज्ञान प्रकाशन - कानपुर, प्रथम संस्करण-२०१२ 

(९१) भारतीय दलित साहित्य का विद्रोही स्वर - विमल थोरात, भारतीय दलित अध्ययन संस्थान-नयी दिल्ली,रावत पब्लिकेशन्स, संस्करण-२००८ 

(९२) दलित साहित्य में प्रमुख विधाएँ - माता प्रसाद, आकाश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स-गाजियाबाद, प्रथम संस्करण-२००४ 

(९३) दलित-चेतना और स्त्री विमर्श- डॉ. विजयकुमार 'सन्देश', क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी-नयी दिल्ली, संस्करण-२००९ 

(९४) आधुनिक हिन्दी साहित्य मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन- जवरीमल्ल पारख, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्युटर्स (प्रा.) लिमिटेड-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२००७ 

(९५) शब्द शिल्पियों से सीधी बातचीत- डॉ. सरजू प्रसाद मिश्र, अमन प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२००९   

(९६) दलित साहित्य और संघर्ष - सुदर्शन पासवान, अनुप पब्लिशिंग-दिल्ली, संस्करण-२००५

(९७) डॉ.आम्बेडकर का व्यक्तित्व और कृतित्व- डॉ.डी.आर.जाटव, समता साहित्य सदन-जयपुर,संस्करण-१९८८

(९८) समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में दलित ऊवाच - श्यौराजसिंह 'बैचेन', अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स(प्रा.)लिमिटेड-नयी दिल्ली, प्रथम सस्करण-२००७ 

(९९) हिन्दी दलित एकांकी संचय- सर्वेशकुमार मौर्य, स्वराज प्रकाशन-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१२ 

(१००) अपने-अपने पिंजरे, भाग-१ - मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन-नयी दिल्ली, संस्करण-२००० 

(१०१) मोहनदास नैमिशराय के उपन्यासों में विद्रोह- विधाते विकास कुंडलिक, ए.बी.एस.पब्लिकेशन-वारणसी(उ.प्र), प्रथम संस्करण-२०१३ 

(१०२) नागफनी-रूपनारायण सोनकर, शिल्पायन पब्लिशर्स-दिल्ली, संस्करण-२०११ 

(१०३) सूअरदान- रूपनारायण सोनकर, सम्यक प्रकाशन-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१० 

(१०४) डंक - रूपनारायण सोनकर, अनिरुद्ध बुक्स- दिल्ली, संस्करण-२०११

(१०५) उत्तर औपनिवेशिकता के स्त्रोत और हिन्दी साहित्य - प्रणय कृष्ण , हिन्दी परिषद् प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-२००८ 

(१०५) साठोत्तरी हिन्दी उपन्यास - डॉ.एम.बी.पटेल, ज्ञान प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२००९ 

(१०६) उत्तर आधुनिकता और मनोहर श्याम जोशी - डॉ.मीना खरात, समता प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२००८ 

(१०७) आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता एवं नव-समाजशास्त्रीय सिध्दांत- एस.एल.डोसी, रावत पब्लिकेशन्स - जयपुर, संस्करण-२००२ 

(१०८) उत्तर-आधुनिकतावाद और गाँधी- उपासना पाण्डेय, रावत पब्लिकेशन्स-जयपुर, संस्करण-२००७

(१०९) उत्तर-आधुनिकता बहुआयामी संदर्भ-पाण्डेय शशिभूषण 'शीतांशु', लोकभारती प्रकाशन- इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-२०१० 

(११०) उत्तर-आधुनिकतावाद और दलित साहित्य-कृष्णदत्त पालीवाल, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण- २००८, आवृति-२०१० 

(१११) उत्तर-आधिनिकता की पृष्ठभूमि: कुछ विचार, कुछ प्रश्न-डॉ. वीरेन्द्रसिंह यादव, ओमेगा पब्लिकेशन्स-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०११ 

(११२) उत्तर आधुनिकता विचार और मूल्यांकन-डॉ.वीरेन्द्रसिंह यादव, ओमेगा पब्लिकेशन्स-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०११ 

(११३) भारतीय काव्यशास्त्र एवं पाश्चात्य साहित्य-चिन्तन- डॉ.सभापति मिश्र, जयभारती प्रकाशन-इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण-२००९ 

(११४) आधुनिक समाजशास्त्रीय सिद्धांत-विनोद श्रीवास्तव, रजत प्रकाशन-नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०११ 

(११५) सामाजिक समस्याएँ - रवीन्द्रनाथ मुकर्जी, विवेक प्रकाशन-दिल्ली, प्रथम संस्करण-२००३, संशोधित संस्करण-२०१२

(११६) सामजिक समस्याएँ- डॉ. आभिषेक शर्मा, शिवांक प्रकाशन-दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०११ 

(११७) भारत में सामाजिक समस्याएँ - प्रकाश नारायण नाटाणी, पॉइंटर पब्लिशर्स-जयपुर, संस्करण-२००७ 

(११८) सामाजिक समस्याएँ-राम आहूजा, रावत पब्लिकेशन्स-जयपुर एवं नयी दिल्ली, द्वितिय संस्करण-२०००

(११९) भारत में सामाजिक समस्याएँ - डॉ. एम.एम. लवानिया, रिसर्च पब्लिकेशन्स-जयपुर, संस्करण-२०१० 

(१२०) वर्तमान सामाजिक समस्याएँ कारण और निवारण- उमेश उपाध्याय, रितु पब्लिकेशन्स-जयपुर, प्रथम संस्करण-२०१२ 

(१२१) समकालीन भारत की सामाजिक समस्याएँ-डॉ.महेन्द्रकुमार मिश्रा, आर.बी.एस.ए. पब्लिशर्स-जयपुर, प्रथम संस्करण-२००८ 

(१२२) भारत में सामाजिक समस्याएँ- प्रो.घनश्याम धर त्रिपाठी, आस्था प्रकाशन-जयपुर, संस्करण-२०११ 

(१२३) भारत में सामाजिक समस्याएँ- डॉ.सोती शिवेन्द्रचन्द्र, कनिष्का पब्लिशर्स-नयी नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२००२ 

(१२४) उत्तर आधुनिकता: विभ्रम और यथार्थ- रवि श्रीवास्तव, नॅशनल पब्लिशिंग हाऊस-जयपुर, द्वितीय संस्करण- २०११ 

(१२५) आधुनिक समाजशास्त्रीय विचारक-एस.एल.दोषी, रावत पब्लिकेशन्स-जयपुर, संस्करण-२००७ 

(१२६) प्रमुख समाजशास्त्रीय  सिद्धांत- डॉ. एस. चन्द्रकुमार राय,अर्जुन पब्लिशिंग हाऊस, प्रथम संस्करण-२००९

(१२७) समाजशास्त्रीय अवधारणाएँ-डॉ.संजीव महाजन, अर्जुन पब्लिशिंग हाउस, प्रथम संस्करण-२०१० 

(१२८) दसवें दशक के हिन्दी उपन्यासों में दलित चेतना- वसाणी कृष्णावंती, जागृति प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२०१० 

(१२९) हिन्दी के आँचलिक उपन्यासों में दलित जीवन- डॉ. भरत सगरे, दिव्य डिस्ट्रीब्यूटर्स प्रकाशक-कानपुर, प्रथम संस्करण-२०११ 

(१३०) हिन्दी उपन्यास और विमर्श : अद्यतन दृष्टि- जयश्री शिंदे, ए.बी.एस. पब्लिकेशन-वाराणसी, प्रथ संस्करण-२०१२

(१३१) स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों में मूल्य परिवर्तन- डॉ. टेस्सी जोर्ज, जवाहर पुस्तकालय-मथुरा (उ.प्र.), संस्करण-२००६ , आवरण - उमेश शर्मा 

(१३२) प्रेमचंद तथा शैलेश मटियानी की कहानियों में दलित विमर्श- डॉ. कल्पना गवली, चिंतन प्रकाशन- कानपुर, प्रथम संस्करण-२००५ 

(१३३) हिन्दी उपन्यास समकालीन विमर्श-डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी, अमन प्रकाशन-कानपुर, प्रथम संस्करण-२००० 

(१३४) विष्णु प्रभाकर के उपन्यासों में सामाजिकता- सुमा रोडनवर,अलका प्रकाशन-कानपुर,प्रथम संस्करण- २००५ 

(१३५) उपन्यासकार धर्मवीर भारती - डॉ. दिलीप मेहरा, क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी-नयी दिल्ली-२००९


शब्द कोश :- 

(१) हिन्दी विश्वकोश-१४- एम.कुमार, अर्जुन पब्लिशिंग हाऊस, प्रथम संस्करण-२०११ 

(२) लोक भारती बृहत् प्रामाणिक हिन्दी कोश- (पूर्णत: संशोधित तथा परिवर्द्धित) मूल सम्पादक- आचार्य रामचंद्र वर्मा, लोक भारती प्रकाशन-इलाहाबाद-१, ग्यारहवाँ संस्करण-२००४, पुनर्मुद्र्ण-२००५

(३) हिन्दी साहित्य कोश भाग-१, पारिभाषिक शब्दावली- प्र.संपादक -डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमंडल लिमिटेड प्रकाशन-वारणसी-१, पुनर्मुद्रित संस्करण-२००५ 

(४) प्रामाणिक पर्यायवाची कोश- डॉ. हरिवंश तरुण, लोकशिक्षा मंच-दिल्ली, संस्करण-२००८ 

(५) नालंदा विशाल शब्द सागर - नवलजी, आदिश बुक डिपो-नयी दिल्ली, संस्करण-१९८३ 

(६) हिन्दी शब्द सागर-भाग३/४-डॉ.श्याम सुन्दरदास,काशी नागरिणी प्रचारिणी सभा-वारणसी, संस्करण-१९६८ 

(७) आधुनिक हिन्दी शब्द कोश-गोविन्द चातक, तक्षशिला प्रकाशन-नयी दिल्ली, संस्करण-१९८६ 

(८) भाषा शब्द कोश - संपादक- रमाशंकर शुक्ल 'रसाल' रामनारायण बेनीप्रसाद प्रकाशक-इलाहाबाद, प्रथम संस्करण-१९३६, पंचम-संस्करण-१९७१

(९) संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर - सम्पादक- रामचंद्र वर्मा, काशी नागरी प्रचारिणी सभा एवं कोश संस्थान, प्रथम संस्करण-१९३३, षष्टम संस्करण-१९५८ 

(१०) राजपाल हिन्दी शब्दकोश- डॉ.हरदेव बाहरी, राजपाल एण्ड सन्ज-दिल्ली, संस्करण-२००७ 

(११) भगवद्द गोमंडल, भाग-५ - महाराजा श्री भगवतसिंह जी, प्रवीण प्रकाशन-राजकोट, संस्करण-१९८२  

(१२) हिन्दी गुजराती कोश- संपादक-मगनभाई प्रभुभाई देसाई, गूजरात विद्यापीठ-अहमदाबाद, संस्करण-२००९ 

(१३) संस्कृत-हिन्दी कोश- वा.शि.आप्टे, मोतीलाल बनारसी पब्लिशर्स प्रा.लि.-मुंबई, संस्करण-१९६९ 

(१४) संस्कृत-हिन्दी कोश-मनीषकुमार पाठक, भारतीय कला प्रकाशन-दिल्ली, संस्करण-२००४ 

(१५) मराठी हिन्दी शब्द कोश- गो.प.नेने.,श्रीपाद जोशी, महाराष्ट्र राष्ट्र भाषा सभा-पुणे, प्रथम संस्करण-१९७१ 

(१६) मराठी व्युत्पत्ति कोश-सम्पादक-कृ.पां. कुलकर्णी, श्री लेखन वाचन भंडार-पुणे, द्वितीय संस्करण-१९६४ 

(१७) मराठी शब्द रत्नाकर - सम्पादक-वा.गो.आपटे, केशव भिकाजी ढवले प्रकाशन-मुंबई, षष्ठ संस्करण-१९९६ 

(१८) महाराष्ट्र शब्द कोश-भाग-४, सम्पादक - यशवंत रामकृष्ण दाते, महराष्ट्र कोश मंडल लिमिटेड, शारदा प्रेस-पुणे, संस्करण-१९३५ 

(१९) आदर्श मराठी शब्द कोश-सम्पादक-प्रहलाद नरहर जोशी, दर्भ मराठावाड बुक कंपनी-पुणे-२,संस्करण-१९८०

(२०) अंग्रेजी-हिन्दी कोश - फादरकामिल बुल्के, एस. चन्द्र कंपनी-दिल्ली, पुन:मुद्रित-१९८७ 

(२१) The oxford hindi-engalish dictionary- english dictionry- R.S.Gragor, oxford univesitiy press-New dilhi, forth imp-1999 

(२२) अंग्रेजी-हिन्दी कोश - फादर कामिल बुल्के, एस.चन्द्र कंपनी-नयी दिल्ली, संस्करण-१९८१ 

(२३) राजपाल अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश- डॉ.हरदेव बाहरी, राजपाल एण्ड सन्स-दिल्ली, संस्करण-१९९६ 

(२४) मानक हिन्दी-अंग्रेजी कोश-राममूर्ति सिंह, प्रभात प्रकाशन-दिल्ली, संस्करण-१९८४ 

(२५) मानक अंग्रेजी-हिन्दी कोश- सत्यप्रकाश, हिन्दी साहित्य सम्मलेन-प्रयाग, संस्करण-१९८३ 

(२६) उच्चत्तर समाजशास्त्र विश्व कोश- हरिकृष्ण रावत, रावत पब्लिकेशन्स-जयपुर, संस्करण-२००६

(२७) बृहद्द गुजराती शब्द कोश-खंड-२ - के. का. शास्त्री, यूनिवर्सिटीग्रन्थ निर्माण बोर्ड-अहमदाबाद, संस्करण-१९८१ 



पत्र-पत्रिका :- 

(१) दलित साहित्य(वार्षिक)-सम्पादक-जयप्रकाश कर्दम, साहित्य अकादमी प्रकाशन-दिल्ली, संस्करण-२००८ 

(२) युद्धरत आम आदमी (द्विमासिक) - संपादक-रमणिका गुप्ता, जारखंड, अंक-३४/३५, वर्ष-१९९६

(३) अपेक्षा (त्रैमासिक पत्रिका) - सम्पादक-तेजसिंह, दिल्ली, जुलाई-सितेम्बर-२००८ 

(४) समकालीन भारतीय साहित्य(त्रैमासिक पत्रिका)-संपादक-गिरिधर राठी, नयी दिल्ली, जुलाई-सितम्बर-१९९४ 

(५) बहुरि नहिं आवना (त्रैमासिक) - प्र.सम्पादक-डॉ.श्यौराज सिंह ' बैचेन', नयी दिल्ली , वर्ष-३, अंक-९, संयुक्तांक: जनवरी- सितम्बर -२०११   

(६) बहुरि नहिं आवना (त्रैमासिक) - प्र.सम्पादक-डॉ.श्यौराज सिंह ' बैचेन', नयी दिल्ली , वर्ष-४, अंक-१०,संयुक्तांक: अक्टूम्बर-२०११- मार्च-२०१२ 

(७) राजभाषा हिन्दी - भाषा निदेशालय-गुजरात राज्य-गांधीनगर, फ़रवरी-२०११ 

(८) अनुसन्धान(त्रैमासिक) -डॉ.शगुफ्ता नियाज, अलीगढ़, वर्ष-३, अंक-१०, अप्रेल-जून-२०१२ 

(९) कलम-डॉ.कल्याण वैष्णव, हिन्दी दलित अकादमी-गांधीनगर-गुजरात, वर्ष-१, अंक-१, दिसम्बर-२०१२ 

(१०) साक्षात्कार-प्रो.त्रिभुवननाथ शुक्ल,भोपाल साहित्य अकादमी-मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृत भवन, अंक-३८९, मई-२०१२ 

(११) समीक्षा(त्रैमासिक)-प्र.सं.-महेश भारद्वाज, दिल्ली, वर्ष-४५, अंक-१, अप्रैल-जून-२०१२ 

(१२) नागफनी-(त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका)संपादक-सपना सोनकर,उत्तराखंड,वर्ष-३,अंक-१०,नवम्बर-जनवरी- २०१३             

(१३) नागफनी- (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका) संपादक- सपना सोनकर, उत्तराखंड, वर्ष-३ , अंक-११, फ़रवरी- अप्रैल-२०१३ 

(१४) नागफनी- (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका) संपादक- सपना सोनकर, उत्तराखंड, वर्ष-२ , अंक-७, फ़रवरी-अप्रैल-२०१२

(१५) समीक्षा(त्रैमासिक)-प्र.सं.-महेश भारद्वाज, दिल्ली, वर्ष-४४, अंक-३, अक्तूबर-दिसम्बर-२०११

(१६) हाशिये की आवाज़-संपादक-डॉ.जोसेफ मरियानुस, वर्ष-८, अंक-८, अगस्त-२०१३

 

अप्रकाशित ग्रन्थ-

(१) दलित चेतना के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचन्द के कथा-साहित्य का अध्ययन-प्रा.ए.डी.चावड़ा, सौराष्ट्र  विश्वविद्यालय-राजकोट, वर्ष-२०१२ 

(२) समकालीन हिन्दी दलित आत्मकथाओं में दलित चेतना-शैलेष आर.वाघेला, सौराष्ट्र विश्वविद्यालय- राजकोट, वर्ष-२०११

(३) हिन्दी दलित कहानी : दलित चेतना के परिप्रेक्ष्य में (सन १९९१ से २००५ तक) - श्री विजय विष्णु लोंढे, शिवाजी विश्वविद्यालय-कोल्हापुर(महाराष्ट्र), वर्ष-२०१२

 

वेबसाड्स :- 

(१) www. inflibnet.ac.in

(२) www.dalitsahitya.org

(३) www.kavitakosh.org 

(४) www.shodhaganga.ac.in 

(५) www. jnanpith.net 



प्रो.(डॉ.)एच.एन.वाघेला     भवा कनुभाई करशनभाई 

   शोध-निदेशक                          शोध-छात्र

Thursday, 5 August 2021

सूर्यदीन यादव की कहानियों में यथार्थ

शब्द साधक डॉ. सूर्यदीन यादव एक अच्छे हिंदी सेवी और लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार है | कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध, संपादन, समीक्षा आदि विधाओं को अपनी लेखनी से संस्पर्श कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है | इनके लेखन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इनके साहित्य में शहरी एवं ग्रामीण जीवन के संयुक्त चित्र अंकित हैं | इन चित्रों की विविध रंगी रेखाएँ मिट्टी के रंग में रंग कर खुशबू बिखेरती है तथा समसामयिक यथार्थ से रू-ब-रू करवाती हैं | दूसरी ओर लेखक की कहानियाँ घर, परिवार, समाज एवं राष्ट्र को अपने ह्रदय के भीतर समेट कर चलती है | यादव जी का 'मेरी प्रिय कहानियाँ' कहानी संग्रह ई. स. २०१० में प्रकाशित हुआ था | उस संग्रह में कुल मिलाकर १६ कहानियाँ संकलित है | संग्रह की प्रत्येक कहानी समसामयिक परिवेश के यथार्थ रू-ब-रू करवाती हैं |
           'मेरी प्रिय कहानियाँ' कहानी संग्रह की प्रथम कहानी 'दोस्ती' है, यह एक सत्य घटना पर आधारित कहानी है | संसार में मनुष्य मात्र के दम-घुटन की समस्या से अवगत करवाती है | कबरी बिल्ली की सामान्य घटना द्वारा दम घुटने की वैश्विक समस्या से मुक्ति दिलवाने का विनोदात्मक शैली में उद्देश्य प्रधान प्रसंग को चित्रित किया है | नायक एवं नई पत्नी के बीच की दूरियाँ भी मिटाई जाती है | यानी कहानी में लेखक ने समस्या के साथ-साथ समाधान भी प्रस्तुत किया है | कबरी बिल्ली का प्रसंग पढ़ने वाले प्रत्येक पाठक अपने बचपन की स्मृतियों में रममाण होने के लिए मजबूर हो जाता है | इतना ही नहीं, एक सामान्य घटना से असामान्य उद्देश्य को हमारे सामने प्रस्तुत किया है |
'लेरुवा' शीर्षक से लिखित कहानी पशु, पक्षी एवं मनुष्य के प्रेमासक्त ह्दय का चित्रण करती है | यह कहानी आधुनिक परिवेश में पशु एवं मानव ह्रदय के भीतर बहती प्रेम गंगा से रू-ब-रू करवाती है | आज के भौतिकी परिवेश में मनुष्य-मनुष्य के बीच आपसी संबंध शुष्क हो गए है | इनके सामने लेरुवा कहानी हमें सुंदर, कोमल, निस्वार्थ और बाल सहज स्नेह से भिगोती है | 'लेरुवा' घर का एक सदस्य लगता है, बल्कि वह सच में एक गाय का बछड़ा है | 'ललकी' गाय बचपन में लेखक को दूध पिलाती है तब माँ स्वयं अपने आप से कहने लगती है कि यह मेरा बेटा है या ललकी का ? कहानी के अंत में परोक्ष रूप से अंधविश्वास की आग को सुलगाया है | जिसकी ज्वाला की दाहकता से शिक्षित और पढ़-लिखे लोग भी मुक्त नहीं हो पाते | अतः लेरुवा कहानी मनुष्य और पशु के बीच रसमय, सस्नेह प्रेम हदय की पाठशाला है | जो मनुष्य जाति को शिक्षित कर जाती है | यह कहानी पढ़ने के बाद महादेवी वर्मा की सस्नेह याद आये बीना नहीं रहती |
'अपने आदमी' कहानी आज के बदले हुए व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और परिवेश को कुरेद कर खाने वाली जातिवाद की समस्या को प्रतिबिंबित करती है | राष्ट्र और समाज को खोखला करने का काम वैषेले जाति के वैमनस्य ने किया है | इनके सामने व्यक्ति, समाज और राष्ट्र संघर्षमय एवं कुंठित हो जाता है | राष्ट्र की विकासात्मक प्रक्रिया में सबसे बड़ा रोड़ा बनता है | प्रस्तुत कहानी में लम्मदार एक उच्चवर्गीय चरित्र है जो कुबरा तथा चमार टोलियों के पास डरा-धमकाकर काम करवाता है | इनके हुकम से पुरवा के सब आदमी अपने-अपने हल और बैल लेकर लम्मदार के खेत में काम करने के लिए निकल पड़ते हैं | दोपहरी का असह्य घाम था, शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था तब पुरवा के लोग लम्मदार से दाना-पानी करने के लिए कहते हैं | उस समय तुरंत ही इनके अंदर का शैतान भड़क कर कहता है कि "करेगा क्या ससूर ? दाना-पानी हमें भी करना है, लेकिन वह दोनों बीघा खेतवा तोर बाप जोते ? चल जोत | जब तक पूरे खेतों में हर घूमि ना जाय तब तक छुटी न मिले |"१ यहाँ कहानी कथन में मानवीय अत्याचार, छुआ-छूत, ऊंच-नीच, जातिवाद आदि समस्याओं से पीड़ित और दु:खी मनुष्य आर्त पुकार सुनाई देती है | लम्मदार का बड़ा लड़का संजय भी कोई अच्छा इन्सान नहीं है | संजय हर समय बंदूक लेकर घूमता-फिरता था | पिता-पुत्र के बीच भी आपसी संघर्ष शुरू हो जाता है | खेतों के बटवारे तक बात आ पहुँचती है | चौधरी बीमार है फिर भी उसे काम करने के लिए ले जाया जाता है | उस समय जग्गू अपनी आवाज बुलंद करता है | इतना ही नहीं, जग्गू की आवाज में विद्रोह भी सुनाई पड़ता है | परिवर्तन है | बदलाव है | संघर्ष है | जग्गू लम्मदार से कहता है कि "अब वह जबरदस्ती नहीं चलेगी | हम लोग भी आदमी है |"२ अतः मनुष्य के साथ जानवर जैसे व्यवहार का एक नमूना लम्मदार है | कहानी के अंत तक आते-आते संघर्ष का शंखनाद विजय की ब्यूगल बन जाती है | चमार एवं चौधरी को देखकर स्वयं लम्मदार कहता है, "कभी मेरे आदमी थे | मेरे कदमों पर चलते थे | अब मेरे कोई नहीं है | अब यह खुद अपने-अपने गाँव और अपने देश के अपने आप में आदमी हो गये हैं |"३ 'ऊसर जमीन' कहानी नारी विमर्श संबंध है | नारी जीवन की व्यथा, पीड़ा, दर्द, अवहेलना, कसक और घुटन के दु:ख को व्यक्त करती है | अपने आप को सभ्य एवं सुसंस्कृत मानने वाला समाज आज भी संवरकी ऊसर को स्वीकारते नहीं, बल्कि उसे शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक यातनाओं के पहाड़ों के सामने टकराना पड़ता है | जो कतई नहीं टूटता | रघुपत दादा के शब्द समाज के यथार्थ को व्यक्त करते हैं कि "संवरकी की ऊसर जमीन-सी | भला क्यों पसंद आएगी लोगों को | ऊसर में ऊर्वर शक्ति नहीं होती | उन्हें कोई नहीं स्वीकारता |"४ संवरकी का चरित्र करुणा प्रधान चरित्र है | संवरकी न जाने राष्ट्र की कई स्त्रियों का प्रतीक है | कहानी में सबका ध्यान आकृष्ट करने वाली बात यह है कि डाकिया जब चिट्ठी पढ़ने लगता है तो पाठक के दिल और दिमाग दोनों ही तृप्त हो जाते हैं, "रघुपत दादा राम-राम | ऊसर में अंकुर फूट गए हैं | संवरकी माँ बनने वाली है |"५ कहानी के अंत तक आते-आते लेखक का आशावादी स्वर बुलंद हो गया है |
'पूजा' कहानी मानव मस्तिष्क में व्याप्त आस्था-अनास्था, आस्तिक-नास्तिक, श्रद्धा-अंधश्रद्धा आदि से संबंध रखती है | घर-परिवार में बच्चों की स्वतंत्रता किस तरह छीन ली जाती है | इसके सामान्य संकेत भी पूजा में प्राप्त होते है एवम् नगरीय सभ्यता की एक झलक मिलती हैं | नगरवासी सतही रूप से नास्तिक नजर आते हैं, परंतु इनके भीतर कहीं ना कहीं श्रद्धा और आस्था का दीपक प्रज्वलित रहता है | 'पहली मुलाकात' कहानी शैक्षिक और व्यक्तिक जीवन की कथा प्रस्तुत करती है | जिनमें लेखक और शोधार्थी के शोध-कार्य विषयक मुलाकात व यात्रा का सजीव वर्णन किया है | शोध-कार्य में आनेवाली बाधाएँ, विश्वविद्यालयों के अध्यापक, आचार्य एवं अध्यापक तथा अध्यापक-अध्यापक के बीच का आंतरिक संघर्ष एवं ज्ञान के रक्षक कैसे ज्ञान के भक्षक बन जाते हैं ! यह बखूबी और सांकेतिक ढंग से यथार्थ रूप में दिखाया है | पति-पत्नी के व्यक्तिगत जीवन की प्रथम मुलाकात के समय यह सलाह-मशहौरा दिया है कि पति-पत्नी की प्रथम मुलाकात में अरुचिकर बातें नहीं करनी चाहिए | जिससे पत्नी का दिल टूट जाय | शादी के जीवन को मधुर बनाने की ओर ईशारा किया है | प्रवर्तमान परिवेश का यथार्थ प्रतिबिम्ब झलकता है |
'दूसरी सफर' जैसे दिलचस्प शीर्षक से लिखित कहानी प्रत्यक्ष रूप से रेलवे सफर की यात्रा लगती है, लेकिन परोक्ष दृष्टि से यह कहानी जिंदगी के सफर में आने वाली बाधाओं की कहानी है | इसके साथ-साथ व्यक्ति को मिलनेवाली मनुष्य एवं समाज की ओर से झूठी हमदर्दी, भाईचारा, स्नेह, ममत्व का खुला चिट्ठा है | कितना भी कोई कुछ छीपा ले, परंतु व्यक्ति तथा समाज का असली चेहरा सामने आये बीना नहीं रहता | 'काफी कुछ' व्यंग्य प्रधान रचना है | शिक्षित एवं शहरी जिंदगी पर कड़ा व्यंग्य कसा गया है | उनके आचार-विचार, पोशाक-पहनावा, रहन-सहन, मनोजगत आदि पर सरल-सहज भाषा में व्यंग्य किया है | जो प्रत्येक समय अपने मुखौटों पर नकली मुखौटा पहनकर पेश आते है | परिवार और समाज को मध्यस्थ बनाकर 'वह रात' कहानी लिखी गयी है | 'चंदा' का मनोजगत शहरी जीवन के मनोलोक का प्रतीक है तथा गाँव के लड़कों के बीच के वैषम्य को रेखांकित करता हैं | शहरी सभ्यता के संतान तथा माता-पिता के संबंध के लिए लालबत्ती दिखाई है | "माँ-बाप के डर से संतान कठपुतली नहीं होती |"६ व्यक्ति के बदलते समय प्रवाह में परंपरा, रीती-रिवाज, रूढि़वादिता एवं संकुचित-मानस अवरुद्ध और बाधक बनते हैं | परिवार में शादी के पहले लड़का-लड़की मिल-देख नहीं सकते, क्योंकि यह समाज के सामाजिक बंधन है | शादी के बाद भी पर्दा-प्रथा में जीना पड़ता है | चन्दा की  पर्दा-प्रथा समाज की मोहन्धता को व्यक्त करती है | "परदा प्रथा के बंद होने पर झाँकने की प्रथा बंद हो सकती है, लेकिन लोग परंपराओं को अब भी ओढ़े हुए जी रहे हैं |"७ आझादी के इतने सालों बाद भी समाज में पर्दाप्रथा, बेमेल विवाह, रूढ़िवादी मानस, परंपरा तथा दहेज-प्रथा के खिलाफ़ परिवर्तन की लहर उठी फिर भी समाज को दीमक की तरह कुरेदकर खाये जा रही है |
'बिना बाप का बच्चा' नारी जीवन की वेदना को अभिव्यक्ति करती है | जिस कार्य के लिए पुरुष समाज को दाग लगता है, वही दाग समाज को निकम्मा और पुरुषहीन घोषित करता है | भारतीय समाज में विधवा बनकर जीना कितना कठीन है, इसका जीवंत उदाहरण कहानी नायिका 'नईकी' है | नईकी की विधवाओं का प्रतिनिधि पात्र हैं, जो इन यातनाओं को भोग रही है | नईकी जीवन में सहारा बनकर अपने बच्चे की भूख को तृप्त कर सके इसलिए वह छद्ददर की मनोकामना पूरी करती है, किन्तु पंचायत में जब छद्ददर को बुलाया जाता है | तब वे नईकी के बच्चे का बाप बनने के लिए तैयार नहीं होता और उस समय नईकी समग्र मर्द जाति का ठुकराघात करती है, "धिक्कार है ऐसे स्वार्थी-लंपट मर्दों को ! कमीनों औरत के साथ खिलवाड़ करके मुँह छिपाते हो |"८ कहानी अंतिम भाग में नारी सशक्तिकरण और परिवर्धन के ब्यूगल बजाती है | नईकी अपने बच्चों को गोद में लेकर चूमते हुये कहती है कि, "चल बेटा कहीं दूर चलें इन नामर्द मजदूरों और किराये के टट्टूओं के गाँव में नहीं रहना है | चलो कहीं दूर दूसरा नया समाज निर्माण करेंगे | जहाँ पर किसी बच्चे को बाप ढूंढने की जरूरत नहीं पड़ेगी |"९ नईकी नारी चेतना एवं बदलाव की प्रकाशित लौ ज्वालामुखी के समान भड़क उठती है |
शिक्षित समाज के गँवारेपन का पर्दाफाश करने वाली कहानी है, 'भूत के सामने' | शिक्षित लोग ऊपर से अच्छे-खासे मालूम होते हैं, लेकिन मन से कितना रूढ़ होते है | इसका पूरा शब्द चित्र इस कहानी में रेखांकित किया है | श्यामजी पढ़े-लिखे लेखक का दोस्त है और लेखक होली के त्यौहार पर उसको बधाई देने के लिए उनके घर पहुंचते है तथा देखते है कि श्यामजी के घर में राजनाथ, श्यामजी, श्यामजी की पत्नी, टंडनजी आदि थे | जो अंधविश्वास और दहशत के दलदल से आतंकी थे | यह भय फैलाने का काम राजनाथ करता है | समाज में भी ऐसे भय को स्थापित करने वालों के सामने लोग मुक प्रेक्षक बनकर रह जाते हैं | शिक्षित व्यक्ति भी राजनाथ जैसे शिकारी के शिकार होते है, परंतु लेखक अपनी मौजूदगी दर्ज करवा कर एक जागृत व्यक्ति की भूमिका अदा करते है | लेखक के बुलंद विद्रोह का स्वर है, "मैं नि:स्वार्थ भाव से भूत-प्रेत बैसिर-पैर की बातों का विरोध करता हूँ |"१० 'क्रांति और शांति' पारिवारिक टकराहट को व्यक्त करती है | जब हम कहानी के भू-तल में उतरे तब तरकी उस समाज का प्रतीक पात्र है | परिवार के स्वार्थी लोगों की बजह से क्रांति की जिंदगी किसी भी तरह कटी थी | छ: सदस्यीय परिवार का गुजर-बसर करना उनके लिए कड़ी साधना से कम न था, लेकिन शांति भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर उसका साथ निभाती है | 'सेठाइन' जब नायक के घर से चली जाती है तब इनके पिता शांति के लिए बीज रूप विधान कहते है, "हम नहीं जानते थे कि वह इतनी जबरदस्त क्रांति कर देगा |"११ 'वह सुबह' कहानी संस्मरणात्मक घटना से आप्लावित है | भोला और करमी इस कहानी के नायक-नायिका है | भोला और करमी के युवावस्था के सहज आकर्षण को व्यक्त कर समाज के तेरह-चौदह साल के युवकों की समस्या को लेखक ने उठाया है तरुणों में स्वप्नदोष की समस्या उठाई है | तरुण लड़के उन्हें छिपाते है एवं एक दिन भयंकर रूप धारण करने के लिए खुला न्यौता देते है | स्वप्न दोष को भ्रमवश एक रोग समझने लगते है | जिसके कारण युवा लड़के मानसिक पीड़ा से ग्रसित हो जाते हैं | इन सारे भ्रमात्मक विचारों को दूसरों के सामने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में अपनी संकुचित मन:स्थिति व्यक्त करने का आह्वान किया है | स्वप्न-दोष के कारण एवं मुक्ति के उपचार भी कहानी में लेखक द्वारा प्रस्तुत किये हैं | नायक को स्वप्न दोष की समस्या से अपने बचपन की हमजोली करमी बचाती है | सच तो यह है कि यह कहानी देश के लाखों युवाओं के भ्रमित मन के मैल को साफ करने का साबुन है | संभव हो कि राष्ट्र में भ्रमात्मक अवस्था जी रहे तरुणों को मुक्ति दिलाने में सफल हो |  'कम्प्यूटर की लड़की' कहानी में लेखक ने कलाकार के हुनरमंद स्त्रियों की शोषण दास्ता को प्रतिबिंबित करती है | इसकी भाषा सटीक-सहज है | धन लालसा इन्सान  को किस हद तक अमानवीय बना देती है | इसका जीवंत उदाहरण कम्प्यूटर की लड़की कहानी है | नायक भोला अपने वर्तमान एवं विगत जीवन के जरिए यह घटना स्पष्ट करता है कि यह कहानी समाज के अर्थशोसित लोगों की बदबूदार मन:स्थिति की गंदगी दिखाती है | घछियारीन, सुपती, माया, गीता एवं कम्प्यूटर की लड़की का किस तरह सफेदपोश वाले लोगों द्वारा खून चूसा जाता है यह अमित के शब्दों में व्यक्त किया है, "शोषण की मर्यादा होती है | इन लाचार गरीबों की आंखों पर पट्टी बांधकर इनका खून चूसते हो | देखो इनके तन पर की एक-एक हड्डी कोई भी गिन ले |"१२ समाज में आज भी अर्थ शोषण की भयंकर आग में जलकर न जाने कितनी जिंदगियाँ खाक हो जाती है |
'जमीन शिकार होती हुई' कहानी पिता की छबी को कलंकित करने वाली घटना को रेखांकित करती है | कहानी नायिका जैमिनी यानि जमीन है | जमीन एक कॉलेज छात्रा है | जो अपने ही पिता की रूढ़ और अंधविश्वासी मनोलोक की क्रूर शिकार बनती है | जिसकी चीखें आज भी दिवाकर के कानों में सुनाई पड़ती है | जमीन कॉलेज में व्यवस्था सुलभ न होने की वजह से अपनी सहेली के यहाँ उनके घर कपड़े बदलने के लिए जाती है, लेकिन उनका पिता जमीन पर शक करते है और अंतत: जान निकाल कर ही छोड़ते है | जमीन की घटना शैक्षिक संस्थान, अध्यापक-अध्यापिका, झूठी और फरेबी अफवाह, शंकालु स्वभाव, अज्ञान पिता की नासमझी आदि जमीन के मौत के लिए जिम्मेदार है | अध्यापक दिवाकर की पत्नी तेवर बदलकर पितृप्रधान समाज में पिता की भूमिका पर प्रश्न खड़ा कर देती है, "पिता इतना क्रूर हो सकता है, स्वप्न में भी नहीं सोची थी | ऐसे लोगों के कारण गाँव, समाज और देश में लड़कियों के सपने मात्र सपने रह जाते हैं |"१३
           अंत: समग्र कहानी संग्रह की कहानियों को पढ़ने के बाद यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि डॉ.सूर्यदिन यादव का 'मेरी प्रिय कहानियाँ' कहानी संग्रह  भारतीय समाज के सामाजिक परिवेश का यथार्थ और जीवंत दस्तावेज है | जिसके प्रमाण भारतीय शहरी एवं ग्रामीण समाज है | अपने संग्रह कहानियों में लेखक ने परिवार, समाज और राष्ट्र की ज्वलंत समस्याओं से अवगत करवाया है | कहानियाँ व्यक्ति, परिवार, समाज तथा राष्ट्र को इस गंदगी से बचने के उपचारात्मक सुझाव भी पेश करती है | कहानियों की भाषा पाठक के मन को आकर्षित करती है | भाषा-शैली कथानक, घटना, विचार, चरित्र और परिवेश के अनुकूल है, किंन्तु ग्रामीण परिवेश के चित्र अंकित करते समय लेखक ने देशज शब्दावली की मिलावट अधिक की है | जो पाठकों के लिए रुकावट बनती है | सच तो यह है कहानियों के कथानक शहरी और ग्रामीण समसामयिकता के हुबहू चित्र उभारते हैं | जिनकी रेखाएँ पाठकों के दिल और दिमाग में कायम अंकित हो जाती है | समग्रत: डॉ. सूर्यदिन यादव जी का प्रस्तुत कहानी संग्रह हिंदी साहित्य भंडार की समृद्धि बढ़ाता है और समाज को नई रोशनी देता है, तांकि समाज अपने भीतर की बदबूदार गंदगी से नया रास्ता खोजकर बाहर निकल सकें | यही लेखक का प्रधान उद्देश्य है | 
संदर्भ :-
(१) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-२७
(२) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-२३
(३) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-३१
(४) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-३८
(५) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-३९
(६) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-७७
(७) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-७५
(८) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-८८
(९) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-८८
(१०) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-१०४
(११) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-१०८
(१२) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-१२२
(१३) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-१३०

Tuesday, 6 July 2021

कोणार्क नाटक की समीक्षा

(1) प्रस्तावना:-

               जगदीशचंद्र माथुर हिन्दी के श्रेष्ठ नाट्य-लेखक और प्रसिद्ध एकांकीकार है । माथुर जी साहित्य लेखन की शुरूआत ‘भोर का तारा’ एकांकी लिखकर करते है । इनके साहित्य में भारतीय सांस्कृतिक विरसत, ऐतिहासिक मूल्य, सामाजिक पृष्ठभूमि और पाश्चात्य नाट्य-शिल्प का अंकन मिलता हैं। अपनी सभी रचनाओं में हमें उपदेश देना नहीं भूलते । जो हिन्दी साहित्य में जगदीशचंद् माथुर के साहित्यिक रचनाओं की मूल्यवान देन हैं । माथुर की सभी रचनाओं में सामाजिक समस्या, मध्यमवर्गीय समस्याओं और पौराणिक तत्वों को भी अपनी रचना में उतारा है । विषय की दृष्टि से उनकी सभी रचना आकर्षक  एवं रोचक हैं । प्रवर्तमान समाज  को अपनी   रचना में खड़ा करते हैं । ‘कोणार्क’ नाटक में कथानक आकर्षक, रोचक और उपदेशात्मक हैं । नाटककार ने उसमें पात्रसृषटि रचना भी बहुत ही अच्छी की हैं । सभी पात्रों की भूमिका से हमें एक सीख मीलती हैं । ‘कोणार्क’ जगदीशचंद्र माथुर द्वारा रचित श्रेष्ठ नाटक  हैं, कयोंकि इसमें  नाट्यकला के सभी तत्वों का सफ़ल निर्वाह हुआ हैं  । ऐतिहासिकता की दृष्टि से भी बहुत मूल्यवान नाटक हैं, जिसकी    आधुनिक हिन्दी नाट्य साहित्य में अपना एक अलग स्थान सुनिश्चित हैं ।


 (2) कथानक :-

              जगदीशचंद्र माथुर ने ‘कोणार्क’ नाटक का कथानक मुख्य रूप से तीन अंकों  में  विभाजित  किया हैं । 

              नाटक के पहले अंक में सूत्रधार और दोनों वाचिकाएँ पात्रों का परिचय देती हैं । बाद  में  मंच पर एक ज्योति फैलती हैं, तब हम एक चौकी पर बैठे व्यक्ति को देखते हैं । जो नाटक का मुख्य शिल्प और नाटक का नायक विशु हैं । उसका कमरा आयॅ अंधकार विहीन हैं । बाद में  कक्ष और  मंदिर का वर्णन किया है । विशु चिंतित मुद्रा दिखाई देता हैं । तब वहाँ मुख्य पाषाण रजीव  आता है । फिर विशु और राजीव के संवाद द्वारा से ये जान पड़ता हैं कि कोणार्क मंदिर संपूर्ण हो चुका है सिर्फ समय के ऊपर त्रिपदघर का स्थापित करना बाकी है । उसी समय सौम्यश्री का प्रवेश होता हैं  । वह मंदिर का नाट्याचार्य हैं । वह विशु को अपनी वेष-भूषा दिखता हैं । राजीव विशु को ज्ञात करता हैं कि कोणार्क उत्कल राज्य के राज ज्योतिषी कहता है कि कोणाक  देवालय ज्यो ही पुरा होगा त्यों हीं इसके पत्थरों में पंख लग जायेंगे और सारा मंदिर आकाश में उड़ लगेंगा…… । विशु भी यह बात का परिहास की बात नहीं समझता । सौम्यश्री विशु से पूछता हैं कि तुम उत्कल नरेश के क्रोध को कैसे शांत करोगें ? यह सवाल पूछता है, तब उत्कल नरेश नरसिंहदेव वंग प्रदेश  में यवनों के साथ युद्ध करने गये थे । पर विशु का राजा नरसिंहदेव पर पुरा विश्वास था । मगर सौम्यश्री उसे कहता है कि आजकल राज-राज चालुक्य जो राज्य का महामात्य हैं वहीं सब नरेश के अधिकार जमा बैठा हैं । तब विशु कहता है, हमे कैसे भी करके कोणार्क को पूरा करना है । फिर राजीव के जरिये विशु को धर्मपद से मिलवाता है । पहले राजीव उसका परिचय देता है कि विचित्र जीव है; कभी तो मौन हैं, मंदिर के कलश की ओर निर्निमेष भाव से देखता है और उसकी आयु भी कम हैं । सोलह वर्ष की आयु हैं  । बहुत ही कम समय में चमत्कार पूर्ण मूर्तियाँ तैयार कर देता हैं  । तब विशु को आश्चर्य होता हैं । विशु और सौम्यश्री  के संवाद होते हैं  । तब विशु सत्रहवें वर्ष पहले की अपनी प्रेम कहानी  का जिक्र करता हैं  । वह शबर जाति की सारीका से प्यार करता था  । जब उसे पता चला की  सारिका उसकी माँ बनने वाली है, तब वह समाज  के डर से भाग कर  भूवनेश्वर चला गया  । यह कहानी सूयॅमूतिॅ  के जिक्र से विशु बताता है । एक ओर रहस्य भी बताता है कि ठीक बीच में जो चुंम्बक है उसे हटाते ही मूतिॅ बडे वेग से गिर पडेगी और भूकंप की भाँति ही मंदिर की शिलाएँ और स्तंभ गिरने लगेंगे । तभी राजीव और धर्मपद आता हैं  । विशु कला का महत्त्व देता है । तो धमॅपद पुरुषार्थ का महत्त्व देता है  । धर्मपद कोणार्क  के बारहसों शिल्पीयों का दर्द  बताता है  । विशु तो पहले तो धर्मपद की बात मानता नहीं है पर जब महामात्य चालुक्य खुद आकर विशु और सब शिल्पीयों को धमकी दे जाते हैं कि यदि सप्ताह में मंदिर पुरा नहीं हुआ तो तुम सबके हाथ कांट लिए जायेंगे । यही उत्कल नरेश की आज्ञा हैं  । पर विशु का नरसिंह देव पर भरोसा था और यह भरोसा टूटता भी नहीं हैं  । जब धर्मपद विशु का  अम्ल पर त्रिपदघर को रखने की युक्ति बताता है तब वह बहुत आनंदित हो उठता है  । पर धर्मपद उसके बदले में मूर्ति प्रतिष्ठापन के दिन एक ही दिन के लिए विशु के सारे अधिकार माँगता है और विशु उसको हा कहता है । 

                  जब नरसिंहदेव धर्मपद का धन्यवाद करते हैं तब धर्मपद चालुक्य का षड्यंत्र कहता है; कयोंकि वह एक दिन के लिए महाशिल्पी हैं । जब नरसिंहदेव का पता चला तब तक देर हो चुकी थी । चालुक्य ने एक षडयंत्र रचा था  । सारे सैन्य को लेकर मंदिर को घेर लिया और शैवालिक दूत को भेजा तब धर्मपद बहुत अच्छा उत्तर देकर उससे युद्ध करने की हा कहता है । वह सारा कार्य  संभल लेता है । बारहसों शिल्पी और दूसरे  मजदूरों सैनिक बनते हैं और चालुक्य के सामने युद्ध करते हैं । पर चालुक्य रात्रि का नियम तोड़ कर मंदिर के अंदर घुस जाता हैं, उस समय विशु को पता चलता हैं कि धर्मपद हीं उसका बेटा है । पिता-पुत्र का मिलन होता है पर धर्मपद शिल्पीओं को न्याय देने के लिए फिर से युद्ध के लिए जाता हैं  । चालुक्य के सैनिक उसको मार देते हैं । तब विशु सूर्यमूर्ति के कक्ष में जाकर चुम्बक पर प्रहार करता है तब वहाँ चालुक्य और उसके सैनिक और सौम्यश्री पहोच जाते हैं पर विशु नहीं रुकता आखिर में कोणार्क मंदिर टूट जाता हैं । चालुक्य और उसके सैनिक मारे जाते है तथा विशु भी उसमें मृत्यु के घाट उतर जाता हैं । सौम्यश्री बच जाता है  । यहाँ इस नाटक का करुणता के साथ अंत होता हैं । 

 3. पात्रसृष्टि:-

             साहित्य की प्रत्येक  रचनाओ में पात्र होना अनिवार्य है । पात्र रचना का प्राण है  । उनके ही आधार से रचना का कथ्य आगे बढ़ता है । पात्र ही रचना का मूल उद्देश्य दृश्यपट पर प्रकट  करता हैं । कोणार्क नाटक में भी जगदीशचंद्र  माथुर ने उच्चकोटि की पात्रसृष्टि का सृजन  किया । कोणार्क नाटक में मुख्य पात्र के रूप में महाशिल्पी विशु हैं । जिसनें कोणार्क मंदिर का निर्माण किया है । मगर हमे धर्मपद भी मुख्य पात्र के समान ही लगता हैं । माथुर जी ने पिता के गुण को पुत्र में बहुत ही आकर्षक ढंग से  रखे हैं । प्रतिनायक की भूमिका महामात्य चालुक्य अदा करता हैं । जिसके कारण पूरे नाटक में कितनी ही समस्याएँ पैदा होती हैं और उन सभी समस्याओं को हल करने में सौम्यश्री, नरसिंहदेव, राजीव, महेन्द्र वर्मन और अन्य शिल्पी गण सहाय करते हैं । बीच में विशु की प्रेमिका तथा सूर्य कुंति का वर्णन भी ध्यान आता है । वैसे तो जगदीशचंद्र माथुर ने नाटक में गौण पात्रों को भी एक अनोखे ही तरीके से प्रेक्षकों के सामने प्रस्तुत किया हैं । येसे हम कोणार्क नाटक की पित्रा-सृष्टि के माध्यम से सफल कह सकते हैं । नाटक की कथा, ऐतिहासिक वातावरण और उद्देश्य को सफलता प्रदान करने पात्र काफी रोचक एवम् जीवंत लगते हैं ।

    

(4) संवाद-योजना :-

              संवाद के बीना नाटक संभव ही नहीं, नाट्य रचना में संवाद का होना आवश्यक एवं अनिवार्य है । संवाद के बिना रचना संभव ही नहीं है । संवाद सरल, सचोट, आकर्षक एवं छोटे होने चाहिए । लंबे-छोड़े  संवाद रचना की सफ़लता के बाधक हैं । नाटक को प्रभाव हीन बना देते हैं । संवाद के माध्यम से ही रचना का कथानक आगे बढ़ता है और दर्शक एवं पाठक कथानक को स्पष्ट समज सकते हैं । कोणार्क नाटक में संवाद योजना लेखक ने बहुत अच्छे तरीके से निर्मित की है । सभी यात्रों की मनोदशा तथा आंतरिक-बाह्य व्यक्तित्व की समझ देती हैं ।  उदाहरण दृष्टव्य हैं, 

           विशु :- “आज इस युवक ने ठंडी होती हुई राख को फूंक मारकर प्रज्वलित कर दिया हैं ।“ 

            यह संवाद हमें धर्मपद के अनोखे व्यक्तित्व की समझ  देता हैं  ।

           धर्मपद :- “बहुत हुआ, बहुत हुआ, दूत । क्या हम भेड़-बकरियाँ हैं, जो चाहे जिसके हवाले कर दिये जाये ।“

            चालुक्य :- “ सुन लो और कान खोल कर सुन लो । आज से एक सप्ताह के अंदर यदि कोणार्क  देवालय पूरा नहीं हुआ तो, तुम लोगों के हाथ काट लिए जाएंगे । “

           इन सभी चोटदार संवादों के कारण नाटक की घटनाएँ ही बदल जाती हैं । अतः नाटक के संवाद कथा, पात्र, परिवेश, देश्-काल, उद्देश्य और आंतरिक तथा बाह्य संघर्ष के अनुकूल हैं । पाठक और दर्शक के मन-मस्तिष्क में चीरकाल तक जिन्दा रहने वाले हैं।  जो एक मंझे हुए लेखक की पहचान हैं ।  


  (5) भाषा-शैली :-

        साहित्य में अभिव्यक्ति का माध्यम ही भाषा होती हैं।  साहित्य की सभी रचनाओ में भाषा शैली का अलग ही महत्त्व है । कहा जाता हैं कि “जैसा शील वैसी शैली ।“ यहाँ पर लेखक का जैसा शीलवान वैसी ही उनकी रचनाओं की शैली । कोणार्क नाटक में भी जगदीशचंद्र माथुर ने उत्तम कोटी की भाषा शैली का प्रयोग करके अपने नाटक को सफलता प्रदान की है । कोणार्क नाटक में भाषा शैली का प्रयोग बहुत ही सरल और भावमय प्रवाह से हुआ है । पिता-पुत्र के मीलन के वक़्त तथा विशु-सौम्यश्री को जब अपने प्यारी प्रेमिका सारिका की बात बताता है, तब माथुर ने भावमय शब्दों का प्रयोजन किया हैं । शुद्ध हिन्दी नाटक की भाषा हैं  । कथ्य पौराणिक होने के कारण कहीं-कही प्राचीन संस्कृत शब्दों का भी प्रयोग हुआ है । कहीं भी कठिन शब्दों का प्रयोग नहीं हैं । परंतु ऐतिहासिक शब्दों का प्रयोग हुआ है, फिर भी कोणार्क नाटक की भाषा-शैली सरल है । चित्रात्मक शैली का प्रयोग तथा प्रतिदीप्ति शैली का भी प्रयोग हुआ है  और इन सबके कारण भाषा-शैली के माध्यम से नाटक सरल-सफल कहा जा सकता हैं ।


(6) देशकाल और वातावरण :-

            साहित्यिक रचना में देशकाल और वातावरण का प्रयोग  बहुत ही मायने रखता हैं । जो पाठक को रचना का समय, स्थान और परिवेश का ज्ञान हो जाये तो उसके लिए रचना को समझना और भी आसान हो जाता है । इसीलिए किसी भी रचना में देशकाल और वातावरण का प्रयोग अनिवार्य बन जाता हैं । जगदीशचंद्र माथुर अपने कोणार्क नाटक की कथा के पात्र के माध्यम से देशकाल और वातावरण निर्मित किया हैं ।

                    जगदीशचंद्र माथुर ने नाटक का समय सन् 1960 के करीब का दर्शाया है । अतः पूरा नाटक ऐतिहासिक हैं । इसके कारण देशकाल और वातावरण भी ऐतिहासिक हैं । समय तो दर्शाया गया हैं और स्थान भी कोणार्क मंदिर तथा प्रधान शिल्पी विशु के कक्ष में ही पुरे नाटक की घटनाएँ इन दोनो स्थान पर ही घटित होती हैं । अद्भुत मूर्तियाँ तथा निराधार सूर्यमूर्ति का भी वर्णन आता हैं । मंदिर के बाहर सैनिक घोड़े, हाथी तथा ऐसी आवाज़े का वर्णन भी मिलता हैं । पुरा वातावरण ही ऐतिहासिक हैं, कहीं भी आधुनिकता के दर्शन नहीं होता । सब शिल्पियों के कार्य का वर्णन हूबूहू अंकित हैं और वातावरण भी कुछ ऐसा ही हैं । पत्थरों के टूटने की आवाज़ और नयी-नयी मूर्तियों का निर्माण भी माहोल को अलग बनाता है । जब महामात्य चालुक्य और नरसिंहदेव तथा विशु और अन्य शिल्पीयों के बीच युद्ध होता हैं तब वातावरण वीर रस से पूर्ण और गंभीर बन जाता है । जब विशु को पता चलता हैं कि धर्मपद ही उसका बेटा है और उन दोनों का मिलन होता हैं, उस दौरान वातावरण अचानक करुणा तथा आनंद में बदल जाता हैं । इस तरह जगदीशचंद्र माथुर अपने नाटक में वातावरण के जरिये पाठकों एवं दर्शकों को कभी करुणा तो कभी आनंद में लहराते हैं । नाटक में देशकाल और वातावरण की वज़ह से नाटक प्रसिद्ध  और लोकप्रिय बना हैं  । 

(7)  शीर्षक :-

               शीर्षक किसी भी रचना का प्रवेशद्वार होता हैं । शीर्षक कथा के अनुकूल, पात्र के नाम तथा प्रसंग एवं स्थान के माध्यम से रखा जाता हैं  । शीर्षक छोटा, सचोट और सारगर्भित होना चाहिए । कथा के अनुकूल होना चाहिए । रचना किसी भी चीज तथा पात्र का बार-बार जिक्र आता है तो वहीं रचना का शीर्षक रख दीया दिया जाता हैं । कभी कोई लेखक घटना के माध्यम से भी रचना का शीर्षक रख देते हैं । अतः शीर्षक रचना का मस्तक हैं ।

             कोणार्क  नाटक का शीर्षक छोटा एवं सरस है । जगदीशचंद्र माथुर कथा के अनुकूल शीर्षक रखा है । अपने नाटक की पुरी घटनाएँ कोणार्क सूर्यमन्दिर में घटित हुई हैं । इसलिए लेखक अपने इस नाटक का शीर्षक कोणार्क रखा है । जो यथार्थ और सार्थक भी है । कोणार्क मंदिर के कारण ही कथा इतनी रोचक बनपायी हैं । इसलिए शीर्षक भी तो ‘कोणार्क’ ही उचित होगा ? शीर्षक के माध्यम से पूरा नाटक और भी सफल हुआ हैं । पूरी कथा ऐतिहासिक हैं; इसलिए शीर्षक भी उनके अनुकूल ही होना चाहिए ।  जगदीशचंद्र माथुर ने इन सभी बातों को ध्यान में रखकर नाटक का शीर्षक ‘कोणार्क’ रखा है।  जो आज भी पाठकों और दर्शकों के दिलों में राज करता है ।

(8)  उद्देश्य :-

             संसार का कोई भी कार्य उद्देश्य बगैरह नहीं होता । तो फिर नाट्य रचना उद्देश्य बीना कैसे हो सकती हैं ? किसी भी रचना में उद्देश्य  छुपा ही होता हैं । फिर चाहे हास्य की रस से हो या फिर हास्य-व्यंग्य और कटाक्ष करके उद्देश्य को जाहिर कर ही देता हैं ।  जगदीशचंद्र माथुर कोणार्क में ईन्सान कोई भी काम करने का ठान ले तो उसे पूरा करके ही दम लेता है । यह उद्देश्य नाटक में प्रधान हैं । जगदीचंद्र माथुर अपनी सभी रचनाओं में समस्याएँ तथा उद्देश्य को ज्यादा प्रधानता देते हैं । उसके कारण ही कथा वास्तविक तथा रोचक बन जाती हैं । कोणार्क नाटक में अपने अधिकार के लिए जान से भी खेल ने वाले धर्मपद तथा अन्य शिल्पीयों के माध्यम से अन्याय का सामना करना यही उद्देश्य देते हैं । विशु समाज के डर से अपने सच्चे प्यार को छोड़ कर भाग जाता हैं । इसी प्रकार लेखक समाज की कुरीतियों को दर्शाकर उसका सामना डटकर करना चाहिए यही उद्देश्य देता हैं । फिर सौम्यश्री जैसे मित्र अपनी मित्रता कैसे निभाता हैं ।  नरसिंहदेव के माध्यम से प्रजावात्सल तथा वफादार राजा के दर्शन करवाया है ।  राजा या साशक हो तो नरसिंहदेव जैसे होना चाहिए । लेखक यह भी स्पष्ट करते हैं कि किसी भी मानवी को छोटा नहीं समझना चाहिए । इस बात को शिल्पियों के आधार पर बताया हैं और बूरे कर्म करने वालों के साथ हंमेशा ही बूरा ही होता हैं । इस कुदरती सत्य को भी स्पष्ट किया हैं । यह बात चालुक्य तथा उसके सैनिकों  के माध्यम से दिखाया हैं और यहाँ पर पुरुषार्थ का भी उद्देश्य दिया गया है । विशु की साधना के कारण ही कोणार्क जैसा भव्य मंदिर बन सका । वैसे तो सभी पात्रों तथा सभी घटनाओं में उद्देश्य छीपा हुआ  है । इन सभी बातों को ध्यान में रखकर हम कोणार्क नाटक को उद्देश्य की दृष्टि से कफी सफल कह सकते हैं ।


(9) रंगसंकेत :-

            हिन्दी साहित्य की अन्य गद्य विद्याओं से हटकर एकांकी और नाटक में रंगसंकेतों तथा रंगमंचीयता का समावेश होता हैं । नाटक में  रचनाकार पात्र की क्रिया, उनका वर्णन, किसी भी घटना का वर्णन आदि सूचना को रंगसंकेतों के माध्यम से प्रस्तुत करता हैं । जगदीचंद्र माथुर कोणार्क नाटक में  रंगसंकेतों का प्रयोजन बहुत ही अच्छे से किया हैं । सभी बातों का ध्यान में रखकर किया हैं । रंगसंकेतों को सूत्रधार एवम् वाचिकाएँ वाचक बताता है । वातावरण को भी रंगसंकेतों के आधार पर दर्शाकर कथा को लंबी नहीं बनने देते  और मंच पर भी उसका दृश्य बताना नहीं पड़ता । वैसे तो जगदीशचंद्र माथुर ने भी अपने नाटक में  रंगसंकेतों का संकेत अच्छे से बताया हैं । 


(10) रंगमंचीयता :-

                  नाटक और एकांकीयों में  रंगमंचीयता का निरूपण किया जाता हैं।  रंगमंचीयता नाटक एवम् एकांकी का महत्त्वपूर्ण अंग हैं । जो नाटक तथा एकांकीयों और भी ज्यादा रोचक बना देता हैं । कोणार्क नाटक में लेखक रंगमंचीयता आकलन बहुत ही अच्छा किया हैं । रंगमंच पर केवल गिने-चुने ही पात्रों का प्रवेश किया जाता हैं । ज्यादा पात्र अगर मंच पर आ जाये तो वह मंच पर भीड हो जाती हैं । नाटक का संघर्ष भी रंगमंच पर प्रस्तुत करके नाटककार रंगमंचीयता को सँवारते हैं । युद्ध के वातावरण को प्राकृतिक वातावरण के साथ जोड़कर नाटक की शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन यह संभव हो तब ही हो पाता हैं, जब लेखक रंगमंचीयताता ज्ञाता हो । यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रंगमंच की दृष्टि से भी कोणार्क नाटक हिन्दी पाठकों और दर्शकों के पसंदीदा नाटक में से एक नाटक हैं ।