आज कल दलित साहित्य का बोलबाला चारों और चल रहा है । आवश्यकता इस बात की है कि दलित साहित्य का संदेश आम जनता तक पहुँचे । जिस समय हिन्दी साहित्य में सन् १९६० के बाद साहित्य के लिए साठोत्तरी शब्द का प्रयोग हो रहा था । उसी समय मराठी साहित्य में दलित साहित्य की गतिविधियाँ अत्यंत तीव्र थी । व्यवस्थित रूप में हिन्दी में दलित लेखन की शरूआत बीसवीं शताब्दी के दशवें दशक से शुरू हुई । इसी दशक में उसकी अपनी पहचान बनी और यह कहा जाने लगा कि २१ वीं शताब्दी दलित और महिला लेखन की है । इसी दशक में वह अपनी अस्मिता, स्वतंत्रता, अधिकार का प्रश्न सिद्दत से उठाते हुए अपने पैरों पर खड़ा होता है । अम्बेडकर की मृत्यु के बाद सातवें दशक से लेकर नवें दशक का दलित साहित्य ने समकालीन दलित साहित्य की पुख्त पृष्ठभूमि तैयार की । २१ वीं सदी भारतीय साहित्य में चले दो नये विमर्श-दलित विमर्श एवं नारी विमर्श के चलते उपलब्धिपूर्ण सदी मानी जायेगी । आज भारत की कमोवेश तमाम भाषाओं के साहित्य में ये दोनों विमर्श उत्तरोत्तर माने नये आयाम के साथ परिष्कृत व पुरष्कृत हो रहे है । इन दोनों लेखन के पीछे "हाशिये के बाहर के लोग" तथा दहलीज के भीतर और बाहर जुलसती नारी वर्ग के सदियों के संताप, व्यथा - वेदना, यातना - आकाँक्षाए, संघर्ष व सपने छिपे हुऐ है । अगर दलित लेखन की बाते करे तो वह दया, सहानुभति तथा याचकता की जगह स्वाधिकार की भावना, अस्तित्व के प्रश्न तथा दलित समुदाय की अस्मिता की पहचान को ज्यादा बल देता है । आम आदमी की मनुष्य के रूप में प्रस्थापना और समतावादी समाज की पक्षघरता दलित साहित्य का घोषित एजन्डा है । दलित साहित्य कई परंपरागत अघोषित पाबन्धियो, गुप्त रूप में दलित साहित्य लेखन आवश्यक ही नहीं आज के युग और बदलते समय की अनिवार्यता भी है ।
दलित साहित्य ने देश-दुनिया में पारंपरिक बुद्धिजीवियों को चौकन्ना कर दिया है । साहित्य को अपनी बपौती और जागीर समझनेवाले इन तथाकथित यथास्थितिवादियों की जिन लेखकों ने नींद हराम की है, उनमे दलित लेखक सक्रिय रहे है । पिछले कुछ ही वर्षों में हमारे समक्ष दलित साहित्य आया है । दलित समुदाय के बौद्धिक वर्ग के लेखक, वक्ता विचारक ने अपनी कलम को कुछ पैनी बनायी जिसके द्वारा उन्होंने अपनी तिरस्कृत, क्षुब्ध स्थिति तथा विचारों को अपने साहित्य के माध्यम से पाठकों के सामने रखा । इस सवर्णों द्वारा होनेवाले अत्याचारों का निरूपण अपने साहित्य में करते रहते थे और खुद को उसके प्रति सहानुभूति परक उदारतावादी सोच रखनेवालों में अग्रिम मानते थे । आज का युग क्षुब्धता, विसंवादिता, विषमता एवं विछिन्नता का युग है । साांत समाज की संकीर्ण मनोवृति, विषम परिस्थिति, अन्याय और अत्याचार, मानव के प्रति अश्रद्धा के युग में दमित, पीड़ित, कुचले हुए, शोषित और हाशिए के तिरस्कृत मानव की पीड़ा, वेदना, यातना, भावना, अपेक्षा, आदर्शों की समीक्षा और समस्या के साथ अपने अस्तित्व- अस्मिता की पहचान करानेवाला सामाजिक संचेतना को अभिव्यक्त करनेवाला साहित्य “दलित” साहित्य के रूप में पहचाना जाता है ।
(२) ' दलित ' शब्द का कोशगत अर्थ :-
भारत में वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक 'दलित' शब्द पर विभिन्न मत - मतान्तर प्रवर्तमान रहे है । विभिन्न परिवेश और संदर्भ जैसे भारतीय समाज व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, सांस्कृतिक वातावरण, राजनैतिक वातावरण, आर्थिक व्यवस्था इत्यादी दलित शब्द को भिन्न - भिन्न अर्थ प्रदान करते आये है ।
'संस्कृत - हिन्दी शब्दकोश' के अनुसार दलित शब्द ' दल ' धातु + ' तक ' प्रत्यय से मिलकर बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "टुटा हुआ , चीरा हुआ, फाड़ा हुआ, टुकडे किए हुआ, फैला हुआ ।”१ इस शब्द का लक्षणार्थ है- दबाया हुआ, दलन किया हुआ, कुचला हुआ, निचोडा हुआ, मसला हुआ, रोंदा हुआ आदि ।
हिन्दी भाषा में डॉ. हरदेव बाहरी द्वारा लिखित शब्दकोश 'उच्चतर - हिन्दी शब्द कोश' के अन्तर्गत दलित शब्द का अर्थ है जिसका दलन हुआ हो, जो कुचला गया हो ।”२ 'संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर' के अनुसार वि. (सं) (स्त्री. दलिता) मसला हुआ, वर्जिता, विनिष्ट किया हुआ ‘”३ जैसे अर्थ प्राप्त होते है । रामकुमार वर्मा के 'मानक हिन्दी कोश' में दलित यानी भू.कृ. (सं दल + कत) जिसका दलन हुआ हो, जो कुचला, दला, मसला, या रोंदा गया हो, टुकडे-टुकड़े किया हुआ, चूर्णित, जो दबाया गया हो अथवा जिसे पनपने या पढ़ने न दिया गया हो, हीन अवस्था में पड़ा हुआ, ध्वस्त या नष्ट किया हुआ ।”४
गुजराती भाषा के अध्या. के. का. शास्त्री का 'बृहद गुजराती कोश' में दलित शब्द का अर्थ है - दलित- कचड़ायेलु , दलायेलु , पीड़ित , डिप्रेस्ड ( कुचला हुआ, चूर्णित ) पाया जाता है ।"५ तो पददलित शब्द का अर्थ है- पग निचे कचड़ायेलुं ( पैरों तले कुचला हुआ ) , नीची कक्षानुं गणवाने कारणे परेशान थयेलुं ( निम्न स्तर में गिनती के कारण जो त्रस्त हुआ हो वह ) ।”६ इस प्रकार कोशों के कोशिय अर्थ में ' दलित ' शब्द एवं उनके पर्याय शब्दों के अर्थ दिये गये है ।
(३) दलित की परिभाषा :-
दलित यानी कि केवल अनुसूचित जाति , उपजाति नहीं , बल्कि सभी शोषित दलित है - इस प्रकार की परिभाषा ( DEFINITION ) मार्क्सवादी समीक्षकों ने की है । म.ना. वानखेडे कहते हैं- " दलित शब्द की परिभाषा केवल बौद्ध अथवा पिछडे हुए नहीं, बल्कि जो भी शोषित श्रमजीवी है , वे सभी दलित परिभाषा में सम्मिलित है ।"७ नामदेव ढसाल ने दलित की परिभाषा की है वे कहते हैं, " दलित यानी कि अनुसूचित जाति, उपजाति, बौद्ध श्रमिक, जनता मजदुर, भूमिहीन, खेतमजदुर, यायावर और आदिवासी है ।"८ "तो हिन्दी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के अनुसार दलित का अर्थ है- जो दलित है, पीड़ित है-वंचित है, चाहे वह व्यक्ति हो या समूह उसकी हिमायत और वकालत करना उसका फर्ज है । प्रेमचंद दलित शब्द अस्पृश्य और शुवर्ग के जीवन स्तर का सूचक है ।''९ इस प्रकार दलित शब्द का अर्थ भिन्न - भिन्न पाया जाता है ।
(४) दलित साहित्य की परिभाषा :-
भारत के कदाचित सभी प्रान्तों में और वहाँ के समकालीन साहित्य में किसी न किसी रूप में दलित जाति, दलित वर्ग एवं दलित चेतना पर लेखनी चल चुकी है । दलित साहित्य का उद्दभव, विकास, आवश्यकता, महत्ता, औचित्य-अनौचित्य, उपलब्धियाँ आदि पर आज भी विवाद रहा है । दलित लेखन मूलत : कल्पना , आदर्श मनोरंजन आदि से दुर तथा यथार्थ , सत्य , वास्तविकता एवं मनुष्य को केन्द्र में रखकर हमारे सामने आता है । दलित साहित्य का मूल उद्देश्य सामाजिक विषमता एवं उससे उत्पन्न अमानुषिकता के खिलाफ आवाज उठाना है । दलित रचनाकार के सामने समाज जीवन की विषमता , धार्मिक विसंगतियों , शोषण प्रेरित रूढियों तथा परम्पराएँ , सदियों का पशुतुल्य जविन का संत्रास पसके सौंदर्यगत प्रतिमानों को नई दिशा परम्पराएँ , सदियों का पशुतुल्य जीवन का संत्रास उसके सौंदर्यगत प्रतिमानों को नई दिशा प्रदान करते है । दलित साहित्य का केन्द्रबिन्दु ' मानव ' है , वह सदियों से प्रताडित मनुष्य को अपने होने का अहसास कराता है और उसे अपने अधिकारों से परिचित कराके अस्मितायुक्त जविन जीने का संदेश देता है । इसलिए वह अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति को नवीन भाषा , प्रतीकों , सौंदर्य द्दष्टि , अनुभव संसार से सजीव , सहज तथा जीवंत बनाना चाहता है । वह अपनी रचना में दलित व्यथा को सार्थकता प्रदान करवाकर ही दलित चेतना का विकास भी करता है । डो . मुल्कराज आनंद के शब्दों में आज हमारे देश में कोई सार्थक या उपयोगी लेखन हो रहा है तो वह दलित लेखन है ।”१०
गुजरात के नामांकित व मुर्धन्य साहित्यकार की कलम से दलित साहित्य की परिभाषा इस तरह है- दीपक महेता, "दलित साहित्य कोई एक वर्ग के वर्ण का साहित्य नहीं है । दुनिया में ज्यां क्यांय दलित शोषित क्षुथार्त होय तेनी साथै चैतकिक अने भावात्मक एक्य निपजावी सके ते दलित साहित्य । दलित साहित्यना केन्द्र आर ( बिन्दु ) माणस उभो छे । देव धर्म के देश करतां पण माणस वडेरो छे ।”११
प्रतिष्ठित मराठी दलित साहित्यकार बाबुराव बागुल की धारणा यह है कि- " दलित साहित्य वह विचार है जो मनुष्यों को शिक्षित करता है , जो मनुष्यों को देव , धर्म , देश से भी उच्च स्तर पर रखता है । यह वह विचार है जो आज के युग से मेल खाता है । दलित साहित्य का केन्द्रबिन्दु मानव है और मानव के इर्द - गिर्द ही घूमता है । "१२
हिन्दी के ख्यातनाम साहित्यकार एवं पत्रकार मोहनदास नैमिशराय के शब्दों में " दलित साहित्य यानी बहुजन समाज में सभी मानवीय अधिकारों एवं मूल्यों की प्राप्ति के उद्देश्य से लिखा गया साहित्या ।“१३
उक्त विभिन्न भाषा व साहित्यकारों द्वारा दी गई दलित साहित्य की अवधारणाएँ देखने से पता चलता है कि हरेक विद्वान ने अपने मत के आधार पर इसे परिभाषित करना चाहा है । अधिकांश परिभाषाएँ ' दलित साहित्य ' के संकुचित अर्थ में न रहकर व्यापक अर्थ बोध धारण करता दिखाई दिया है ।
(५) प्रमुख दलित उपन्यास :-
हिन्दी दलित साहित्य में कहानी , कविता , नाटक , निबंध , आलोचना , साक्षात्कार आदि विधाओं की तुलना में दलित उपन्यासों की संख्या बहुत कम है । उपन्यास संख्यात्मक दृष्टि से कम होने बावजूद दलित उपन्यासों की काफी गहरी है और सामाजिक यथार्थ को सही रूप से विचित्र करने की क्षमताएँ इसमें मौजूद है । स्वतंत्रता काल के दलित उपन्यासों का अध्ययन किया जाय तो डो . रामजी लाल सहायक द्वारा सृजित और सन् १९५४ ई. में प्रकाशित उपन्यास ' बन्धनमुक्ति ' को दावे के साथ अधुनिक काल का पहला दलित उपन्यास कहा जा सकता है । इसी क्रम में जय प्रकाश कर्दम द्वारा दो उपन्यास ' छप्पर ' और ' करुणा ' है ।
(क) बन्धन मुक्ति :-
उपन्यास में नायक शिवराज चमार है जो दलित जाति का बहादूर युवक है किन्तु आर्थिक दृष्टि से विपन्न है । शिक्षा खेलकूद में सब छात्रों से आगे रहने से गैर दलित छात्र इनसे घृणा रखते है । शिवराज के पिता का देहावसान हो जाता है । बिरादरी मृत्यु भोज माँगते है । वह मृत्यु भोज गैर जरूरी समझता है । अपनी बहन लीला को भी शिक्षा दिलाता है । चौधरी अपने बेटे से लीला की शादी करना चाहता है, किन्तु चौधरी के निठल्ले लड़के से वह शादी नहीं करता । उसके विरोधी बढते है । दलित जाति के एक अधिकारी के साथ लीला के साथ प्रेम का षडयंत्र रचा जाता है । दलित जाति के अफसरों की भाँति शराब पीते है, जो बाबा साहब नहीं चाहते है । उन्त में अधिकारी का लीला के साथ और अधिकारी की बहन रजनी के साथ शिवराज का विवाह दिखाया गया है ।
(ख) छप्पर :-
'छप्पर' जयप्रकाश कर्दम का उपन्यास दलित साहित्य की उत्कृष्ट रचना है । लेखक ने उपन्यास के पात्र सुक्खा और रमिया के माध्यम से दलितों की संवेदना को व्यक्त किया है । सुक्खा अपने बेटे चन्दन को शहर भेजता है शिक्षा प्राप्त करने के लिए । गाँव के सवर्णों को यह बात बुरी लगती है । यह परंपरा के विरूद्ध मानकर पंचायत बुलाकर कोई काम न देना तय करते है । दूसरी तरफ हरनामसिंह की बेटी रजनी सुक्खा तथा चंदन की मदद करती है । शहर में चंदन मजदुर सहायक की कोठरी में रहता है । बच्चों के लिए स्कूल खोलता है । उसमे सामूहिक बलात्कार की शिकार हरिया की बेटी कमला अपने बच्चे को पढाना चाहती है । उसका नाम लिखे जाने पर कुछ उसके विरोधी एक दिन चंदन पर वार करते है , किन्तु कमला उसे ढकेल कर खुद उस वार को सह लेती है और मर जाती है । उन्त में रजनी का विवाह चंदन से होता है । हरनाम की जायदाद गरीबों में बाँट दी जाती है ।
(ग) अमर ज्योति :-
अमर ज्योति में पात्र में नई चेतना मौदूद है । अमर दलित जाति का है और ज्योति ब्राह्मण जाती की युवती है दोनों मैडिकल कोलेज के सहपाठी छात्र है । ज्योति के मन में यह स्वाभिमानी विचार है कि इस दुनिया में ईश्वर ने स्वर्ग - नरक नहीं बनाया है न छोटी जातियाँ , कुछ स्वार्थी लोगों ने अपने आराम के लिए स्वर्ग - नरक बनाया है । भाग्य , भगवान , दुआ - दूत , अंधविश्वास , कुरीतियों को अमर अवैज्ञानिक बताया है । ज्योति प्रभावित होती है । अपने गाँव में जाने पर दलितों की बस्ती में जाती है । उनके यहाँ पानी पीती है । पिता उसके अमर के साथ विवाह का विरोध करता है । अन्त में दोनों मैरिज करते है । पिता का हृदय बदलता है वह अपनी भूमि में अस्पताल खोलते है जहाँ दोनों अस्पताल में डोक्टर का कार्य करते है ।
(घ) मिट्टी की सौगंध :-
प्रेम कपाडिया के इस अन्यास में दलितों के साथ अन्याय का विरोध दिखाया गया है । मदनसिंह गाँव का दबंग जमींदार है । उसकी हवेली में गरीबों की औरतों के शरीर के साथ खिलवाड होता है । मदनसिंह का लड़का बृजेन्द्रसिंह पिता के कृत्य से दु : खी है । एक दिन विधवा गंगा की बेटी शीला टकरा जाति है । शीला और गंगा दोनों हाईस्कूल पास है । इस पर वृजेन्द्रसिंह अपने फार्म हाउस पर काम दे देता है । दलितों पर अत्याचार का अपने पिता का विरोध करता है और पैतृक सम्पति छोड देता है । पिता उसे रमवाने का प्रयास करता है । नया दबंग दारोगा रिपोर्ट तो लिख लेता है , किन्तु कार्यवाही नहीं करता । एस.पी. दरोगा से कहता है वह बड़ा प्रभावशाली व्यक्ति है । इधर मदनसिंह दरोगा के खिलाफ हो जाता है । उसे मारने का षड़यंत्र रचता है । वृजेन्द्र जो सीतापुर अपने मित्र के यहाँ रह रहा था , सतर्क था । मदनसिंह की गिरफ्तारी होती है , किन्तु पूर्व जमानत के कारण वह जेल जाने से बच जाता है किन्तु वृजेन्द्र को जब मारने जाता है तो वह रितफ्तार हो जाता है । इस प्रकार की कथा है ।
(च) जस-तस भई सवेर :-
सत्य प्रकाश का यह उपन्यास दलित समाज में फैले अंधविश्वास - आडम्बरों का पर्दाफाश करता है । पुरोहित - साहूकार के शोषण से उपन्यास का नयक फंसता है सरवन , शिवदान पात्रों की मदद से पाखंडी पुरोहितों , भगत , मुल्ला , मौलवियों और ओझाओं के दुष्कर्म से वह बच निकलता है । गाँव में चौधरी देवीपाल का दबदबा है जिसके कारण वह दलित महिलाओं का यौन शोषण करता है तथा अपने काले कारनामों के सबूत मिटाने के लिए उनकी हत्याएँ कर डालता है । दैहिक शोषण की शिकार महिलाएँ व उसके परिजन पुलिस कार्यवाही की मांग करते है तो थाने - दार को देवीपाल से रिश्वत मिलती है । पुलिस प्रशासन में बैठा अधिकारी दोषियों को सजा दिलवाने की कार्यवाही करने की अपेक्षा निर्दोषों को उत्पीडित करने का प्रयास करता है ।
(छ) मुक्तिपर्व :-
मुक्तिपर्व उपन्यास गुलामी और आजादी के संक्रमण काल की घटना पर लिखा गया है । जिसमे दलितों को जमींदार और सामंतो के यहाँ गुलामी का अपमानजनक जीवन बिताना पड़ता था । आजादी के बाद जिसमें जमीन्दारी का खात्मा होता है उसी दिन बंसी दलित के घर बच्चा पैदा होता है । छः सात साल में बच्चे को स्कूल में दाखिल करने में काठिनाइयाँ फिर अच्छे अंको में मिडिल स्कूल पास करना आगे की शिक्षा में एक आर्य समाजी की पुत्री सुमित्रा का साथ जो उसे प्रोत्साहित करती है और कहती है कोई भी व्यक्ति जाति से छोटा बड़ा नहीं होता अपने से छोटा बड़ा होता है । अन्त में दोनों का सामीप्य है ।
(ज) जख्म हमारें :-
जख्म हमारें उपन्यास कथा की शुरूआत भूकम्पस से होती है । जो धर्मो और जातियों के बीच विभेद नहीं करता पर सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि अलग - अलग होने से समाज के निम्म वर्ग अलग अलग तरीके से प्रभावित होते है । मानो दर्द भी जातियों में बँटा होता हो । वर्ग विभेद की यही स्थिति भूकम्प राहत के कार्यक्रम में भी दिखाई पड़ती है । यहाँ भी दलित दलित ही रहता है । समाज का एक कुचला हुआ नायक , जिसके साथ पशुओं की तरह सलूक किया जा सकता है । लेकिन गुजरात के जन जीवन में एक और भूकम्प आने को है , जिसमे इनसानियत के सारे मूल्य साम्प्रदायिक विद्वेष की भेंट चढ़ जाते है । गोधरा कांड को बहाना बना कर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ जैसी पैशाचिक कृरता दिखाई जाती है , उसका दूसरा उदाहरण खोज पाना मुश्किल है । प्रस्तुत उपन्यास में गुजरात के सांप्रदायिक तांडव के बारीक़ विवरण इतने सक्षम रूप से उपलब्ध होते है , लेकिन अपने मूल रूप में यह दलित पीड़ा का लोमहर्षक आख्यान है । जिसको मोहनदास नैमिशराय ने बड़े अच्छे ढंग पेश किया है ।
(झ) बाजार बन्द है :-
उपन्यास 'आज बाजार बन्द है' दारूण कथा की अभिव्यक्ति है । उपन्यास विश्व में आदिकाल से समाज पर संभोगदर्शन का बीज रहा है । समाज और आध्यात्मिकता का दर्शन भी इससे अछूता नहीं रहा, बल्कि धार्मिक परम्पराओंने देह दर्शन की ओर भी अलौकिक तरीके से शुरूआत की है । मंदिरों ने नारी उत्पीडन की उसी परंपरा को विकसित किया । देवदासियों से लेकर वेश्याओं की मार्मिक कथा ' आज बाजार बन्द है ' है । देह व्यापार से देह उत्सव की रंगरलियों की भूल - भुलैया में फंसी दलित महिलाओं की दारूण कथा का सजीव चित्रण है । देह सम्मोहन से तनाव के बीच छटपटाती राष्ट्र की बेटियों के जीवन की विभिन्न परिस्थितियों पर सटीक और बेबाक डिपण्णी की गई है । उनकी अस्मिता तथा भटकाव के दोहाई से उनके उभरने के प्रयास को सामाजिक सरोकारों का दर्शन भी कहा जा सकता है ।
(ट) करूणा :-
उपन्यास की नायिका 'करुणा' एक भिक्षुणी है तथा वहीं इस उपन्यास का आधार बिन्दु है , किन्तु वास्तव में मैंने कभी किसी भिक्षुणी को अपनी आँखों से नहीं देखा है । प्राचीन बौद्ध साहित्य में भिक्षुणियों का उल्लेख हुआ है कि पुरूषों की भँती नारियाँ भी सद्धर्म में प्रव्रजित हुई है तथा अपने ज्ञान और साधना के बाल पर उन्होंने भी ' अर्हत्व ' तक प्राप्त किया है । भिक्षुओं की भाँती भिक्षुणियाँ भी श्रमण जीवन व्यतीत करती थी तथा संघ में रहती थी । भिक्षुणी के रूप में ' करूणा ' की कल्पना का आधार यही प्राचीन साहित्य है । यह आधार ही करूणा की मूल प्रेरणा प्राक्ति और कथावास्तु है ।
(ठ) दलित संघ :-
तमिल के प्रसिद्ध लेखक के चिनप्पा भारती का 'दलित संघ' उपन्यास महत्वपूर्ण है जिसका हिन्दी अनुवाद श्रीमती विजयलक्ष्मी सुन्दर राजन ने किया है । मूलरूप से यह उपन्यास तमिल भाषायें संघम नाम से १९८५ ई. में प्रकाशित हुआ था । इसमे तमिलनाडु के सेलम जिले के एक पहाड़ी गाँव के दलितों की व्यथा कथा है । इन पचास सालों की आजादी के बाद भी वे नारकीय जीवन जीने को मजबूर है । वे सेठ साहूकारों व्यापारियों के चुंगल में फंसे है । अगर कहीं विकास हुआ तो शहरो में । इन तक विकास धारा पहुँचते - पहुँचते सुख गई है । पुलिस न्यायलय सर्वत्र उनका शोषण है ।
(६) निष्कर्ष :-
उपरोक्त प्रमुख दलित उपन्यासों के अलावा राणाप्रताप का ' भूमिपुत्र ' , ' यात्रा ' , ' बनती है नहीं ' , ' अपना अपना सच ' , ' फुल के अंगार ' , ' वीरांगना झलकारीबाई ' , अरूणकुमार का ' अरूणदीप ' , ' शिखा ' प्रेम कपाडिया का ' ठंडी आग ' पाँच परछाइयाँ ' , ' गुरूचरण सिंह का ' कोयान की धार ' , कर्मेंदु शिखर का ' राम रतिया ' बाबूलाल मधुकर का ' पूर्ण सत्य ' , हरिकिशन सन्तोषी का ‘ दुध का कर्ज ' , कावेरी का ' काली रेत , ' डी.पी. वरूण और सुमन्त प्रसाद का ' आस - पास की दुनिया ' , होरिल रामशिरोमलि का ' छलके आँसू भीगे आँचल ' , आनंद स्वरूप का ' भ्रभर शहीद ' नवल वियोगी के ' सुहाग सिन्दुर ' तडपते साये कच्ची कली ' , दुसरी जिन्दगी , ' गिरे हुये लोग ' , ' प्रतीक्षा ' , ' अधूरी कहानी ' सुरेशचन्द्र कठेरिया का ‘ इस धरती से स्वर्ग भला ' ' अधूरा सच ' , शरणकुमार लिंबाले का मराठी से अनूदित उपन्यास- ' हिन्दू ' , ' नरवानर ' ' ब्राह्मण ' , सत्यप्रकाश का ' सायरन ' , रूपनारायण सोनकर के ' सुअरदन ' और ' डंक ' आदि लेखकों ने हिन्दी दलित साहित्य की समृद्धि में श्रीवृद्धि की है और कर रहे है ...।
(७) संदर्भ सूची : -
(१) संस्कृत - हिन्दी शब्द कोश - वामन शिवराम आप्टे, पृ. सं. ४५१
(२) उच्चतर - हिन्दी कोश - डो. हरदेव बाहरी, पृ. सं. १४
(३) संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर - संपा. रामचन्द्र वर्मा, पृ.सं. ३५
(४) मानक हिन्दी कोश- संपा. रामचन्द्र वर्मा, पृ. सं. ३५
(५) बृहद गुजराती कोश - अध्या. के.के.शास्त्री, पृ. सं. ११२९
(६) बृहद गुजराती कोश - अध्या. के. के. शास्त्री, पृ. सं. १३५६
(७) दलित विमर्श - डो. नरसिंहदास खेमदास वणकर, पृ. सं. १२
(८) दलित विमर्श - डो. नरसिंहदास खेमदास वणकर, पृ. सं. १२
(९) दलित विमर्श - डो.नरसिंहदास खेमदास वणकर, पृ. सं. १२
(१०) युद्धरत आम आदमी- संपा. रमणिका गुप्ता, अंक-३४/३५, वर्ष -१९९६, पृ. सं. ६५
(११) विमर्श - डो. नरसिंहदास खेमदास वणकर, पृ. सं. ६१
(१२) दलित साहित्य और सामाजिक न्याय - डो. पुरूषोतम सत्यप्रेमी, पृ. सं. ८३/८४
(१३) दलित साहित्य और सामाजिक न्याय - डो. पुरूषोतम सत्यप्रेमी, पृ. सं. ८३/८४