Thursday, 5 August 2021

सूर्यदीन यादव की कहानियों में यथार्थ

शब्द साधक डॉ. सूर्यदीन यादव एक अच्छे हिंदी सेवी और लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार है | कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध, संपादन, समीक्षा आदि विधाओं को अपनी लेखनी से संस्पर्श कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है | इनके लेखन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इनके साहित्य में शहरी एवं ग्रामीण जीवन के संयुक्त चित्र अंकित हैं | इन चित्रों की विविध रंगी रेखाएँ मिट्टी के रंग में रंग कर खुशबू बिखेरती है तथा समसामयिक यथार्थ से रू-ब-रू करवाती हैं | दूसरी ओर लेखक की कहानियाँ घर, परिवार, समाज एवं राष्ट्र को अपने ह्रदय के भीतर समेट कर चलती है | यादव जी का 'मेरी प्रिय कहानियाँ' कहानी संग्रह ई. स. २०१० में प्रकाशित हुआ था | उस संग्रह में कुल मिलाकर १६ कहानियाँ संकलित है | संग्रह की प्रत्येक कहानी समसामयिक परिवेश के यथार्थ रू-ब-रू करवाती हैं |
           'मेरी प्रिय कहानियाँ' कहानी संग्रह की प्रथम कहानी 'दोस्ती' है, यह एक सत्य घटना पर आधारित कहानी है | संसार में मनुष्य मात्र के दम-घुटन की समस्या से अवगत करवाती है | कबरी बिल्ली की सामान्य घटना द्वारा दम घुटने की वैश्विक समस्या से मुक्ति दिलवाने का विनोदात्मक शैली में उद्देश्य प्रधान प्रसंग को चित्रित किया है | नायक एवं नई पत्नी के बीच की दूरियाँ भी मिटाई जाती है | यानी कहानी में लेखक ने समस्या के साथ-साथ समाधान भी प्रस्तुत किया है | कबरी बिल्ली का प्रसंग पढ़ने वाले प्रत्येक पाठक अपने बचपन की स्मृतियों में रममाण होने के लिए मजबूर हो जाता है | इतना ही नहीं, एक सामान्य घटना से असामान्य उद्देश्य को हमारे सामने प्रस्तुत किया है |
'लेरुवा' शीर्षक से लिखित कहानी पशु, पक्षी एवं मनुष्य के प्रेमासक्त ह्दय का चित्रण करती है | यह कहानी आधुनिक परिवेश में पशु एवं मानव ह्रदय के भीतर बहती प्रेम गंगा से रू-ब-रू करवाती है | आज के भौतिकी परिवेश में मनुष्य-मनुष्य के बीच आपसी संबंध शुष्क हो गए है | इनके सामने लेरुवा कहानी हमें सुंदर, कोमल, निस्वार्थ और बाल सहज स्नेह से भिगोती है | 'लेरुवा' घर का एक सदस्य लगता है, बल्कि वह सच में एक गाय का बछड़ा है | 'ललकी' गाय बचपन में लेखक को दूध पिलाती है तब माँ स्वयं अपने आप से कहने लगती है कि यह मेरा बेटा है या ललकी का ? कहानी के अंत में परोक्ष रूप से अंधविश्वास की आग को सुलगाया है | जिसकी ज्वाला की दाहकता से शिक्षित और पढ़-लिखे लोग भी मुक्त नहीं हो पाते | अतः लेरुवा कहानी मनुष्य और पशु के बीच रसमय, सस्नेह प्रेम हदय की पाठशाला है | जो मनुष्य जाति को शिक्षित कर जाती है | यह कहानी पढ़ने के बाद महादेवी वर्मा की सस्नेह याद आये बीना नहीं रहती |
'अपने आदमी' कहानी आज के बदले हुए व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और परिवेश को कुरेद कर खाने वाली जातिवाद की समस्या को प्रतिबिंबित करती है | राष्ट्र और समाज को खोखला करने का काम वैषेले जाति के वैमनस्य ने किया है | इनके सामने व्यक्ति, समाज और राष्ट्र संघर्षमय एवं कुंठित हो जाता है | राष्ट्र की विकासात्मक प्रक्रिया में सबसे बड़ा रोड़ा बनता है | प्रस्तुत कहानी में लम्मदार एक उच्चवर्गीय चरित्र है जो कुबरा तथा चमार टोलियों के पास डरा-धमकाकर काम करवाता है | इनके हुकम से पुरवा के सब आदमी अपने-अपने हल और बैल लेकर लम्मदार के खेत में काम करने के लिए निकल पड़ते हैं | दोपहरी का असह्य घाम था, शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था तब पुरवा के लोग लम्मदार से दाना-पानी करने के लिए कहते हैं | उस समय तुरंत ही इनके अंदर का शैतान भड़क कर कहता है कि "करेगा क्या ससूर ? दाना-पानी हमें भी करना है, लेकिन वह दोनों बीघा खेतवा तोर बाप जोते ? चल जोत | जब तक पूरे खेतों में हर घूमि ना जाय तब तक छुटी न मिले |"१ यहाँ कहानी कथन में मानवीय अत्याचार, छुआ-छूत, ऊंच-नीच, जातिवाद आदि समस्याओं से पीड़ित और दु:खी मनुष्य आर्त पुकार सुनाई देती है | लम्मदार का बड़ा लड़का संजय भी कोई अच्छा इन्सान नहीं है | संजय हर समय बंदूक लेकर घूमता-फिरता था | पिता-पुत्र के बीच भी आपसी संघर्ष शुरू हो जाता है | खेतों के बटवारे तक बात आ पहुँचती है | चौधरी बीमार है फिर भी उसे काम करने के लिए ले जाया जाता है | उस समय जग्गू अपनी आवाज बुलंद करता है | इतना ही नहीं, जग्गू की आवाज में विद्रोह भी सुनाई पड़ता है | परिवर्तन है | बदलाव है | संघर्ष है | जग्गू लम्मदार से कहता है कि "अब वह जबरदस्ती नहीं चलेगी | हम लोग भी आदमी है |"२ अतः मनुष्य के साथ जानवर जैसे व्यवहार का एक नमूना लम्मदार है | कहानी के अंत तक आते-आते संघर्ष का शंखनाद विजय की ब्यूगल बन जाती है | चमार एवं चौधरी को देखकर स्वयं लम्मदार कहता है, "कभी मेरे आदमी थे | मेरे कदमों पर चलते थे | अब मेरे कोई नहीं है | अब यह खुद अपने-अपने गाँव और अपने देश के अपने आप में आदमी हो गये हैं |"३ 'ऊसर जमीन' कहानी नारी विमर्श संबंध है | नारी जीवन की व्यथा, पीड़ा, दर्द, अवहेलना, कसक और घुटन के दु:ख को व्यक्त करती है | अपने आप को सभ्य एवं सुसंस्कृत मानने वाला समाज आज भी संवरकी ऊसर को स्वीकारते नहीं, बल्कि उसे शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक यातनाओं के पहाड़ों के सामने टकराना पड़ता है | जो कतई नहीं टूटता | रघुपत दादा के शब्द समाज के यथार्थ को व्यक्त करते हैं कि "संवरकी की ऊसर जमीन-सी | भला क्यों पसंद आएगी लोगों को | ऊसर में ऊर्वर शक्ति नहीं होती | उन्हें कोई नहीं स्वीकारता |"४ संवरकी का चरित्र करुणा प्रधान चरित्र है | संवरकी न जाने राष्ट्र की कई स्त्रियों का प्रतीक है | कहानी में सबका ध्यान आकृष्ट करने वाली बात यह है कि डाकिया जब चिट्ठी पढ़ने लगता है तो पाठक के दिल और दिमाग दोनों ही तृप्त हो जाते हैं, "रघुपत दादा राम-राम | ऊसर में अंकुर फूट गए हैं | संवरकी माँ बनने वाली है |"५ कहानी के अंत तक आते-आते लेखक का आशावादी स्वर बुलंद हो गया है |
'पूजा' कहानी मानव मस्तिष्क में व्याप्त आस्था-अनास्था, आस्तिक-नास्तिक, श्रद्धा-अंधश्रद्धा आदि से संबंध रखती है | घर-परिवार में बच्चों की स्वतंत्रता किस तरह छीन ली जाती है | इसके सामान्य संकेत भी पूजा में प्राप्त होते है एवम् नगरीय सभ्यता की एक झलक मिलती हैं | नगरवासी सतही रूप से नास्तिक नजर आते हैं, परंतु इनके भीतर कहीं ना कहीं श्रद्धा और आस्था का दीपक प्रज्वलित रहता है | 'पहली मुलाकात' कहानी शैक्षिक और व्यक्तिक जीवन की कथा प्रस्तुत करती है | जिनमें लेखक और शोधार्थी के शोध-कार्य विषयक मुलाकात व यात्रा का सजीव वर्णन किया है | शोध-कार्य में आनेवाली बाधाएँ, विश्वविद्यालयों के अध्यापक, आचार्य एवं अध्यापक तथा अध्यापक-अध्यापक के बीच का आंतरिक संघर्ष एवं ज्ञान के रक्षक कैसे ज्ञान के भक्षक बन जाते हैं ! यह बखूबी और सांकेतिक ढंग से यथार्थ रूप में दिखाया है | पति-पत्नी के व्यक्तिगत जीवन की प्रथम मुलाकात के समय यह सलाह-मशहौरा दिया है कि पति-पत्नी की प्रथम मुलाकात में अरुचिकर बातें नहीं करनी चाहिए | जिससे पत्नी का दिल टूट जाय | शादी के जीवन को मधुर बनाने की ओर ईशारा किया है | प्रवर्तमान परिवेश का यथार्थ प्रतिबिम्ब झलकता है |
'दूसरी सफर' जैसे दिलचस्प शीर्षक से लिखित कहानी प्रत्यक्ष रूप से रेलवे सफर की यात्रा लगती है, लेकिन परोक्ष दृष्टि से यह कहानी जिंदगी के सफर में आने वाली बाधाओं की कहानी है | इसके साथ-साथ व्यक्ति को मिलनेवाली मनुष्य एवं समाज की ओर से झूठी हमदर्दी, भाईचारा, स्नेह, ममत्व का खुला चिट्ठा है | कितना भी कोई कुछ छीपा ले, परंतु व्यक्ति तथा समाज का असली चेहरा सामने आये बीना नहीं रहता | 'काफी कुछ' व्यंग्य प्रधान रचना है | शिक्षित एवं शहरी जिंदगी पर कड़ा व्यंग्य कसा गया है | उनके आचार-विचार, पोशाक-पहनावा, रहन-सहन, मनोजगत आदि पर सरल-सहज भाषा में व्यंग्य किया है | जो प्रत्येक समय अपने मुखौटों पर नकली मुखौटा पहनकर पेश आते है | परिवार और समाज को मध्यस्थ बनाकर 'वह रात' कहानी लिखी गयी है | 'चंदा' का मनोजगत शहरी जीवन के मनोलोक का प्रतीक है तथा गाँव के लड़कों के बीच के वैषम्य को रेखांकित करता हैं | शहरी सभ्यता के संतान तथा माता-पिता के संबंध के लिए लालबत्ती दिखाई है | "माँ-बाप के डर से संतान कठपुतली नहीं होती |"६ व्यक्ति के बदलते समय प्रवाह में परंपरा, रीती-रिवाज, रूढि़वादिता एवं संकुचित-मानस अवरुद्ध और बाधक बनते हैं | परिवार में शादी के पहले लड़का-लड़की मिल-देख नहीं सकते, क्योंकि यह समाज के सामाजिक बंधन है | शादी के बाद भी पर्दा-प्रथा में जीना पड़ता है | चन्दा की  पर्दा-प्रथा समाज की मोहन्धता को व्यक्त करती है | "परदा प्रथा के बंद होने पर झाँकने की प्रथा बंद हो सकती है, लेकिन लोग परंपराओं को अब भी ओढ़े हुए जी रहे हैं |"७ आझादी के इतने सालों बाद भी समाज में पर्दाप्रथा, बेमेल विवाह, रूढ़िवादी मानस, परंपरा तथा दहेज-प्रथा के खिलाफ़ परिवर्तन की लहर उठी फिर भी समाज को दीमक की तरह कुरेदकर खाये जा रही है |
'बिना बाप का बच्चा' नारी जीवन की वेदना को अभिव्यक्ति करती है | जिस कार्य के लिए पुरुष समाज को दाग लगता है, वही दाग समाज को निकम्मा और पुरुषहीन घोषित करता है | भारतीय समाज में विधवा बनकर जीना कितना कठीन है, इसका जीवंत उदाहरण कहानी नायिका 'नईकी' है | नईकी की विधवाओं का प्रतिनिधि पात्र हैं, जो इन यातनाओं को भोग रही है | नईकी जीवन में सहारा बनकर अपने बच्चे की भूख को तृप्त कर सके इसलिए वह छद्ददर की मनोकामना पूरी करती है, किन्तु पंचायत में जब छद्ददर को बुलाया जाता है | तब वे नईकी के बच्चे का बाप बनने के लिए तैयार नहीं होता और उस समय नईकी समग्र मर्द जाति का ठुकराघात करती है, "धिक्कार है ऐसे स्वार्थी-लंपट मर्दों को ! कमीनों औरत के साथ खिलवाड़ करके मुँह छिपाते हो |"८ कहानी अंतिम भाग में नारी सशक्तिकरण और परिवर्धन के ब्यूगल बजाती है | नईकी अपने बच्चों को गोद में लेकर चूमते हुये कहती है कि, "चल बेटा कहीं दूर चलें इन नामर्द मजदूरों और किराये के टट्टूओं के गाँव में नहीं रहना है | चलो कहीं दूर दूसरा नया समाज निर्माण करेंगे | जहाँ पर किसी बच्चे को बाप ढूंढने की जरूरत नहीं पड़ेगी |"९ नईकी नारी चेतना एवं बदलाव की प्रकाशित लौ ज्वालामुखी के समान भड़क उठती है |
शिक्षित समाज के गँवारेपन का पर्दाफाश करने वाली कहानी है, 'भूत के सामने' | शिक्षित लोग ऊपर से अच्छे-खासे मालूम होते हैं, लेकिन मन से कितना रूढ़ होते है | इसका पूरा शब्द चित्र इस कहानी में रेखांकित किया है | श्यामजी पढ़े-लिखे लेखक का दोस्त है और लेखक होली के त्यौहार पर उसको बधाई देने के लिए उनके घर पहुंचते है तथा देखते है कि श्यामजी के घर में राजनाथ, श्यामजी, श्यामजी की पत्नी, टंडनजी आदि थे | जो अंधविश्वास और दहशत के दलदल से आतंकी थे | यह भय फैलाने का काम राजनाथ करता है | समाज में भी ऐसे भय को स्थापित करने वालों के सामने लोग मुक प्रेक्षक बनकर रह जाते हैं | शिक्षित व्यक्ति भी राजनाथ जैसे शिकारी के शिकार होते है, परंतु लेखक अपनी मौजूदगी दर्ज करवा कर एक जागृत व्यक्ति की भूमिका अदा करते है | लेखक के बुलंद विद्रोह का स्वर है, "मैं नि:स्वार्थ भाव से भूत-प्रेत बैसिर-पैर की बातों का विरोध करता हूँ |"१० 'क्रांति और शांति' पारिवारिक टकराहट को व्यक्त करती है | जब हम कहानी के भू-तल में उतरे तब तरकी उस समाज का प्रतीक पात्र है | परिवार के स्वार्थी लोगों की बजह से क्रांति की जिंदगी किसी भी तरह कटी थी | छ: सदस्यीय परिवार का गुजर-बसर करना उनके लिए कड़ी साधना से कम न था, लेकिन शांति भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर उसका साथ निभाती है | 'सेठाइन' जब नायक के घर से चली जाती है तब इनके पिता शांति के लिए बीज रूप विधान कहते है, "हम नहीं जानते थे कि वह इतनी जबरदस्त क्रांति कर देगा |"११ 'वह सुबह' कहानी संस्मरणात्मक घटना से आप्लावित है | भोला और करमी इस कहानी के नायक-नायिका है | भोला और करमी के युवावस्था के सहज आकर्षण को व्यक्त कर समाज के तेरह-चौदह साल के युवकों की समस्या को लेखक ने उठाया है तरुणों में स्वप्नदोष की समस्या उठाई है | तरुण लड़के उन्हें छिपाते है एवं एक दिन भयंकर रूप धारण करने के लिए खुला न्यौता देते है | स्वप्न दोष को भ्रमवश एक रोग समझने लगते है | जिसके कारण युवा लड़के मानसिक पीड़ा से ग्रसित हो जाते हैं | इन सारे भ्रमात्मक विचारों को दूसरों के सामने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में अपनी संकुचित मन:स्थिति व्यक्त करने का आह्वान किया है | स्वप्न-दोष के कारण एवं मुक्ति के उपचार भी कहानी में लेखक द्वारा प्रस्तुत किये हैं | नायक को स्वप्न दोष की समस्या से अपने बचपन की हमजोली करमी बचाती है | सच तो यह है कि यह कहानी देश के लाखों युवाओं के भ्रमित मन के मैल को साफ करने का साबुन है | संभव हो कि राष्ट्र में भ्रमात्मक अवस्था जी रहे तरुणों को मुक्ति दिलाने में सफल हो |  'कम्प्यूटर की लड़की' कहानी में लेखक ने कलाकार के हुनरमंद स्त्रियों की शोषण दास्ता को प्रतिबिंबित करती है | इसकी भाषा सटीक-सहज है | धन लालसा इन्सान  को किस हद तक अमानवीय बना देती है | इसका जीवंत उदाहरण कम्प्यूटर की लड़की कहानी है | नायक भोला अपने वर्तमान एवं विगत जीवन के जरिए यह घटना स्पष्ट करता है कि यह कहानी समाज के अर्थशोसित लोगों की बदबूदार मन:स्थिति की गंदगी दिखाती है | घछियारीन, सुपती, माया, गीता एवं कम्प्यूटर की लड़की का किस तरह सफेदपोश वाले लोगों द्वारा खून चूसा जाता है यह अमित के शब्दों में व्यक्त किया है, "शोषण की मर्यादा होती है | इन लाचार गरीबों की आंखों पर पट्टी बांधकर इनका खून चूसते हो | देखो इनके तन पर की एक-एक हड्डी कोई भी गिन ले |"१२ समाज में आज भी अर्थ शोषण की भयंकर आग में जलकर न जाने कितनी जिंदगियाँ खाक हो जाती है |
'जमीन शिकार होती हुई' कहानी पिता की छबी को कलंकित करने वाली घटना को रेखांकित करती है | कहानी नायिका जैमिनी यानि जमीन है | जमीन एक कॉलेज छात्रा है | जो अपने ही पिता की रूढ़ और अंधविश्वासी मनोलोक की क्रूर शिकार बनती है | जिसकी चीखें आज भी दिवाकर के कानों में सुनाई पड़ती है | जमीन कॉलेज में व्यवस्था सुलभ न होने की वजह से अपनी सहेली के यहाँ उनके घर कपड़े बदलने के लिए जाती है, लेकिन उनका पिता जमीन पर शक करते है और अंतत: जान निकाल कर ही छोड़ते है | जमीन की घटना शैक्षिक संस्थान, अध्यापक-अध्यापिका, झूठी और फरेबी अफवाह, शंकालु स्वभाव, अज्ञान पिता की नासमझी आदि जमीन के मौत के लिए जिम्मेदार है | अध्यापक दिवाकर की पत्नी तेवर बदलकर पितृप्रधान समाज में पिता की भूमिका पर प्रश्न खड़ा कर देती है, "पिता इतना क्रूर हो सकता है, स्वप्न में भी नहीं सोची थी | ऐसे लोगों के कारण गाँव, समाज और देश में लड़कियों के सपने मात्र सपने रह जाते हैं |"१३
           अंत: समग्र कहानी संग्रह की कहानियों को पढ़ने के बाद यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि डॉ.सूर्यदिन यादव का 'मेरी प्रिय कहानियाँ' कहानी संग्रह  भारतीय समाज के सामाजिक परिवेश का यथार्थ और जीवंत दस्तावेज है | जिसके प्रमाण भारतीय शहरी एवं ग्रामीण समाज है | अपने संग्रह कहानियों में लेखक ने परिवार, समाज और राष्ट्र की ज्वलंत समस्याओं से अवगत करवाया है | कहानियाँ व्यक्ति, परिवार, समाज तथा राष्ट्र को इस गंदगी से बचने के उपचारात्मक सुझाव भी पेश करती है | कहानियों की भाषा पाठक के मन को आकर्षित करती है | भाषा-शैली कथानक, घटना, विचार, चरित्र और परिवेश के अनुकूल है, किंन्तु ग्रामीण परिवेश के चित्र अंकित करते समय लेखक ने देशज शब्दावली की मिलावट अधिक की है | जो पाठकों के लिए रुकावट बनती है | सच तो यह है कहानियों के कथानक शहरी और ग्रामीण समसामयिकता के हुबहू चित्र उभारते हैं | जिनकी रेखाएँ पाठकों के दिल और दिमाग में कायम अंकित हो जाती है | समग्रत: डॉ. सूर्यदिन यादव जी का प्रस्तुत कहानी संग्रह हिंदी साहित्य भंडार की समृद्धि बढ़ाता है और समाज को नई रोशनी देता है, तांकि समाज अपने भीतर की बदबूदार गंदगी से नया रास्ता खोजकर बाहर निकल सकें | यही लेखक का प्रधान उद्देश्य है | 
संदर्भ :-
(१) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-२७
(२) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-२३
(३) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-३१
(४) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-३८
(५) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-३९
(६) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-७७
(७) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-७५
(८) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-८८
(९) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-८८
(१०) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-१०४
(११) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-१०८
(१२) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-१२२
(१३) मेरी प्रिय कहानियाँ-डॉ.सूर्यदीन यादव, पृष्ठ-१३०