Monday, 2 November 2020

ताज कविता में व्यक्त मानवतावादी संदेश

प्रस्तावना :-
         हिन्दी साहित्य के सर्व प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार यानी सुमित्रानंदन ‘पंत’ । पंत जी को हिन्दी कव्य साहित्य में प्रकृति के चतुर चित्रकार और छायावाद के प्रमुख आधार स्तम्भ के रुप में पहचाना जाता है । सुमित्रानंदन ‘पंत’ ने  सात साल की छोटी उम्र से ही कविता लिखने लगे थे । हिन्दी काव्य जगत में पंत जी को ईस्वीसन् 1918 के आसपास नवीन धारा के कवि के रुप में पहचान मिलती हैं । सुमित्रानंदन पंत की प्रथम पहचान छायावादी कवि की है । इसके बाद दूसरी पहचान समाजवादी आदर्शो से प्रेरित प्रगतिवादी कवि के रुप में होती है और तीसरी धारा के अन्तर्गत अरविंद दर्शन से प्रभावित आध्यात्मवादी कवि की होती है । पंत अपने विस्तृत वाङमय में एक विचारक, दार्शनिक और मानवतावादी कवि के रूप में सामने आते हैं । उनका संपूर्ण साहित्य सत्यं, शिवं और सुन्दरम् के आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा है ।

‘ताज’ कविता :-
          सुमित्रानंदन ‘पन्त’ की ‘ताज’ कविता हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध कविताओं में से एक हैं । इस प्रगतिशील विचारधारा से संपृक्त कविता की रचना ईस्वीसन् 1935 अक्तूबर में लिखीत मानी जाती है । ‘ताज’ कविता सुमित्रानंदन पंत के ईस्वीसन् 1936 में प्रकाशित ‘युगान्त’ नामक काव्य संग्रह में संग्रहीत हैं ।

‘ताज’ कविता में व्यक्त मानवतावादी संदेश :-
           हिन्दी साहित्य में छायावाद के महानतम कवि पंत जी ने ‘ताज’ कविता में व्यंगात्मक के साथ मानवतावादी और प्रगतिशील विचार को वयक्त करते हैं । आज तक ताज महल को खुबसूरत इमारत और शिल्प कला का अद्भूत नमुना माना जाता रहा है लेकिन, साहित्यकार उसे एक ओर दृष्टि से भी देखते हैं । ताज महल को मृत्यु का प्रतीक, एक समाधी या कब्र के तौर पर देखते हैं । ताज निर्माण के कारणों को उचित न मानकर अपने विचार व्यक्त करते हैं । मृतक के लिए संगमरमर की इतनी भव्य और बहुमूल्य इमारत बनाई गई हैं, जब्कि संसार भर में  जिन्दा लोगों के पास रहने के लिए घर नहीं हैं । जीवित लोगों का जीवन कुरुप और भद्दा हैं बल्कि, मृतकों को सजाया जा रहा हैं । कवि मुर्दा लोगों को मुर्दा लोगों के साथ ही रहने देना चाहते हैं और जीवित जन को ईश्वरीय चेतना के साथ जी कर आगे बढ़ना चाहिए ।

“हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन? 
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन, 
नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?”1

            कवि काव्य की प्रथम पंक्ति में निहः साँस और दुःख के साथ कहते हैं कि मृतक लोगों का ऐसा अमरत्वपूर्ण पूजन करते हैं । जो व्यक्ति इस संसार में हैं ही नहीं, बल्कि अलौकिक हो गया इसका पूजन करते मानव को देखकर कवि को प्रश्न होता हैं । कवि ताज को भव्य सौंदर्यमयी, अलौकिक, चिरस्थायी तथा आस्था-श्रद्धा के प्रतीक मानते है, बल्कि यह स्मारक मृतकों के प्रति अपनी आस्था और श्रद्धा व्यक्त करता है जो उचित नहीं हैं ।  जब संसार में रहने वाले जीवित लोगों का जीवन विषादभरा और दुःखी है तथा निर्जीव, जड, चैतन्यहीन पड़ा हो येसे समय में मृत्यु के पीछे इतना बड़ा व्यय और श्रद्धा रखना उचित और न्याय संगत नहीं लगता है ।

           यहाँ मरण को संगमरमर के भव्य महलों में सुन्दर या शोभायुक्त तरीके से श्रृंगार करके सजाया जाता हैं । कवि संसार में रहने वाले जन को कहते हैं कि ये जन अपने तन-बदन को ढंकने के वस्त्र नहीं मिलते हैं । खाने को भोजन नहीं मिलता हैं । बेघर रहते हैं । अर्थात् जीवित जन अपनी सामान्य आवश्यकता के तौर पर अन्न, वस्त्र और आवास विहीन रहते हैं । तब यह कितना उचित हैं ? यहाँ कवि को प्रश्न होता हैं कि मृतक को स्वीकार और जीवित जन का इन्कार क्यों किया जाता है ? जो अन्याय और अनुचित भी हैं ।

“मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
आत्मा का अपमान, प्रेत औ' छाया से रति!!
प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को वरण?
स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण?”2

           इन पंक्तियों में कवि मानवजाति को संबोधित करके कहते हैं कि जीवन के प्रति इतनी उदासीनता या वैराग्य क्यों रखते हो ? जीवित लोगों का अपमान करते हो ? आत्मा का अपमान क्यों करते हो । जो लोग जिन्दा हैं उनकी उपेक्षा करते हो । ये मानव येसा क्यों करते हो ? प्रेत का अर्थ हैं जो मर कर रह जाते हैं और छाया का मतलब हैं मृत्यु के बाद जिसकी छाया बचती हैं । जो मानव संसार को छोडकर मात्र प्रेत और छाया बनकर रह गये हैं जिसकी केवल स्मृतियाँ शेष रह गयी हैं  । उनके प्रति इतना ज्यादा प्रेम और लगाव क्यों रखते हो । मानव यही तुम्हारा प्रेम हैं या यही तुम्हारा लगाव हैं ? मृतक को हम अपनाये और उसे प्रेम करें, जब्कि जीवित जन की उपेक्षा, अपमान या अनादर करना ही तुम्हारी प्यार पुजा हैं ?

“शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानव का?
 मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का? 
गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर? 
मानव के मोहान्ध हृदय में किये हुए घर!”3

            हम संसार भर में मृतक के लिए भव्य और सुन्दर संगमरमर की इमारतें, कब्र तथा महल बनाये और उसमें कंकाल यानी अस्थि पिंजर को रखें । संसार में जो स्थान जीवित जन के लिए सुरक्षित हैं उसे मृतक को से नहीं भरना चाहिए । अतः जीवित मानव के प्रति प्रेम रखें, उनका पूजन करें और उसे जीवन में स्थान देना ही उचित है । पहले हमे जीवित लोगों के बारें में सोचना चाहिए और बाद में मृतकों की चिंता करनी चाहिए । दुनिया में जो मान, सम्मान, आदर, रंग-रुप, शोभा और सत्कार मानव को देने चाहिए । यही हम एक शव, मृतक या छाया को दे रहे हैं । कवि के अनुसार यह उचित नहीं हैं । कवि कहते हैं कि जीवन में जीवित मानव को एक भद्दा चित्र बनाकर छोड़ दें और जीवित मनुष्य को भद्दा प्रतीक समझकर उसे छोड़ देते हैं । जो उचित नहीं है । मुर्दे  को ज़िन्दा मनुष्य की तरह सज़ा रहे हैं, सवार रहे हैं, सम्मान दे रहे हैं, जब्कि जिन्दा मनुष्य को हम कुरुप बना रहे हैं जो कि उचित नहीं हैं ।  गत यानी बिता हुआ भूतकाल । ताज बितें हुए समय यानी भूतकाल के येसे नियम या सिद्धांत का प्रतीक है, जिसकी आज कोई उपयोगीता नहीं है । हम ताज महल जैसे भव्य और सुन्दर स्मारक को बीते हुए रुढिवादी और सामन्तवादी आदर्शो या सिद्धांतों के प्रतीक मानते हैं, जब्कि इनका वर्तमान समय में कोई स्थान नहीं हैं । होना भी नहीं चाहिए । अत्यधिक मोह या भ्रम, बहुत ज्यादा लगाव के कारण सत्य को न देख पाने कारण कवि कहते हैं कि ताज महल जैसे रुढिवादी स्मारक आज भी मानव जाति के दिलों में अपना स्थान बनाये हुये हैं, कयोंकि आदमी कि दिल अज्ञान, भ्रम या बहुत ज्यादा लगाव के कारण दिशा हीन हो गया हैं । लोग यह समझ पाने मैं असमर्थ हैं कि उन्हें किसको अपने मन में स्थान देना चाहिए या किस को नहीं देना चाहिए ! उसी अज्ञानता के कारण वे ताज महल जैसे स्मारकों को अपने ह्दय में स्थान देते हैं, जब्कि यह ताज मनुष्य के शोषण के प्रतीक भी है ।

“भूल गये हम जीवन का सन्देश अनश्वर, 
मृतकों के हैं मृतक, जीवितों का है ईश्वर!”4

            हम मनुष्य जीवन मिलते ही जीवन के अनश्वर, अमर, सदा रहने वाला संदेश, नियम या सिद्धांत भूल गए हैं । कवि कहते हैं कि जीवन के प्रति हम इतने लापरवाह हो गये हैं कि ये अमर नियम या सिद्धांत भूल गए हैं । कवि के अनुसार ये विधाता, महापुरुषों या प्रकृति का नियम हैं कि मुर्दा लोगों को मृतकों के साथ ही रहने देना चाहिए, मृतकों की जिम्मेदारी मृतकों को लेनी या देनी चाहिए और जीवित लोगों को ईश्वर को साक्षी मानकर कर्म करते रहना चाहिए अथवा जीवन को श्रेष्ठ बननाने का प्रयास करना चाहिए । जो लोग जीवित हैं उनके भीतर ईश्वरीय तत्व है । चेतना हैं । इसी कारण उन्हें  एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए । ईश्वर से प्रेरेणा पाकर आगे बढते रहना चाहिए । उन्हें मृत लोगों के पीछे अपना समय और उर्ज़ा नष्ट नहीं करनी चाहिए । जीवित लोगों के साथ ईश्वर की करुणा होती हैं । मृत्यु को अनावश्यक महत्व नहीं देना चाहिए ।

संदर्भ :-

1) तारापथ-सुमित्रानंदन,लोकभारती-प्रकाशन संस्करण-2017, पृष्ठ-113
2)  वही, पृष्ठ -113
3)  वही, पृष्ठ -113
4)  वही, पृष्ठ -113