भावनगर विश्वविद्यालय, भावनगर कला संकाय के हिन्दी विषय में पीएच.डी. की उपाधि हेतु शोध प्रस्ताव का प्रारूप
"दलित सर्जकों के हिन्दी उपन्यासों में अंकित समस्याएँ : एक अध्ययन"
शोधार्थी
भवा कनुभाई करशनभाई
(यू.जी.सी./नेट/जे. आर. एफ./परीक्षा उत्तीर्ण दिसम्बर २००९)
मार्गदर्शक
प्रो. डॉ. एच. एन. वाघेला
आचार्य एवम् अध्यक्ष,
हिन्दी-भाषा साहित्य भवन,
भावनगर विश्वविद्यालय, भावनगर
फरवरी-२०११
प्राक्कथन :-
कला का सर्जन होता है चित्त को आनंदित करने के लिए । कला के माध्यम विभिन्न हो सकते है, किन्तु इसका लक्ष्य भावक के चित्त को विस्फारित विस्तार में विचरित करना होता है। साहित्य कला यह कार्य बड़ी सबलता और सुक्ष्मता से करती है। आनंद की अनुभूति और अभिव्यक्ति व्यक्तियों में भिन्न रूप में पायी जाती है । साहित्य और जीवन के बीच का संबंध अतूट है। साहित्य जीवन को केन्द्र में रखकर निरन्तर विकसित होनेवाली अभिव्यक्ति कला है। नित्यनाविन्य जीवन और साहित्य की मूल शर्त है। जीवन भी निरंतर नव्यता की खोज में लगा रहता है, साहित्य भी नूतन आविर्भावों का प्रकटीकरण है। जिस प्रकार साहित्य और समाज का भी सीधा सम्बन्ध है। इस प्रकार सर्जक और समाज का भी सीधा सम्बन्ध है। कितना भी बड़ा सर्जक क्यों न हो, लेकिन वह समाज से ही आता है। सर्जक और सूजन मूलरूप में समाज से जुड़े रहते है। समाज का प्रतिबिम्ब साहित्य सर्जन में पड़ेगा ही इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है।
साहित्य एक तरह से आईना है। शायद इसीलिए हरएक साहित्य में समाज विशेष की छबी प्रकट होती है। जिसमें समाज की विशेष विशेषताएँ एवं सीमाएँ होती है। मनुष्य मन के विकास एवं समृद्धि के साथ-साथ नई समस्याओं को जन्म दिया । इन समस्याओं को जाने-अनजाने साहित्यकारों ने अपनी साहित्यिक कृति में प्रतिबिम्बित किया है। उपन्यास एक ऐसी साहित्यिक विधा है जो विशाल रूप में इन समस्याओं को चित्रित करता है। इसीलिए जीवन को उदात्त और उन्नत बनाये रखने के लिए समस्याओं का चिन्तन, मनन, विश्लेषण एवम् अध्ययन आवश्यक है।
प्रस्तुत शोध-प्रबंध के विषय पर काफी काम हो सकता है। यह मेरा एक प्रयास है। हिन्दी साहित्य में अनेक विधाएँ पायी जाती है। मैंने उपन्यास विधा को शोधकार्य के लिए पसंद किया है। दलित सर्जकों के उपन्यासों में वर्णित समस्याओं को केन्द्र स्थान में रखकर शोध-प्रबंध का विषय चयन करने का प्रयास किया गया है। अतः मेरे शोधकार्य का विषय है "दलित सर्जकों के हिन्दी उपन्यासों में अंकित समस्याएँ: एक अध्ययन ।”
प्रस्तुत शोध-प्रबंध प्रो.डॉ. एच.एन. वाघेला साहब के स्नेहपूर्ण निर्देशन में संपन्न होनेवाला है। शोध-प्रबंध के विषय निर्धारण से लेकर सम्पन्न होने तक समय-समय पर सम्यक मार्गदर्शन एवं आवश्यक संशोधन करते समय मेरे प्रेरकबल बने रहेंगे। उनके प्रति मैं अपना श्रद्धा भाव समर्पित करता हूँ। जिन सहायकों ने मेरी सहायता की है इन सबका ऋणी रहूँगा। जिन विद्वानों की कृत्तियों से यह शोध-प्रबंध सम्पन्न होनेवाला है उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। माता-पिता के आशीर्वाद के साथ इस कार्य के लिए प्रवृत हुआ हूं इनके प्रति श्रद्धाभाव है, मेरे जीवन की हर साँस उनकी ऋणी रहेगी। किसी न किसी सम्बन्ध भाव से जुड़े मेरे आत्मीयजनों ने मेरी हर हाल में सहायता की है, उन सबके प्रति में हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।
अनुक्रम
अध्याय-१.
दलित साहित्य की अवधारणा
अध्याय-२. दलित साहित्य की विकासयात्रा
अध्याय-३. प्रमुख दलित उपन्यासकारों का व्यक्तित्त्व व कृतित्व
अध्याय-४. समस्या की संकल्पना, स्वरूप व प्रकार
अध्याय-५. दलित सर्जकों के उपन्यासों में अंकित समस्याएँ
अध्याय-६. उपसंहार
प्रस्तुत शोध-प्रबंध 'दलित सर्जकों के हिन्दी उपन्यासों में अंकित समस्याएँ शीर्षक कुल छः अध्यायों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक अध्याय का पूर्वापर सम्बन्ध है, जो निम्नलिखित रूप से है।
(१) दलित साहित्य की अवधारणा :-
इस अध्याय में दलित शब्द का अर्थ, कोशीय अर्थ, प्रवर्तमान विभिन्न मत-मतान्तर, दलित साहित्य की परिभाषा आदि का विश्लेषण करने का प्रयास किया जाएगा। भारत में वैदिककाल से लेकर आधुनिककाल तक 'दलित' शब्द पर विभिन्न मत-मतान्तर प्रवर्तमान रहे है। विभिन्न परिवेश और संदर्भ जैसे, भारतीय समाज-व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, सांस्कृक्तिक वातावरण, राजनैतिक वातावरण, आर्थिक व्यवस्था इत्यादि दलित शब्द को भिन्न-भिन्न अर्थ प्रदान करते आये है।
'दलित' शब्द 'दल' धात् 'कतं' से मिलकर बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है टूटा हुआ, चोरा हुआ, फटा हुआ, टुकड़े किया हुआ, फैला हुआ। इस शब्द का लक्षणार्थ है- दबाया हुआ, दलन किया हुआ, कुचला हुआ, निचोड़ा हुआ, मसला हुआ, रौंदा हुआ आदि । संदर्भ के मुताबिक इस शब्द के अनेक अर्थ होते है जैसे, दलित समाज या दलित वर्ग भारतीय समाज का वह तबका है, जिसे आभिजात्य वर्ग के लोगों ने सदियों से दबाकर रखा। भारतीय समाज व्यवस्था के सन्दर्भ में 'दलित' शब्द का अर्थ है ऐसा जनसमुदाय जिसे प्राचीन काल से तथाकथित सभ्य व सवर्ण समाज ने दबाकर रखा है, जिसे धार्मिक, सामाजिक एवम् आर्थिक सुविधाओं से वचित बनाये रखा। लेकिन आज-कल दलित शब्द की सही संकल्पना सामने आयी है।
(२) दलित साहित्य की विकासयात्रा :-
इस अध्याय में दलित साहित्य की विकासयात्रा का चित्रण किया जायेगा। भारत के कदाचित सभी प्रान्तों में और वहाँ के समकालीन साहित्य में किसी न किसी रूप में दलित जाति, दलित वर्ग, दलित चेतना का निरूपण हुआ है। स्वाधीनता प्राप्ति आंदोलन के साथ महाराष्ट्र में चले छुआ-छूत विरोधी आदोलन एवं उसके प्रणेता तथा सामाजिक क्रान्ति के अजेय योद्धा श्री महात्मा जोतिबा फूले तथा डॉ भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा के तहत दलित लेखन का आंदोलन चल पड़ा। मराठी साहित्य में दलित साहित्य लेखन की शुरूआत १९६० के बाद मानी जाती है। मराठी साहित्य के प्रेरणा स्त्रोतों में एक अफ्रीको 'नीग्रो साहित्य' 'Black Lite-rature' का भी प्रभाव माना जाता है। दलित साहित्य का उद्भव विकास, आवश्यकता, महत्ता, औचित्य अनौचित्य उपलब्धि आदि पर आज भी विवाद चल रहा है।
वर्तमान समय में हिन्दी का दलित साहित्य हिन्दी साहित्य से अलग अपनी पहचान बना चुका है। इतना ही नही उसने हिन्दी के परंपरागत सौंदर्य शारत्र को नकारते हुए अपना पृथक सौंदर्य शास्त्र भी निर्मित कर लिया है। दलित साहित्य का अपना चिन्तन, दर्शन और विचारधारा है। दलित साहित्य को विगत दो हाई दशकों में मिली लोकप्रियता और काफी समस्याओं के बाद मिली सामाजिक मान्यता का हो यह प्रभाव है कि साहित्य और सामाजिक ज्ञान के क्षेत्र में दलित समस्याएँ लगभग अनिवार्य-सी हो गयी है। हिन्दी के दलित साहित्य में विगत दो-ढाई दशकों में कविता कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, आलोचना, पत्रकारिता सभी विधाओं में प्रचुर दलित साहित्य की रचना हुई है। स्वामी अछुतानंद के 'आदि वंश का डंका से लेकर बल्लीसिंह चीमा के सनो ब्राह्मण तक दलित कविता की दीर्घ परंपरा रही है। दलितों को केन्द्र में रखकर हिन्दी उपन्यास और गैर दलित लेखकों ने भी उपन्यास लिखे है, किन्तु दलित उपन्यासकारों ने दलित जीवन को अधिक यथार्थ और विद्रोही चेतना के साथ चित्रित किया है।
हिन्दी की दलित आत्मकथाएँ मराठी दलित आत्मकथाओं से अत्यंत प्रभावित हैं। सन् १९६० के दशक में मराठी में प्रकाशित दलित लेखकों की आत्मकथाओं ने मराठी समाज को ही नहीं हिन्दी समाज की गहराई से उद्वेलित किया । हिन्दी के दलित लेखकों ने प्रचुर मात्रा में कहानियाँ लिखी है। जो दलित पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही हंस, कथादेश, कथाक्रम आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो रही हैं। दलित नाटकों की संख्या कम होने के बावजूद प्रभावशालो नाटक लिखे गए हैं और अनेक चर्चित नाटकों का मंचन भी हुआ। दलित आलोचना ग्रंथो में दलित साहित्य के जीवन दर्शन सौंदर्य शास्त्र और दलित समाज की सामाजिक विवेचना हो मुख्यतः अभिव्यक्ति हुई हैं। दलित आलोचकों में डॉ. एन.एन.सिंह, डॉ. धर्मवीर, कंवल भारती, डॉ. के. एम संत डॉ. दयानंद चटोही, डा. सुखवीर सिंह, डॉ. रमणिका गुप्ता, डॉ जयप्रकाश कर्दम, ओमप्रकाश वाल्मीकि आदि ।
(३) प्रमुख दलित उपन्यासकारों का व्यक्त्तित्त्व व कृतित्त्व-
प्रस्तुत अध्याय में प्रमुख दलित उपन्यासकारों का व्यक्तित्व व कृतियों का परिचयात्मक ढंग से विवेचन किया जायेगा।
(१) मोहनदास नैमिषराय
-आग और आन्दोलन (कविता), मुक्तिपर्व-१९९९ (उपन्यास), क्या आप मुझे खरीदोंगे-१९९९ (उपन्यास), अपने-अपने पिंजर (आत्मकथा), हैलो कामरेड़ (नाटक), अदालतनामा (नाटक) आदि ।
(२) जयप्रकाश कर्दम :-
में गूंगा नहीं था (कविता), छप्पर-१९९४ (उपन्यास) आदि ।
(३) ओमप्रकाश वाल्मीकि :-
काली रेत (उपन्यास), जुठन (आत्मकथा), बस्स! बहुत हो चुका (कविता) आदि ।
(४) धर्मवीर :-
पहला खत (उपन्यास) आदि ।
(५) सत्यप्रकाश :-
जसतस भई सबेर-१९९८ (उपन्यास) आदि ।
(६) प्रेम कपाड़िया :-
मिट्टी के सौगन्ध १९९५(उपन्यास) आदि लेखकों का साहित्यिक परिचय व कृतियों का परिचयात्मक ढंग से अभ्यास करने की कोशिष करेंगे ।
उपरोक्त प्रमुख उपन्यासकारों का संक्षेप नामोल्लेख व रचनाओं का नामाविधान किया गया है। इनमें परिवर्तन आवश्यक हैं।
(४) समस्या की संकल्पना, स्वरूप व प्रकार
शोध-प्रबंध के इस अध्याय में प्रमुख रूप से इन बातों पर विचार किया जायेगा। जिसमें समस्या किसे कहते है? समस्या की परिभाषा, समस्या के आयाम, समाज और समस्याएँ व समस्या के प्रकारों को प्रस्तुत करेंगे। जैसे, आर्थिक समस्या, सामाजिक समस्या, धार्मिक समस्या, सांस्कृतिक समस्या, राजनीतिक समस्या आदि मुद्दों का अध्ययन किया जायेगा ।
(५) दलित सर्जकों के उपन्यासों में अंकित समस्याएँ -
हिन्दी उपन्यास साहित्य की विकास यात्रा को देखने के पश्चात स्पष्ट होता है कि दलित जीवन का आक्रोश उपन्यास साहित्य म कहीं भी छिप नहीं सका हैं। दलित सर्जकों के उपन्यासों में दलित की अनेक समस्याओं का चित्रण हो पाया है। इस उपन्यासों का महत्व इसलिए ज्यादा है कि उन्होंने दलित जीवन को तस्वीरें खींचने के पर्याप्त जमीन प्रदान की। उपन्यासकारोंने बहुआयामी समस्याओं को प्रस्तुत किया है। उनकी द्रष्टि व्यक्ति की अपेक्षा समाज क उपेक्षित वर्ग पर परिलक्षित होती है। इसकी वजह से दलित जीवन को विविधताएँ ओर भी व्यापक रूप में स्पष्ट हो गयी है। उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज और व्यक्ति व्यक्ति को अलग-अलग रखने की अपेक्षा उन्हें पारस्परिक सापेक्षता में चित्रित कर व्यापक पृष्ठभूमि पर खड़ा किया है। उपन्यासों में वर्णित समस्याओं के आधार पर शोधकार्य किया जायेगा । इन उपन्यासों में सामाजिक अस्वीकार, व्यवस्था के प्रति आक्रोश, आम आदमी का शोषण, भ्रष्ट आचरण वाले लोग, लोगों का भोगवादी द्रष्टिकोण, आधुनिक स्वच्छंदता, नारी शोषण, भ्रष्टाचार, जाति-प्रथा, वर्ण व्यवस्था, वैचारिक संघर्ष, धार्मिक तिरस्कार, सांप्रदायिकता, संस्कृति का खंडन, सांस्कृति शोषण, साधुओं का ढोंग-हथ कंडे, नोकरी पेशा वर्ग में बेईमानी, रिश्वत निर्धनता, जन-धन का दुरोपयोग एवं गरीबी के कारण बिकते आदर्श, महंगाई, शिक्षित बेरोजगारी, अर्थोपयोजन, सत्ता हथियाने का प्रयास, अधिकारी वर्ग का पक्ष-पात पूर्ण रवैया, अपराधपूर्ण राजनीति, मंत्रीओं का रूख, चुनाव जीतने के तरीके आदि समस्याओं का अध्ययन व शोधकार्य किया जायेगा ।
भारतीय समाज का एक छोटा तबका (सवर्ण) धर्म, शिक्षा, राजनीति, साहित्य व संस्कृति पर अपना वर्चस्व बनाये रहा और उसका सबसे बड़ा तबका (तथाकथित अवर्ण) हाशिये पर पशु से भी बदत्तर स्थिति में जीवन जीने को बाध्य किया जाता रहा हैं। २० वी शताब्दी में भारत की हर भाषा में दलित साहित्य के उद्भव को लेकर साहित्य में कान्तिकारी परिवर्तन की शताब्दी रही। इन सब बातों को ध्यान में रखकर शोध-प्रबंध का विषय चुनाव भी उसी परिवर्तनगामी नयी विचारधारा के प्रभाव स्वरूप किया गया है। अध्ययन के पश्चात् मैंने यह पाया कि शोषणमूलक अमानवीय व्यवस्था हर जगह अपने अलग-अलग रूपों में फैलाये हुए इन्सानियत को लील जाने खड़ी हैं। इस बिन्दु को उजागर करना शोध-प्रबंध का एक लक्ष्य है। इसके अलावा हिन्दी में गैर दलित और दलित सर्जकों ने उपन्यास लिखे हैं किन्तु वास्तव में शोध-प्रबंध में दलित सर्जकों के हिन्दी उपन्यासों में अंकित समस्याओं को केन्द्र में रखा जायेगा। लेखकिय विभिन्न नजरिये से भी अवगत करना शोध-प्रबंध का मुख्य उद्देश्य हैं।
उपसंहार :-
उपन्यास विधा साहित्यकला है। कला सर्जक और समाज को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती है। समाज की कल्पना समस्याओं बिना नहीं हो सकती किन्तु समस्याओं के साथ विकास व विशेषताएँ उभर कर सामने आती है। वर्तमान समय में हिन्दी का दलित साहित्य हिन्दी साहित्य से अलग अपनी पहचान बना चुका है। हिन्दी के अन्तर्गत दो ढाई दशकों में सभी विधाओं में प्रच दलित साहित्य की रचना हुई है। दलित सर्जकों ने अपने लेखन के बल पर तहलका मचा दिया। अनेकविध विषयों तथा विधाओं में उन्होंने अपनी मेधावी प्रतिभा का परिचय दिया है। उनकी लेखनी में भारतीय दलित जीवन की समस्याओं का यथार्थ चित्रण परिलक्षित होता है। अतः दलित सर्जकों के उपन्यास में चित्रित समस्याओं की ओर शोधकर्ताओं की दृष्टि कम पहुंची हैं।
संदर्भ ग्रंथ सूची
(क) उपजीव्य ग्रंथ:-
(१) जख्म हमारे मोहनदास नैमिशराय (२०११)
(२) आज बाज़ार बन्द है मोहनदास नैमिशराय (२००९)
(३) छप्पर जयप्रकाश कर्दम ।१९९८)
(४) जस तस भई सबेर सत्यप्रकाश (१९९८)
(५) मिट्टी की सौगंध प्रेम कपाड़िया (१९९५)
(६) मुक्ति पर्व मोहनदास नेमिशराय (१९९९)
(७) क्या मुझे खरीदोंगे मोहनदास नैमिशराय (१९९९)
(८) काली रेत ओमप्रकाश वाल्मीकि
(९) पहला खत धर्मवीर
(ख) सन्दर्भ ग्रन्थ :-
(१) दलित साहित्य की भूमिका हरपालसिंह अरूष कुजबिहारी पचौरी, जवाहर पुस्तकालय, (उ.प्र.) २००५ सदर बाजार, मथुरा प्रकाशन
(२) दलित चेतना साहित्य एवं सामाजिक सरोकार रमणिका गुप्ता समीक्षा प्रकाशन २००१
(३) दलित हस्तक्षेप रमणिका गुप्जा, स. ओमप्रकाश वाल्मीकि प्रकाशक शिल्पायन २००८
(४) दलित साहित्य और युग बोध डॉ. एन.सिंह, लता साहित्य सदन प्रकाशन २००५
(५) दलित दुनिया डॉ. कालोचरण स्नेही, नवभारत प्रकाशन २००५
(६) मराठी दलित साहित्य आत्मकथा के मीलस्तंभ गुलाबराय हाडे जयभारती प्रकाशन २००७
(७) दलित साहित्य साहित्य और सांस्कृक्तिक निबन्ध डॉ रामप्रसाद २००३ मिश्र, आधुनिक प्रकाशन
(८) दलित साहित्य के स्तम्भडॉ. राजपालसिंह राज, श्री नटराज प्रकाशन २००७
(९) दलित अभिव्यक्ति संवाद और प्रतिवाद सं रूपचंद गौतम, श्री नटराज प्रकाशन २००७
(१०) हिन्दी साहित्य में दलित अस्मिता डॉ कालीचरण स्नेहीं आराधना ब्रथर्स प्रकाशन २००८
(११) दलित साहित्य की वैचारिकी और डॉ. जयप्रकाश कर्दम अकादमिक प्रतिभा प्रकाशन २००७
(१२) हिन्दी उपन्यासों में दलित वर्ग डॉ. कुसुम मेघवाल, संधी प्रकाशन १९८६
(१३) भारतीय दलित की समस्याएँ एवं समाधान जी.सिंह डॉ आर
(१४) दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचंद शाही, प्रेमचंद साहित्य संस्थान २००० सं. सदानंद
(१५) भारत का सामाजिक सांस्कृक्तिक इतिहास एम.एन. दास
(१६) दलित साहित्य का उद्देश्य प्रेमचंद, हंस प्रकाशन-१९६७
(१७) दलित साहित्य चिन्तन के विविध आयाम डॉ. एन. सिंह, आम प्रकाशन १९९६
(१८) दलित साहित्य आन्दोलन प्रकाशन १९९७डॉ. चन्द्रकुमार बरेठ, रचना
(१९) दलित अस्मिता और हिन्दी उपन्यास डॉ. पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी, अस्मितादर्शी साहित्य अकादमी प्रकाशन २०००
(२०) दलित चेतना केन्द्रित हिन्दी गुजराती उपन्यास डॉ. गिरीशकुमार एन. रोहित, गुजरात साहित्य अकादमी अहमदाबाद २००८
(२१) दलित साहित्य का समाजशास्त्र हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
(२२) स्वाधीनता संग्राम में दलितों का योगदान नैमिशराय, नीलकंठ प्रकाशन मोहनदास
(२३) दलित साहित्य स्वरूप और संवेदना डॉ. सूर्यनारायण रणसुभे, अमित प्रकाशन