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वर्तमान समय में मनुष्य दिन-ब-दिन विकास की गाथा सुनाता ही जा रहा है । आज के समय में यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि मानव विकसित सभ्यता ने आसमानी बुलंदियों को छुआ है । जिसके चलते उनके पास मनोरंजन एवं ज्ञान के अनेक साधन सामने आते-जाते रहते हैं । उनसे मनुष्य अपनी जिज्ञासा तृप्ति करने लगा, फिरभी इन्सानी हृदय और मन को संतृप्त करने वाले साधनों में साहित्य साधन बहुत ही मूल्यवान साधन सिद्ध हुआ है । साहित्य के मूलतः दो रूप पाये जाते हैं-एक है, लोकसाहित्य और दूसरा शिष्ट साहित्य । लोकसाहित्य आज के उत्तर-आधुनिक समय में भी अपना स्थान लोगों के बीच कायम रखता हैं । लोकसाहित्य मानव समाज, सभ्यता एवं संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है । जिसको मानव से कभी अलग नहीं किया जा सकता । लोकसाहित्य की प्रमुख विद्याओं में लोककथा, लोकवार्ता, लोकसंस्कृति, कहावतें, मुहावरें, पहेलियाँ, लोकगीत, लोकनाट्य आदि पाये जाते हैं । उसमें लोकगीत एक महत्त्वपूर्ण विद्या है । लोकगीत में मानव जीवन का साफ-सुथरा और सजीव प्रतिबिंब झलकता है । डॉ. सत्येन्द्र अपनी पुस्तक 'लोकसाहित्य विज्ञान’ में लिखते हैं कि “संभवतः आदिमानव ने वर्ण का प्रथम दर्शन 'गीत' के रूप में ही किया था |”१ भारतीय लोकजीवन लोकगीतों की धून एवं लय से धबकता दृष्टिगत होता है । लोकगीत लोकसंस्कृति का पर्याय और समाज के संस्कारों का दर्पण होते हैं । समाज व संस्कृति विशेष का अभ्यास लोकगीतों के जरिए भी संभव हो सकता है ।
लोकगीत को प्रकृति प्रदत्त विनय स्वर, ताल तथा शब्द का विकास माना जाता है । समसामयिक परिवेश में अंग्रेजी और हिन्दी फिल्मी गीतों की तीखी-त्वरित धून के आशिक ज्यादा मिलते हैं | फिर भी शिष्ट गीतों के सामने लोकगीत की रोशनी धून्धली नहीं पड़ी । वे आज भी लोकमानस एवं लोकहृदय पर राज करते हैं । हिन्दी भाषा की विभिन्न बोलियों के पास जीवन के प्रत्येक अवसर की कलात्मक अभिव्यक्ति की समृद्ध विरासत मिलती हैं । लोकगीत भारत वर्ष के प्रदेश विशेष के लोकजीवन एवं लोकसंस्कृति का हू-ब-हू दर्शन करवाते हैं । इतना ही नहीं, कुछ लोकगीत आधुनिक विज्ञान के प्रमाण को प्रमाणित करते है । यह लोक मानस की दीर्घ दृष्टि का परिणाम कह सकते हैं । हिन्दी की विभिन्न बोलियों के लोकगीत को स्वर, लय, ताल और शब्द को भारतभूमि की विशेष भावभूमि का संगम स्थान कह सकते है ।
आज की हिन्दी खड़ीबोली का ही मानक रूप है । इसकी बोलचाल की भाषा को ‘हिन्दुस्तानी' भी कहा जाता है । इनको 'कौरवी' के रूप में भी पहचाना जाता है । कौरवी में मुख्य रूप से राहुल सांकृत्यायन ने कुरु प्रदेश के लोकगीतों और कहानियों को ‘आदि हिन्दी की कहानियाँ और गीत' नाम से प्रकाशित किया है । यह माना जाता है कि “इस पुस्तक में संग्रहीत गीत और कहानियाँ राहुलजी को मेरठ जिले के किसी बुढ़िया से प्राप्त हुई थी । इस पुस्तक को उन्होंने गीतों का आगार उसी बुढ़िया को समर्पित किया हैं ।“२ खड़ीबोली के लोकगीत मेरठ के आसपास के लोकजीवन को स्पष्ट करते हैं । इनमें प्राचीन काल से गाये जाने वाले 'चांचर' या चर्चा के गीत, पनघट के गीत, खेतों के गीत, संस्कार के गीत आदि बहुत ही प्रचलित है । लोकगीत की भाषा लोक के भावनात्मक आवेग को तीव्रता के साथ प्रस्तुत करने वाली होती है । इनके लोकगीतों को हम कौरवी के लोकजीवन की अनुभूतियों का सामूहिक प्रकटीकरण कह सकते हैं । गीतों में होली, सावन, जन्म आदि का सुंदर वर्णन मिलता है और कन्या जन्म के उत्सव को गीत की निम्न पंक्तियों में स्त्री-पुरुष के परस्पर वार्तालाप के समय समाज में कन्या जन्म की उपेक्षित काली दृष्टि सामने आती है-
“गूंद लारी मलनियाँ हार,
जच्चा मेरी कामनियाँ...
राजा रानी दो जने री आपस में बद रहे होड
जो गोरी तुम घीय जनोगी, महलों से करदूँ बाहर
जच्चा मेरी कामनियाँ.....
जो गोरी तुम पूत जनोगी, सब कुछ ले लो इनाम
जच्चा मेरी कामनियाँ |”३
गीत की पंक्तियों में नायक के द्वारा नायिका को बताया गया है कि तुम बालिका को जन्म प्रदान करोगी तो महलों से बाहर कर दिये जायेगी, किन्तु तुमने पुत्र को जन्म दिया तो मनचाहा इनाम मिलेगा | यहाँ रुढिवादी समाज की पुत्र लालचा दिखाई पड़ती है। इस प्रकार कौरवी लोकगीत कुरु प्रदेश की पहचान करवा के हृदय को भर देता है । जिसमें लोक जीवन के सुख-दुःख की सामूहिक अभिव्यक्ति मिलती है ।
ब्रजबोली का लोक-साहित्य समृद्ध है । इसमें भी लोकगीत विशेष रूप में मिलते हैं । यह कह सकते है कि कृष्णभूमि हो और लोकगीत न हो । ये संभव ही नहीं है, ब्रज गीत में सावन के गीत विशेष लोकप्रिय है । कृष्ण और गोपी से जुड़े गीत ज्यादा सुंदर एवं मनभावन है । ये गीत रीति-रिवाज, विवाह, संस्कार, जन्म, कर्म आदि के माध्यम से ब्रजभूमि के घर-घर तक पहूँचा कर आते हैं । व्रजमंडल के गीत वहाँ के परंपरित जनमानस के इतिहास को प्रतिविम्बित करते हैं । ब्रज के एक बधाई गीत में पुत्र कृष्ण और माँ यशोदा का वर्णन दृष्टव्य है ।
“भए देवकी के लाल जसोदा जच्चा बनी,
सारे गोकुल में बजन बधाई लगी ।“४
ब्रज को कुमारियों के द्वारा साँझी कला के समय गाये जाने वाले गीत में मधुर स्वर लहरी का आनंद मिलता हैं -
"साँझौ मैना रो का आढ़ेगी, का पहरैगी?
काई को सीस गुंधावैगी?
मैं तो साल ओढुंगी मिसरु पहिरुँगी,
मोतिन की मांग भराऊंगी...”5
बुन्देली बोली बुन्देला राजपूतों के क्षेत्र बुन्देल खण्ड की बोली है । बुंदेली बोली के लोक गीतों का संग्रह करने का कार्य बहुत सुन्दर ढंग से हुआ । बनारसीदास चतुर्वेदी, मदनमोहन मालवीय एवं पुरुषोत्तमलाल श्रीवास्तव ने बुंदेली लोकगीत तथा लोक-साहित्य को संरक्षित करने की दिशा में उत्साह वर्धक कार्य किया है । बुंदेली के सबसे प्रसिद्ध गीत 'ईसुरी फाग' को माना जाता है । बुंदेली के गीत भाव, विचार और कल्पना के अलावा लोकानुभूति के लोकभाव, लोकविवेक और लोककल्पना का सामजस्य है ।
हरियाणवी को बांगरू और जाट भी कहते है । हरियाणवी विशेषत: फारसी लिपि में लिखी जाती है । हरियाणवी गीत अपनी अनोखी विशेषताओं को लेकर हरियाणा के आसपास एवं भारतवर्ष के कई स्थानों पर लोक मुख पर खेलते रहते है । उसका प्रस्तार एवं विस्तार इतना अधिक है कि जीवन का कोई भाव, व्यापार तथा प्रश्न ऐसा नहीं जो दरियाणवी लोकगीतों के बंधन में न आते हो । हरियाणा में पुत्र की उत्पत्ति पर प्रथम दस-बारह दिन आनंद और उत्साह के दिन होते है. गाना-बजाना और आनंद बधाई होती है । पुत्री जन्म पर एक ठेकरा फोड दिया जाता है। हरियाणा की लड़की ने इसी बात को एक गीत में व्यक्त किया है-
"म्हारे जनम में बाजै ठेकरे भाई के में थाली ।
बुट्ढा की रौवे बुढिया बी रौबै रोए हालो पाली ।“६
कनौजी पश्चिमी हिन्दी परिवार की बोली है । जिसमें जीवन से लेकर मृत्यु पर्यन्त के लोकगीत मिलते है। यह गीत वहाँ के प्रदेश विशेष के जन जीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
राजस्थान प्रांत लोकसाहित्य एवं लोककला के लिए अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। राजस्थानी की जयपुरी, मारवाडी, मालवी आदि बोलियों में लोकगीत के अखुट भंडार भरे पड़े है । राजस्थानी बोलियों में शौर्यपूर्ण लोकगीतों की संख्या महत्तम मिलती है । जिसमें नरोत्तमदास स्वामी के द्वारा संपादित 'राजस्थान रा दूढा के दो भाग, सूर्यकरण पारीक तथा ठाकुर रामसिंह द्वारा 'राजस्थान के लोगगीत' एवम् सूर्यकरण पारीक ने 'राजस्थानी लोकगीत' नामक पुस्तकों में राजस्थानी लोकगीत की विराट विरासत को संचित की गई है । जो सदियों तक लोकगीत के रसिकों के रस को संतृप्त करने में समर्थ है । आल्हा-खण्ड वीर रस का सर्वश्रेष्ठ काव्य कहा जाता है । इनकी प्रत्येक पंक्तियों में वीर रस की शक्ति के फव्वार फूटते हैं-
"दोनों फौजन के उन्तर में रहि गयो तीन पैग मैदान।
खटखट तेगा बाजन लागो, जुझन लगे अनेकन श्वासा”७
राजस्थानी वर्ग की बोली में मारवाडी बोली के गीतों की सशक्त परपरा पायी जाती है । मारवाडी लोकगीतों की पूजी को पाठक के सामने रखने के लिए खेताराम माली, मदन वैश्य, निहालचन्द्र शर्मा, ताराचन्द ओझा ने क्रमानुसार ‘मारवाडी गीत संग्रह', 'मारवाडी गीत माला', 'मारवाडी गीत' एवम् 'मारवाडी स्त्री गीत संग्रह' को प्रकाशित करने के सफल प्रयास किये है । मारवाडी प्राचीन राजस्थान मारवाड़ प्रान्त की बोली है । भारत किसान प्रधान देश है । भारतीय जीवन के रक्त में किसानी है । इसलिए किसान के जीवन का सीधा-सादा और सरल चित्रण लोकगीतों में मिलता है । मारवाड़ी का यह लोक गीत दृष्टव्य है -
“उठे ही पीरो होय उठे ही सामरो
अथूर्णो होई न खेत चवे न आसरो ।
नाढा खेत नजीक जडे खोलणा।
इतना दे करतार फेर नहीं बोलाया।“८...
किसान केवल यह चाहता है कि उसके पिता का घर और उसकी ससुराल एक ही गाँव में हो, खेत पश्चिम में हो, झोपडी वर्षा के दिनों में टपकने वाली न हो । तालाब खेत के पास ही हो, जिससे बैलों को पानी पीने के लिए दूर न जाना पडे। भगवान इतना दे दे तो उससे और कुछ नहीं माँगना ।
मालवी बोली प्राचीन मालव एवं वर्तमान उज्जैन की बोली है । यह बुन्देली और मारवाडी से बहुत प्रभावित है । इस बोली के प्रारंभ में लोकगीतों का संकलन उपलब्ध नहीं था, किन्तु श्याम परमार ने मालवी लोकगीत' एवं 'मालवी लोकगीतों का गवेषणात्मक अध्ययन' तैयार करके मालवी गीतों की अभावभूर्ति कर दी । ऐसा कह सकते है ।
हिन्दी की बिहारी वर्ग की बोलियों में मराठी, मैथिली और भोजपुरी है | भोजपुरी को 'पूरबी' भी कहते हैं । भोजपुर की बोली भोजपुरी कहलाई गयी । भोजपुरी के पास लोक-साहित्य और शिष्ट साहित्य की मूल्यवान विरासत है । भोजपुरी लोकगीत अपनी विशेषताओं के साथ गाये जाते है । इन गीत के पीछे कोई न कोई राम कहानी अवश्य जुडी मिलती है । भोजपुरी लोकगीत की लगभग पंद्रह से अधिक श्रेणी मिलती है । भोजपुरी लोकगीत की सामग्री पीछले कई वर्षों से बिहार से निकलने वाली भोजपुरी' पत्रिका द्वारा प्रकाशित की जाती है । वहाँ के जीवन में जब कोई पुरुष की मृत्यु हो जाती है तब घर की स्त्रीयों में विशेष पुरुष की पत्नी अपने पति के विभिन्न गुणों का उल्लेख करती हुई लय के साथ विलाप करती है ।
"के मोरा नइया के पार लगाइ है ए रामा।
अब करुसे दिनवा काटवि ए रामा ।
आताना आरामवा हमरा के दिहले।
थयजन दुरदमवा होई ए रामा |”९
मगही मगध प्रान्त की बोली है | इनका साहित्य कैथी एवं नागरी लिपि में लिखा जाता है मगही बोली के लोकगीतो पर अनेक विद्वानों ने संकलन तैयार किया परंतु मराठी लोकगीतों का एक संकलन राष्ट्रभाषा परिषद पटना, बिहार से प्रकाशित है। वह प्रमाणभूत सामग्री का दस्तावेज है ।
मैथिली लोकगीतो की कुछ कमी नहीं है । इस बोली के लोकगीत बड़े ही मधुर और सरस होते हैं । मैथली गोतों के संग्रह कर्ता में श्रीराम इकबालसिंह 'राकेश' का 'मैथिली लोकगीत' को समुद्र जल से एक बूंद के बराबर कह सकते है । मैथिली को 'तिरहुतिया' तथा 'देसिल बयना' भी कहते है । मैथिली के एक प्रेम गीत की बात करे तो चैता प्रेम गीत होता है । इस चैता या चैतावर में बसंत की मस्ती एवं रंगीन भावनाओं का अनोखा सौंदर्य वर्णित होता है । मैथिली विरहिणी महिला अपने मूर्ख पति को कहती है कि चैत यानि वसंत बीत जायेगा तब मेरा मूर्ख पति घर आकर क्या करेगा ?.
“चैत बीति जयतइ हो राम ।
तब पिया की करे अयतई ।
आरे अमुआ मोजर गेल
फरि गेल टिकोरवा,
ढाले पाते भेल मतलबवा हो राम |
चैत बीति जयतइ हो राम ।
तब पिया की कर सयतई।“१०
हिन्दी भाषा की पूर्वी बोलियों में अवधी, बधेली एवं छत्तीसगढ़ी है और पहाड़ी क्षेत्रों की बोली गढ़वाली तथा कुमाऊँनी का लोकगीत साहित्य समृद्ध है । अवधी अवध प्रान्त की बोली है । इसे 'कोसली' या 'बैसवाडी' नाम से भी जाना जाता है । पहले के समय में अवधी के लोकगीत प्रकाश में नहीं आये थे, किन्तु पीछले कई समय से अवधी लोकगीत को प्रकाश में लाने का प्रशंसनीय कार्य हो रहा है । रामनरेश त्रिपाठी ने 'कविता कौमुदी' भाग पाँच में कुछ अवधी लोकगीतों का संग्रह किया है । बाद में त्रिलोकीनारायण दीक्षित ने अवधी के प्राचीन एवं आधुनिक लोक कवियों का संक्षेप परिचय करवाया है । अवधी में पुत्र जन्म के अवसर पर गाये जाने वाले गीत को सोहर या मंगल कहते है | ऐसे अवधी के मंगल गीत से रू-ब-रू होते है
“गावहू ए सखि, गावहु, गाइ के सुनावहु हो।
सब सखि मिलि जुलि गावहू, आजु मंगल गीत हो।“ ११
लोकगीत लोकसंस्कृति का पर्याय एवं समाज के संस्कारगत जीवन का दर्पण होते है । छत्तीसगढ़ राज्य को बोली छत्तीसगढ़ी है । यह आदिवासी बहुल क्षेत्र है । इसलिए इनके पास लोकसाहित्य व लोकगीत की अत्यंत विपुल मात्रा में मिलाता है । डॉ.श्यामाचरण दुबे ने 'छत्तीसगढ़ी लोकगीतों का परिचय' पुस्तक में इस क्षेत्र के गीतों का संग्रह तैयार किया है तथा पंडित रामनारायण उपाध्याय ने निमाडी ग्राम-गीत' को संकलित किया है ।
लोकगीत की भाषा प्रदेश विशेष की सहज-सरल जन भाषा होती है । लोकगीत या लोककाव्य की आत्मा उसकी सरलता, सहजता और सरसता में होती है । लोकगीतों में अलंकार का प्रयोग अनायास अवश्य देखने को मिलता है । वे स्वतः आ जाते हैं । उपमा, श्लेष, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का गीत में आधिपत्य रहता है । उपमा का एक उदाहरण दृष्टव्य है | जैसे,
“पहिले बहिर सम
फिर भइले टिकोरा ।
सहयाँती के हाथ लागत,
होई गइले सिन्धोरा ।“ १२
लोकगीतों में रस का वर्णन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, क्योंकि ये गीत जनता के रस रंग में डूबे हुए होते है | रस को गीत की आत्मा मान सकते है । संयोग-वियोग श्रृंगार, वीर, वात्सल्य, शांत, हास्य, करुण आदि रस का परिपाक गीत को सरस बनाते हैं ।
लोकगीत जंगल के फूल की तरह स्वतंत्र वातावरण में उत्पन्न होते है और उसी वातवरण में इनका विकास होता है । लोकगीतों के संबंध में पं.रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है कि “इसमें छन्द नहीं, केवल लय है।"१३ लोकगीत के लिए कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लोकगीतों की साँस अगर किसी को कह सकते है तो वह लय है । लोकगीत प्रायः तुकान्त होते है; फिर भी इनमें तुक का पालन कठोरता से नहीं किया जाता । स्वर, व्यंजन, पद को पंक्ति में सम या विषम रखकर तुक में लोकगीत ढाले जाते है ।
गीतों का वास्तविक आनंद सस्वर लय पूर्वक गाने में होता है । हस्व और दीर्घ स्वर को पारस्परिक अपने लय के अनुसार बदले जाते है । गीत की पंक्तियों में अक्षरों की कमी को नये शब्द को जोड़कर पूरी की जाती है । गीतों का लयपूर्वक गायन गीतों में जान डाल देता है । शुष्क से शुष्क गीत को भी लय सरस, मधुर और रसात्मक बना देता है ।
अतः हिन्दी की विभिन्न बोलियों में लोकगीत की सुन्दर सविस्तृत परंपरा मिलती है। जो जनजीवन और जनसंस्कृति के वाहक मिलते है । यह कह सकते है कि हिन्दी की बोलियों के लोकगीत से भारत वर्ष के लोकदर्शन हो सकते है ।
संदर्भ सूचि :
१. डॉ. सत्येन्द्र, 'लोकसाहित्य विज्ञान', पृ. ३१४
२. डॉ. कृष्णादेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. २२
३. डॉ. सत्या गुप्त, ‘खडीबोली का लोकसाहित्य’, पृ. ५३
४. डॉ. जयश्री शुक्ला, 'लोकसाहित्य की प्रासंगिकता', पृ. ३७०
५. डॉ. रामनिवास शर्मा, 'लोकसाहित्य और संस्कृति,' पृ. ४५
६. दीनदयालु गुप्त, 'हरियाना प्रदेश का लोकसाहित्य, पृ. १२७
७. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. २११
८. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. २४१
९. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, लोकसाहित्य की भूमिका', पू. ६१
१०. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, लोकसाहित्य की भूमिका’, पृ. ७०
११. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पू. ४२
१२. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. १९४
१३. डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय, 'लोकसाहित्य की भूमिका', पृ. २१३